पुराने जमाने से यह सुनते आ रहे हैं कि संतोष ही सबसे बड़ा धन है। हम इस पर भरोसा करते रहे हैं। यह भी सुनते रहे हैं कि संतोषी सदा सुखी। असंतोष तभी पैदा होता है जब आदमी जो चाहता है वह उसे न मिले या जो उसके पास है वह उसे पसंद न हो। यह आम स्थिति है इसलिए यह बात तर्कपूर्ण लगती है कि सुखी रहने के लिए जो है उसमें संतोष करो। अपने जैसे लोगों के लिए यूं भी आर्थिक मोर्चे पर स्थायी नोटबंदी जैसी स्थिति रहती है इसलिए संतोष को ही परम धन मानना बेहतर है जिसमें नोटबंदी का खतरा नहीं है। अब तक तो यह स्थिति ठीक-ठीक चलती आई थी और मैं इन परंपरागत विचारों में संतोष करके मजे में चला रहा था लेकिन अब मुझे कुछ शक होने लगा है।
पिछले दिनों से मैं देख रहा हूं कि लोगों को असंतोष में संतोष मिल रहा है और वे असंतुष्ट होकर परम सुखी और कृतकृत्य महसूस कर रहे हैं। जैसे हिंदू लोगों को इस भ्रम में मजा आने लगा है कि भारत में वे अल्पसंख्यक हैं। वे अपनी स्थिति से असंतुष्ट हैं और बहुसंख्यक बनने की कोशिश कर रहे हैं। जाहिर है यह कभी नहीं हो सकता क्योंकि वे पहले से ही बहुसंख्यक हैं। यह वैसे ही है कि किसी घोड़े को यह भ्रम हो जाए कि वह खरगोश है और वह घोड़ा बनने की कोशिश करे।
इस स्थिति से फायदा यह है कि यह कोशिश कभी कामयाब नहीं हो सकती और असंतोष की स्थिति कायम रहती है जिससे परम सुख मिलता है। इसी क्रम में कुछ लोग यह मान असंतुष्ट हो जाते हैं कि इस देश में मुसलमान बड़ा अन्याय कर रहे हैं। इनसे पूछा जाए कि क्या इनसे किसी मुसलमान सब्जीवाले ने हिंदू होने की वजह से ज्यादा पैसे ले लिए या किसी हिंदू दुकानदार ने इन्हें हिंदू होने के नाते उड़द की दाल सस्ती दे दी। क्या दूधवाला ग्राहकों का धर्म देखकर दूध में पानी मिलाता है या डॉक्टर धर्म देखकर फीस तय करता है। अगर ऐसा नहीं है तो फिर इस शिकायत का मतलब क्या है?
दरअसल पिछले सालों में लोगों ने पाया है कि सबसे बड़ा सुख यह महसूस करने में है कि उनके साथ अन्याय हो रहा है। इसमें शर्त सिर्फ यह है कि अन्याय काल्पनिक होना चाहिए, सचमुच के अन्याय में असंतुष्ट होने का सुख नहीं मिलता। काल्पनिक अन्याय को खुजाने में लोग अपनी और दूसरों की उम्र गुजार सकते हैं और असंतुष्ट होने का संतोष आजीवन भोग सकते हैं।
जरूरी नहीं कि मामला धर्म का ही हो। देश, जाति, क्षेत्र, मोहल्ले, गली, हर चीज को लेकर असंतुष्ट हुआ जा सकता है। इस वक्त इस देश में किसी जाति या किसी प्रांत या किसी इलाके के लोग ऐसे नहीं हैं जिन्हें यह शिकायत न हो कि उनके साथ पक्षपात हो रहा है।
इस तरह हर नागरिक को असंतुष्ट होने की दो-तीन वजहें मिल जाती हैं, जिन्हें वह अदल-बदल कर इस्तेमाल कर सकता है। इससे एकरसता नहीं होती। इन्हीं वजहों से भारत के लोग चरम असंतुष्ट और परम सुखी हैं। कभी वे किसी फिल्म के खिलाफ आंदोलन चला देते हैं, कभी किसी किताब के पीछे पड़ जाते हैं। इसका दूसरा फायदा यह है कि सचमुच की समस्याएं उनके सामने सिर फोड़ कर थक जाती हैं लेकिन वे उनकी ओर देखते ही नहीं। जिसने असंतोष रूपी धन पा लिया, उसे जगदगति क्या व्यापेगी?