तो, क्या यह चुनावी वर्ष का बजट है? पैकेजिंग के लिहाज से तो बिलकुल। अरुण जेटली का बजट भाषण किसानों, एससी और एसटी जैसे हाशिए पर खड़े लोगों समेत करीब आधी जनसंख्या को सरकारी सहायता से स्वास्थ्य बीमा, ग्रामीण गरीब महिलाओं को मुफ्त गैस कनेक्शन देने, गृहविहीन लोगों को सरकारी आवास या वित्तीय सहायता देने जैसे शानदार वादों से भरा है। वित्त मंत्री के भाषण को सुन कर यह सोच उभरती है कि जिस तरह से सरकार ‘आम आदमी’ को लुभा कर उसका समर्थन पाने का प्रयास कर रही है उससे लगता है कि कहीं जल्द आम चुनाव की संभावना तो नहीं है।
लेकिन जब आप वास्तविक आवंटन को देखते हैं (यह वास्तविक खर्च से काफी अलग होता है, जो आमतौर पर काफी कम होता है) तो अलग ही तस्वीर उभरती है। बजट भाषण में जिन घोषणाओं को सबसे बड़ी और ‘लोकलुभावन’ बताया गया है या जिन्हें जनता के बीच लोकप्रिय समझा जा रहा है वह सरकारी सहायता से करीब आधी जनसंख्या को दिया जाने वाला स्वास्थ्य बीमा, किसानों को दी गई रियायतें, लघु और छोटे उद्यमियों के लिए विभिन्न उपाय और ग्रामीण आवास के लिए धन को बढ़ाना है।
पहले स्वास्थ्य बीमा स्कीम पर चर्चा करें। बजट भाषण में यह वादा है, “हम 10 करोड़ से अधिक गरीब और कमजोर परिवारों (लगभग 50 करोड़ लाभार्थी) को दायरे में लाने के लिए एक फ्लैगशिप राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण योजना प्रारंभ करेंगे जिसके तहत द्वितीयक और तृतीयक उपचार अस्पताल में भर्ती होने के लिए प्रति परिवार पांच लाख रुपये तक का कवरेज प्रदान किया जाएगा। यह विश्व का सबसे बड़ा सरकारी वित्त पोषित स्वास्थ्य सेवा कार्यक्रम होगा। इस कार्यक्रम के सुचारु कार्यान्वयन के लिए पर्याप्त धन राशि उपलब्ध कराई जाएगी।”
अगर यह सच हुआ, तो बिलाशक अद्भुत होगा। हालांकि इसका अर्थ यह होगा कि बीमा कंपनियों और निजी स्वास्थ्य प्रदाताओं को सरकार से सीधे पैसा मिलने के प्रत्यक्ष सार्वजनिक प्रावधान से एक दुर्भाग्यपूर्ण और समस्याग्रस्त समय खत्म हो जाएगा। लेकिन इसके सुचारु रूप से संचालन के लिए पर्याप्त धन कितना होगा? अभी चल रही राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना गरीब परिवारों को 30,000 रुपये वार्षिक का कवरेज देती है। अब यह विचार है कि बीमित राशि में छह गुना वृद्धि करके इसे 10 करोड़ लोगों से बढ़ाकर करीब 50 करोड़ लोगों तक पहुंचाया जाए। इसे सार्थक ढंग से शुरू करने के लिए कम से कम 60,000 करोड़ रुपये के अतिरिक्त बजटीय आवंटन की जरूरत होगी। ऐसे में जेटली ने इस महत्वपूर्ण योजना के लिए इस बजट में कितना धन अलग रखा है? पिछले साल के बजट की तुलना में मात्र 672 करोड़ रुपये की वृद्धि! क्या इसे इस योजना को आगे बढ़ाने के लिए प्रारंभिक धन समझा जाए? या सिर्फ मजाक?
अब किसानों के मद में किए गए आवंटन पर विचार करें। उन्हें फसल की लागत की तुलना में 50 फीसदी अधिक सरकारी मूल्य देने की बात कही गई है। अनुमानतः इस उद्देश्य के लिए पिछले साल के बजट में किए गए वादे से करीब 24,000 करोड़ रुपये ज्यादा आवंटित किए गए हैं। लेकिन जिस तरह खरीद के लिए सरकारी मूल्य में वृद्धि की घोषणा की गई है उसके अनुसार यह राशि निश्चित रूप से अपर्याप्त है, बशर्ते खरीद की सीमाएं तय की जाएं या फिर फसल की लागत को कम करके आंका जाए।
एक दलील यह है कि यह सरकार की योजना के अनुरूप ही है। लेकिन देश भर में किसानों की शिकायत है कि घोषित सरकारी मूल्य पैदावार की पूरी लागत को कवर नहीं करते हैं। इतना ही नहीं, यदि किसी मामले में सरकारी खरीद की प्रक्रिया सीमित और अपर्याप्त हो, तो किसानों को सरकार की खुली व्यापार नीति की वजह से अपनी फसल खुले बाजार में कम कीमत पर बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
इस बीच, पिछले साल की तुलना में इस साल कृषि मंत्रालय के बजट में केवल 11.5 फीसदी की बढ़ोतरी की गई है जो प्रस्तावित सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) दर लगभग 11 फीसदी से नाममात्र की अधिक है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि बजट पर तत्काल प्रतिक्रिया पूछे जाने पर ज्यादातर किसानों ने इसे निराशाजनक बताया।
कुटीर, लघु और मझोले उद्यमों के लिए किए गए उपाय वास्तविक बजटीय आवंटन की तरह लगने के बजाय जादूगर के ट्रिक की तरह ही लगते हैं। किसी भी मामले में, घोषित लाभों में से अधिकांश के बजट के अलावा मदों से आने की उम्मीद है जैसे बैंक कर्ज के लिए सरकार की राजकोषीय नीति श्रेय नहीं ले सकती क्योंकि इसके समर्थन या सब्सिडी के लिए आवंटन में वृद्धि का कोई सबूत नहीं है।
ये कुछ उदाहरण मात्र हैं जो वित्त मंत्रालय ही नहीं, पूरी सरकार के कामकाज और सोच का दर्शाते हैं। तो, क्या यह मान लेना चाहिए कि यह चुनावी वर्ष का बजट है? क्योंकि केवल तभी सरकार यह मानकर चल सकती है कि वह देश के अधिकांश लोगों को हर बार मूर्ख बनाना जारी रख सकती है।
(लेखिका डेवलपमेंट इकोनॉमिस्ट और जेएनयू, दिल्ली में प्रोफेसर हैं)