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बदलते बोल, बेमानी बहस

एक साथ चुनाव कराने की बहस क्या सियासी शिराजा बिखरने और आम चुनाव पहले कराने का संकेत
2019 पर नजरः भाजपा संसदीय दल की बैठक में मौजूद (बाएं से) नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह, नरेंद्र मोदी, अमित शाह और लालकृष्ण, आडवाणी

जब-जब सियासी शिराजे के सूत्र बिखरने लगते हैं, कुछ बहसें बार-बार उभर आती हैं। ऐसी ही एक बहस ‘एक देश एक च़ुनाव’ के चुटीले नारे के तहत पेश की जा रही है। मतलब लोकसभा और देश की सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर इसकी चर्चा करते रहते हैं। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने संसद के बजट सत्र के अपने पहले अभिभाषण में इस पर जोर देकर इसे गंभीरता प्रदान की है। उन्होंने बार-बार होने वाले चुनावों को विकास प्रक्रिया में बाधक बताया। लेकिन इसमें कई पेच हैं और इसके सियासी नतीजे भी पेचीदा हैं जिसके सूत्र कई सियासी घटानाक्रमों के बीच उलझे हुए हैं। इसके संवैधानिक पहलू भी आसान नहीं हैं। 

आइए पहले इस बहस के इतिहास को जाना जाए। आजाद भारत में 1952 के पहले आम चुनाव से लेकर 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही होते रहे हैं। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के 1970 में लोकसभा भंग कर मध्यावधि चुनाव कराने के फैसले और फिर आगे चलकर दलबदल और कुछ अन्य कारणों से भी राज्य सरकारों के गिरने और वहां राष्ट्रपति शासन लागू होते रहने के कारण लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग होने लगे। और अब तो तकरीबन हर साल और किसी-किसी साल तो दो-तीन बार किसी न किसी राज्य में चुनाव होते ही रहते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि एक बार चुनाव प्रक्रिया शुरू हो जाने और चुनाव आयोग की आचार संहिता लागू हो जाने के कारण संबंधित राज्य में कल्याण कार्यक्रमों और विकास परियोजनाओं पर एक तरह का विराम-सा लग जाता है। इस लिहाज से देखें तो प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति कोविंद की चिंता जायज है।

विपक्षी एकाः विपक्षी दलों को साथ लाने की कोशिश में लगी है कांग्रेस

तो, क्या प्रधानमंत्री मोदी वाकई लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के प्रति गंभीर हैं? यह सवाल इसलिए भी पूछा जा रहा है क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार इस दिशा में वाकई गंभीर होती तो फिर मेघालय, त्रिपुरा और नगालैंड में अभी फरवरी महीने में चुनाव क्यों कराए जाते? यह इतना आसान भी नहीं है। हालांकि इस समय केंद्र में और 19 राज्यों में भाजपा की या फिर इसके नेतृत्ववाले एनडीए की सरकारें हैं। लेकिन क्या उनकी अपनी भाजपा और एनडीए के सहयोगी दलों की सरकारें इसके लिए राजी होंगी? और फिर पंजाब, हिमाचल प्रदेश और गुजरात का क्या होगा, जहां कुछ ही महीनों पहले चुनाव हुए हैं? क्या वहां की राज्य सरकारें कार्यकाल पूरा होने के चार साल पहले ही चुनाव कराने पर राजी होंगी? पिछले दिनों इस मसले पर हुई संसदीय समिति की बैठक में सरकार को खास समर्थन नहीं मिला। तमाम दलों के प्रतिनिधियों ने इसे अव्यावहारिक करार दिया।

बिहार में एनडीए के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस मामले में प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति कोविंद के विचारों से सिद्धांततः सहमति जताने के बावजूद कहा है कि यह फिलहाल तो संभव नहीं है क्योंकि इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा और उसकी प्रक्रिया में काफी समय लगेगा। और फिर जो चुनाव आयोग हिमाचल प्रदेश के साथ गुजरात विधानसभा के चुनाव भी करा पाने में असमर्थ नजर आए, जिसमें राजस्थान के दो संसदीय उपचुनावों के साथ ही उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के इस्तीफे से रिक्त गोरखपुर और फूलपुर तथा बिहार में अररिया से राजद के सांसद मोहम्मद तस्लीमुद्दीन के निधन और महाराष्ट्र में सांसद नाना पटोले के इस्तीफे से रिक्त भंडारा गोंदिया लोकसभा सीटों के उपचुनाव भी करा पाने का सामर्थ्य न हो, उससे लोकसभा के आम चुनाव के साथ देश की सभी विधानसभाओं के चुनाव साथ करा सकने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। इस तरह की व्यावहारिक दिक्कतों का एहसास तो प्रधानमंत्री मोदी को भी होना चाहिए। फिर क्यों इस तरह की बातें वे गाहे-बगाहे करते रहते हैं?

लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए जाने की चर्चाओं के साथ इस बात के कयास भी न सिर्फ मीडिया बल्कि राजनीतिक और कुछ हद तक सत्ता के गलियारों में भी लग रहे हैं कि प्रधानमंत्री मोदी 2019 के मई महीने में लोकसभा और उसके साथ ही निर्धारित अरुणाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा और सिक्किम विधानसभाओं के चुनाव भी थोड़ा पहले खिसकाकर इस साल के अंत यानी अक्टूबर-नवंबर में संभावित मिजोरम, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ विधानसभाओं के चुनाव के साथ ही करा सकते हैं। सरकार और चुनाव आयोग चाहे तो इस साल अप्रैल-मई महीने में होनेवाले कर्नाटक विधानसभा के चुनाव भी छह महीने आगे बढ़ाकर इस साल के अंत में कराए जा सकते हैं। इस तरह से लोकसभा और नौ-दस राज्य विधानसभाओं के चुनाव तो एक साथ कराए ही जा सकते हैं।

इस तरह के कयासों पर जोर देने वाले लोगों का तर्क है कि 2019 तक भाजपा और एनडीए के लिए राजनीतिक स्थितियां और विकट हो सकती हैं। इससे बचने का एक तरीका इस साल के अंत में आम चुनाव भी हो सकता है। इस बीच अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण अभियान में तेजी और गोरक्षा, लव जेहाद तथा इस तरह के हिंदुत्व और राष्ट्रवाद से जुड़े कुछ और मुद्दों को लेकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ाने की प्रक्रिया तेज की जा सकती है। उत्तर प्रदेश के कासगंज में ‘तिरंगा यात्रा’ के नाम पर भगवा झंडों के साथ मुस्लिम बस्तियों में उत्तेजक नारे लगाने के बाद बढ़े सांप्रदायिक तनाव और दंगे को भी इसी रूप में देखा जा सकता है।

शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे

इसी के साथ उन्हें लगता है कि तीन तलाक पर रोक लगाने का कानून बनवाने के लिए पुरजोर प्रयास करने के कारण भाजपा से कटे रहने वाले अल्पसंख्यक मुसलमानों का एक तबका और खासतौर से मुस्लिम महिलाएं कुछ हद तक भाजपा और एनडीए की ओर आकर्षित हो सकती हैं। यह भी कहा जा रहा है कि जीडीपी में वृद्धि के सुनहरे संकेत, बजट प्रावधानों में कृषि और किसानों, गांव-गरीब, महिलाओं और बुजुर्गों पर विशेष फोकस रहने का फायदा भी भाजपा को मिल सकता है। और फिर उन्हें लगता है कि अभी भी राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री मोदी सर्वाधिक पसंद किए जाने वाले नेता हैं जिनसे इस देश को और खासतौर से युवाओं को अब भी बहुत उम्मीदें हैं। इस बात का ढिंढोरा भी जमकर पीटा जा रहा है। यह बात भी कही जा रही है कि फिलहाल बंटे-बिखरे और अंतर्विरोधों से ग्रस्त विपक्ष में मोदी का कोई दमदार विकल्प भी नहीं है। और अगर समय से पहले चुनाव कराए जाते हैं तो विपक्ष को एकजुट होने में तमाम तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।

लेकिन भाजपा और एनडीए में भी कुछ नेता गुमनामी की शर्त पर बताते हैं कि गुजरात विधानसभा के चुनावी नतीजों के अपेक्षानुकूल नहीं होने और राजस्थान के दो संसदीय और एक विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस की शानदार वापसी, पश्चिम बंगाल के उपचुनावों में ममता बनर्जी का जलवा पूर्ववत कायम रहने को भविष्य के राजनीतिक संकेत के रूप में समझना चाहिए। कल तक 'पप्पू' कहे जाते रहे कांग्रेस के नए अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी को देश के लोग और खासतौर से युवा सुनने और गंभीरता से लेने लगे हैं। आने वाले दिनों में नोटबंदी और जीएसटी के कुप्रभाव व्यापक और मुखर हो सकते हैं। चुनाव से पहले मोदी सरकार के आखिरी पूर्ण बजट से मध्यम वर्ग और खासतौर से पिछले आम चुनाव में मोदी और भाजपा तथा एनडीए के पक्ष में लामबंद हुए नौकरीपेशा तबकों, व्यवसायियों-व्यापारियों में बढ़ रही निराशा सत्तारूढ़ गठबंधन के लिए भारी पड़ सकती है। लेकिन भाजपा के रणनीतिकारों का मानना है कि ये तबके उसके परंपरागत समर्थक रहे हैं और कुछ दिनों बाद सब भूलकर फिर से ये लोग भाजपा के साथ हो जाएंगे। ऐसा ही उन्होंने नोटबंदी के बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में तथा काफी हद तक गुजरात में भी किया।

दरअसल, भाजपा और उसे संचालित करने वाले आरएसएस के नेतृत्व की चिंता इन सबसे अलग इस बात को लेकर बढ़ रही है कि 2014 के आम चुनाव में हिंदी पट्टी के राज्यों के साथ ही गुजरात, गोवा और महाराष्ट्र जैसे पश्चिमी भारत के राज्यों में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को जिस तरह का समर्थन मिला था (इन राज्यों में लोकसभा की अधिकतर 286 में से 259 और कुछ राज्यों में तो सभी सीटें भाजपा-एनडीए के खाते में ही गई थीं), उसकी पुनरावृत्ति 2019 में निर्धारित या उससे पहले 2018 के अंत में संभावित आम चुनाव में नामुमकिन सी लगती है। इसकी गवाही हाल में संपन्न गुजरात विधानसभा के चुनाव के साथ ही पंजाब, राजस्थान और पश्चिम बंगाल के संसदीय और विधानसभा उपचुनावों के नतीजे भी दे रहे हैं। इसके साथ ही महाराष्ट्र, बिहार और आंध्र प्रदेश में तेजी से बन-बिगड़ रहे राजनीतिक समीकरण भी भाजपा और संघ नेतृत्व की पेशानी पर बल ला रहे हैं। गुजरात में सब कुछ दांव पर लगाने के बावजूद भाजपा 99 सीटों का आंकड़ा पार नहीं कर सकी।

इसके साथ ही न सिर्फ भाजपानीत एनडीए बल्कि भाजपा के भीतर सरकार और भाजपा नेतृत्व के विरुद्ध नाराजगी और असंतोष के स्वर मुखर होने लगे हैं। एनडीए का अभी तक कोई संगठनात्मक ढांचा नहीं बन सका है। कभी भी महत्वपूर्ण राजनीतिक नियुक्तियों और फैसलों पर एनडीए के अन्य घटक दलों की राय नहीं ली जाती। महाराष्ट्र में सांसद राजू शेट्टी के नेतृत्व वाले स्वाभिमानी पक्ष के एनडीए से किनारा कर लेने के बाद भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी शिवसेना ने साफ कर दिया है कि अगला चुनाव वह अलग होकर लड़ेगी। रिपब्लिकन पार्टी (अठावले गुट) के नेता, केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले भी उपेक्षा से कसमसा रहे हैं। महाराष्ट्र में भंडारा-गोंदिया से भाजपा सांसद नाना पटोले पार्टी और लोकसभा से भी इस्तीफा दे चुके हैं।

आंध्र प्रदेश में सत्तारूढ़ तेलुगु देशम एनडीए से अलग होने का दबाव लगातार बनाए हुए है। उसकी नाराजगी आंध्र प्रदेश के साथ केंद्र के सौतेले व्यवहार और अमरावती में बन रही उसकी नई राजधानी के लिए केंद्र द्वारा पर्याप्त धन मुहैया नहीं कराने को लेकर तो है ही, पर्दे के पीछे भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के उनके कट्टर राजनीतिक विरोधी जगनमोहन रेड्डी की वायएसआर कांग्रेस के साथ गठबंधन की जुगत भिड़ाने के प्रयासों को लेकर भी तेदेपा बेचैन है।

विपक्षी नेताओं के साथ शरद पवार

बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जनता दल (यू) के साथ भाजपा के राजनीतिक ‘पुनर्विवाह’ के बाद वहां एनडीए के कुनबे में कलह बढ़ी है। तीन सांसदों की रालोसपा के नेता, केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा और हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के नेता, पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी नीतीश कुमार के सानिध्य में सहज नहीं महसूस कर पा रहे हैं। रालोसपा और हम के लालू प्रसाद और कांग्रेस के गठबंधन के साथ जुड़ने की अटकलें अभी से लगने लगी हैं। भाजपा के भीतर भी यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी, शत्रुघ्न सिन्हा, वरुण गांधी, कीर्ति आजाद जैसे नेता और सांसद एक अरसे से अपने आलाकमान के खिलाफ मुखर हैं। भाजपा सूत्रों के अनुसार आने वाले दिनों में इस तरह के कुछ और स्वर भी भाजपा आलाकमान की मुश्किलें बढ़ाने वालों के साथ जुड़ सकते हैं। इस तरह की मुश्किलों से भाजपा और संघ का नेतृत्व भी भली प्रकार वाकिफ है। इस लिहाज से इसके लिए तीन-चार महीने बाद होने वाला कर्नाटक विधानसभा का चुनाव बेहद महत्वपूर्ण और निर्णायक साबित हो सकता है। 

भाजपा सूत्रों के अनुसार उत्तर और पश्चिमी भारत में संभावित राजनीतिक नुकसान की भरपाई के लिए उसकी निगाहें पूर्वोत्तर और पूर्वी भारत के पश्चिम बंगाल तथा ओडिशा के साथ ही दक्षिण भारत के राज्यों पर टिकी हैं। लेकिन भाजपा के लिए उत्तर भारत और खासतौर से हिंदी पट्टी के राज्यों तथा पश्चिम भारत के महाराष्ट्र, गुजरात और गोवा में होने वाले संभावित राजनीतिक नुकसान की भरपाई पूर्व, उत्तरपूर्व और दक्षिण भारत के राज्यों में कर पाना आसान नहीं है। महाराष्ट्र में कांग्रेस और एनसीपी के फिर से एकजुट होकर चुनाव लड़ने के आसार, उत्तर प्रदेश में भी सपा, बसपा, कांग्रेस और लोकदल के बीच किसी तरह के राजनीतिक तालमेल की पर्दे के पीछे चल रही कोशिशें और बिहार के बदल रहे राजनीतिक समीकरण भी भाजपा नेतृत्व की परेशानी बढ़ा रहे हैं। और फिर भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार उत्तरपूर्व में लोकसभा की कुल 25 में से 9 सीटें अभी भी भाजपा और एनडीए के पास ही हैं। दक्षिण भारत की कुल 130 में से 37 सीटें भाजपा-राजग के पास हैं जबकि पश्चिम बंगाल और ओडिशा में कुल 63 में से केवल तीन सीटें ही भाजपा के पास हैं। इन राज्यों में पांव पसारने की कोशिशों में लगी भाजपा अभी तक इस हालत में नहीं आ सकी है कि वह अधिकतर सीटों पर कब्जा जमा सके। उसकी कोशिश इन राज्यों में बड़े पैमाने पर राजनीतिक जोड़-तोड़ की हो सकती है।

वायएसआर कांग्रेस के नेता जगनमोहन रेड्डी

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार समय से पहले चुनाव तो 2004 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी करवाया था। उनके सलाहकारों ने ‘शाइनिंग इंडिया’ के जलवे दिखाकर उन्हें समझाया था कि समय से पहले चुनाव करा लेने पर भाजपा और सहयोगी दलों को कामयाबी मिल सकती है, लेकिन जब नतीजे आए तो सबके होश उड़ गए थे। भाजपा-एनडीए दस वर्षों के लिए सत्ता से बाहर हो गए थे। उनके अनुसार प्रधानमंत्री मोदी अतीत के इस अनुभव से भी सबक ले सकते हैं।

 

ममता का जलवा कायम

पश्चिम बंगाल के उलबेरिया संसदीय एवं नोआपाड़ा विधानसभा क्षेत्र में हुए उपचुनावों के नतीजे साफ बता रहे हैं कि राज्य में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व और उनकी सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस का जलवा न सिर्फ कायम है बल्कि उनके जन समर्थन में लगातार वृद्घि हो रही है। दूसरी तरफ इसका कारण चाहे राज्य में बढ़ रहा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो अथवा कुछ और भाजपा मतदाताओं की दूसरी पसंद के रूप में तेजी से उभर रही है। उपचुनावों में वाम दल तीसरे और कांग्रेस नगण्य मत हासिल कर चौथे स्‍थान पर रही। कांग्रेस के लिए संकेत स्पष्ट है कि अपने बूते वह जीतना तो दूर, खड़ा भी हो पाने की स्थिति में नहीं है। उसे गठबंधन की राजनीति में जाना ही होगा। अगर वाम दल साथ नहीं आते हैं तो उसे ममता बनर्जी के साथ तालमेल करना ही होगा।

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