इधर, कुछ समय से देशभर में एक साथ चुनाव कराने का मुद्दा सुर्खियों में है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू, वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी इसके सबसे बड़े पैरोकार हैं।
पूरे देश में साथ-साथ चुनाव कराने के पक्ष में कई दलीलें हैं। एक, बार-बार चुनाव से सरकारों का सामान्य कामकाज प्रभावित होता है और लोगों के रोजमर्रा के कामकाज में भी फर्क आता है। इसकी वजह यह है कि जैसे ही चुनाव आचार संहिता लागू होती है सरकार कोई नई योजना की घोषणा नहीं कर सकती है और न ही वह अधिकारियों की नियुक्ति या तबादले कर सकती है। मंत्री चुनाव प्रचार में व्यस्त हो जाते हैं और अपने दफ्तरों में नहीं पहुंचते। जिला प्रशासन चुनाव के काम में व्यस्त हो जाता है और बाकी सब कुछ टाल दिया जाता है। फिलहाल हमारे देश में लोकसभा चुनाव के लिए 9.3 लाख मतदान केन्द्र हैं। चुनाव संपन्न कराने के लिए कम से कम 11 लाख लोगों की जरूरत होती है। बार-बार चुनाव का मतलब होता है कि बड़े पैमाने पर सरकारी अधिकारी अपने सामान्य दायित्व को निभाने के काबिल नहीं रह जाते।
दूसरे, चुनाव कराने और उसके प्रचार में पार्टियों और उम्मीदवारों की ओर से किया जाने वाला भारी खर्च है। तीसरे, चुनाव के वक्त सांप्रदायिकता, जातिवाद, भ्रष्टाचार, याराना पूंजीवाद जैसे मसले खुलकर उभर आते हैं। बार-बार चुनाव का अर्थ है कि इन बुराइयों से राहत की गुंजाइश कम होती जाती है।
दूसरी ओर, अलग-अलग चुनाव के अपने फायदे भी हैं। इनमें कुछेक इस प्रकार हैं,
-चुनाव खत्म होते ही नेता गायब हो जाने के लिए कुख्यात हैं। लगातार चुनाव से उनकी जवाबदेही बढ़ती है और यह भी तय हो जाता है कि वे अपने चेहरे बार-बार लोगों को दिखाएं।
-चुनाव के नतीजतन जमीनी स्तर पर रोजगार भी पैदा होते हैं। इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को प्रश्रय मिलता है।
-स्थानीय और राष्ट्रीय मुद्दों के बीच घालमेल नहीं रह जाता।
-चुनाव का वक्त पर्यावरण संबंधी फायदे भी लेकर आता है, क्योंकि उस वक्त निजी और सार्वजनिक संपत्तियों के दुरुपयोग, वायु और शोर प्रदूषण पर अंकुश तथा प्लास्टिक के इस्तेमाल पर प्रतिबंध जैसे कानूनों का कड़ाई से पालन हो पाता है।
-अपराध दर में भी भारी गिरावट आती है क्योंकि चुनाव आयोग अवैध हथियारों की जब्ती की मुहिम चलाता है, लाइसेंसी हथियारों को भी जमा करवा लेता है और फरार अपराधियों के खिलाफ गैर जमानती वारंटों पर अमल करवाता है।
हालांकि चुनाव आयोग के लिए साथ-साथ चुनाव कराना सबसे सुविधाजनक है, क्योंकि मतदाता, मतदान केंद्र, चुनाव कर्मचारी और सुरक्षा का तामझाम भी एक ही होता है। कोई मतदाता चाहे एक चुनाव के लिए वोट दे या उसी समय एक से अधिक चुनाव के लिए मतदान करे कोई फर्क नहीं पड़ता। इसमें सिर्फ अतिरिक्त खर्च ईवीएम की संख्या दोहरी या तिहरी करने की हो सकती है।
इसके दूसरे तरफ की दलीलें कितनी तगड़ी या कमजोर हो सकती हैं, यह कानूनी और संवैधानिक स्थितियों पर निर्भर है। अगर चुनाव एक साथ होते हैं तो हर राज्य और हर विधानसभा की एक खास राजनैतिक स्थिति दिखेगी। गठबंधनों के इस दौर में अगर कोई साथी दल गठजोड़ को अल्पमत में छोड़कर चला जाता है तो उस हालात में क्या होगा? या जैसा कि 1998 में हुआ, अगर लोकसभा समय से पहले भंग हो जाए तो क्या होगा? ऐसी स्थिति में क्या हम सभी राज्य विधानसभाओं को भंग करेंगे? इसलिए यह विचार लोकतंत्र की भावना के खिलाफ लगता है, क्योंकि इससे जनादेश का अनादर होता है।
प्रधानमंत्री ने इस पर राष्ट्रीय बहस का आह्वान किया है। उन्होंने चुनाव आयोग से भी कहा है कि वह सभी पार्टियों के बीच सहमति बनाने की कोशिश करे। आदर्श स्थिति तो यह होती कि वे खुद अपने स्तर पर ऐसी बैठक बुलाते। लेकिन, जब तक सर्वानुमति नहीं बन जाती तब तक अधिक व्यावहारिक विकल्पों पर ही गौर करने की जरूरत है। इससे बड़ा मुद्दा तो यह है कि चुनाव के समय राजनैतिक पार्टियों के बेहिसाब खर्च पर अंकुश लगाया जाए। पार्टियों के खर्च की सीमाएं तय हों और कॉरपोरेट फंडिंग पर प्रतिबंध लगे। पार्टियों की सार्वजनिक चंदे की पारदर्शी व्यवस्था की भी बेहद जरूरत है।
(लेखक पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त हैं और उनकी चर्चित किताब ‘एन अनडॉक्यूमेंटेड वंडर-द मेकिंग ऑफ द ग्रेट इंडियन इलेक्शन’ है जिसका हिंदी संस्करण भी हाल ही में आया है)