एक चिंतक-विचारक-लेखक, एक राजनीतिक साधु-योद्धा, एक क्रांतिधर्मी, एक प्रखर संसदविद्....इन्हीं सारे विशेषणों के समुच्चय का नाम है किशन पटनायक। भारत के समाजवादी आंदोलन के तेजस्वी और यशस्वी नेताओं में से एक किशन जी का व्यक्तित्व-कृतित्व और उनके सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों का दायरा इतना विराट है कि उसे डेढ़-दो सौ पन्ने की किताब में नहीं समेटा जा सकता। फिर भी उनके अभिन्न सहयोगी और समर्पित समाजवादी लेखक अशोक सेकसरिया तथा एक अन्य सहयोगी संजय भारती ने सीमित संसाधनों के बूते एक प्रयास किया है। किशन पटनायक: आत्म और कथ्य शीर्षक से तैयार पुस्तक उनके इसी प्रयास का साकार रूप है।
तीन अध्याय की इस किताब का पहला अध्याय किशन जी के अधूरे आत्म-कथन का है, जो उनसे बातचीत पर आधारित है। इसमें किशन जी ने अपने जन्म स्थान (ओडिशा में कालाहांडी जिले का गांव भवानीपाटना), अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि, ओडिशा में स्कूली शिक्षा तथा नागपुर में उच्च शिक्षा, अपने साहित्यिक रुझान आदि के साथ ही सोशलिस्ट पार्टी से जुड़कर सुरेंद्रनाथ द्विवेदी के संपर्क में आने और फिर जीविका की तलाश में मद्रास (चेन्नै) पहुंचने, वहां जाकर नौकरी और पार्टी का काम करने तथा वहां से सुरेंद्रनाथ द्विवेदी के कहने पर वापस ओडिशा लौटकर पार्टी के काम में जुट जाने के दिनों की तफसील से जानकारी यादों के झरोखों से दी है।
इसी सिलसिले से किशन जी ने आगे जो कुछ बयान किया है वह तो एक तरह से देश की आजादी के बाद समाजवादी आंदोलन का संक्षिप्त इतिहास ही है। इसमें उन्होंने बताया है कि कैसे वह डॉ. लोहिया से प्रभावित हुए, लोहिया ने कैसे उन्हें हैदराबाद भेजकर सोशलिस्ट पार्टी की मासिक पत्रिका मैनकाइंड निकालने की जिम्मेदारी सौंपी, कैसे वह फिर ओडिशा लौटकर पार्टी के काम में जुटे और किस तरह वह जेल में रहते हुए संबलपुर से लोकसभा का चुनाव जीतकर उस दौर में सबसे कम उम्र के संसद सदस्य बने। इसी आत्म कथ्य में किशन जी ने डॉ. लोहिया के निधन के बाद उनके सहयोगियों में गुटबाजी पनपने और पार्टी में बिखराव के कारणों पर भी प्रकाश डाला है। इसी कालखंड में उनका वाणी मंजरी दास से विवाह होता है। विवाह के बाद वे दिल्ली में ही पार्टी के सांसद के सर्वेंट क्वार्टर में रहने लगते हैं। रमा मित्र के साथ मिलकर ‘मैनकाइंड’ का प्रकाशन फिर से प्रारंभ करते हैं। कुछ समय बाद पार्टी नेतृत्व और अन्य साथियों से नीतिगत मतभेदों के चलते पार्टी से अलग होकर लोहिया विचार मंच का गठन कर लेते हैं। इन सब घटनाओं के सिलसिलेवार वर्णन के साथ ही किशन जी बिहार आंदोलन और इमरजेंसी के दिनों का भी जिक्र करते हैं। यहां उल्लेखनीय बात यह भी है कि पार्टी में अपने साथियों से मतभेद की बात को किशन जी ने जरा भी छुपाया नहीं है लेकिन उनका जिक्र करते हुए वे किसी के भी प्रति जरा भी कटु नहीं हुए हैं। हां, उन साथियों की खूबियों का जिक्र करने में वे जरा भी अनुदार नहीं हुए।
पुस्तक का दूसरा अध्याय है ‘लोकसभा में’। यद्यपि किशन जी एक ही मर्तबा लोकसभा में पहुंचे और पूरे पांच साल 1962-67 तक वहां रहे। लेकिन अपने इस एक ही कार्यकाल में वे लोकसभा में अपनी संसदीय प्रतिभा की धाक जमाने में पूरी तरह सफल रहे। हालांकि उस समय की लोकसभा की कार्यवाही के पूरे दस्तावेज उपलब्ध न होने की वजह से 1965 से 67 तक की कार्यवाही के ही कुछ चुनिंदा अंशों का यहां समावेश किया जा सका है लेकिन उन अंशों को पढ़कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि किशन जी कितनी तैयारी के साथ लोकसभा में जाते थे। किशन जी लोकसभा में ओडिशा के संबलपुर निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते थे लेकिन उनके संसदीय सरोकार सिर्फ अपने निर्वाचन क्षेत्र या अपने प्रदेश तक ही सीमित नहीं थे।
वे जितनी शिद्दत से कालाहांडी, बलांगीर और संबलपुर जिलों में व्याप्त अकाल और भुखमरी के हालात की ओर देश और सरकार का ध्यान खींचते थे, उतनी ही बारीकी से नगा समस्या, देश के विभिन्न भागों के आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन से जुडे मुद्दों, देश की सीमाओं की सुरक्षा से जुड़े सवालों और देश की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली पर भी सरकार की खिंचाई करते थे। कई बार तो उनके प्रश्न और प्रतिप्रश्न इतने तीखे होते थे कि सरकारी पक्ष बुरी तरह तिलमिला जाता था। कहा जा सकता है कि 1962 के आम चुनाव में उनके और फिर उपचुनाव के जरिए डॉ. लोहिया और मधु लिमये के लोकसभा में आने पर ही तत्कालीन सरकार को महसूस हुआ होगा कि विपक्ष क्या होता है।
पुस्तक का तीसरा और अंतिम अध्याय परिशिष्टों का है। पहले परिशिष्ट में किशन जी की पत्नी वाणी मंजरी दास का लेख है जिसमें वाणी जी और किशन जी के परिचय, मित्रता और विवाह की कहानी है। इसी के साथ विवाह से पहले वाणी जी को लिखे गए किशन जी के चुनिंदा पत्र हैं जिनसे न सिर्फ उनके उदात्त संबंधों को बल्कि नर-नारी समता के मूल्यों को समझने में मदद मिलती है। दूसरा परिशिष्ट साथियों के नाम किशन जी के पत्रों का है जिसमें अशोक सेकसरिया, सुनील आदि को लिखे चुनिंदा पत्र हैं। तीसरे परिशिष्ट में किशन जी की लिखी तीन कविताएं हैं। इन कविताओं से उनकी अथाह संवेदनशीलता और हिंदी भाषा पर उनके अधिकार का पता चलता है।
चौथे परिशिष्ट में किशन जी का एक लेख है जिसमें उन्होंने बताया है कि 1989 में जनता दल की लहर के दौरान उन्होंने किन परिस्थितियों में निर्दलीय उम्मीदवार की हैसियत से चुनाव लड़ा और वे क्यों बुरी तरह हार गए। इसी परिशिष्ट में उनका 1983 यानी अपने निधन से 21 वर्ष पहले मृत्यु पर लिखा दर्शन से परिपूर्ण एक लेख है। पांचवें और अंतिम परिशिष्ट में किशन जी की जीवनी है। अरविंद मोहन ने महज ग्यारह पन्नों में किशन जी के संपूर्ण जीवन-वृतांत को समेटने का कौशलपूर्ण प्रयास किया है।
कुल मिलाकर किशन जी को जानने और समझने के लिहाज से किताब उपयोगी है। यह और भी समृद्ध बन सकती थी, अगर इसमें किशन जी के सहयोगी रहे या उनके संपर्क में आए कुछ महत्वपूर्ण लोगों के संस्मरण या साक्षात्कारों का समावेश होता।