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साथ चुनाव संविधान के विरुद्ध

एक देश एक चुनाव के पैरोकारों को सोचना चाहिए कि जब सरकार बहुमत खो देगी तब क्या होगा
सांकेतिक तस्वीर

एक देश एक चुनाव, एक देश एक पहचान, एक देश एक सोच, ये सब ख्यालात हमारी सभ्यता और संविधान से जुड़े नहीं हैं। हिंदुस्तान का इतिहास हमें बताता है कि इस धरती पर कई धर्म पैदा हुए और विभिन्न धर्मों, विभिन्न नस्लों, विभिन्न ख्यालात के लोग यहां साथ-साथ रहते आए हैं। सिख, ईसाई, मुसलमान और बौद्ध सभी ने यह धरती अपनाई और इसको अपना ही अंग समझा। इसलिए सभी इस धरती से जुड़े हुए अपने विचार नहीं रखेंगे, तो लोकतंत्र को खतरा है।

इसी वजह से यह भी सही नहीं है कि प्रदेशों और केंद्र के चुनाव एक ही बार में साथ-साथ हों। यह हमारे संविधान के खिलाफ है। संसदीय व्यवस्था में जब सरकार बहुमत गंवा देती है और बहुमत की सरकार नहीं चल सकती तो निश्चित रूप से उस विधानसभा या लोकसभा को भंग करना पड़ेगा और नए चुनाव होंगे। सरकार बिना बहुमत के कोई फैसला नहीं ले सकती। इसलिए जिस सरकार ने बहुमत खो दिया हो, उसे सरकार चलाने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है।

जो लोग प्रदेश और केंद्र के चुनाव एक ही बार में कराना चाहते हैं, उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि अगर किसी प्रदेश या केंद्र में सरकार बहुमत खो देती है तब क्या होगा। अगर आपने संविधान संशोधन करके यह व्यवस्था कर दी कि जब तक कोई बहुमत का विकल्प नहीं उभरता, तब तक अल्पमत की सरकार चलती रहेगी तो वह लोकतंत्र पर खरा कैसे उतरेगी। अलबत्ता इस संविधान के तहत तो ऐसा संभव नहीं है। इसे बदलना पड़ेगा और इसमें संशोधन के लिए दो-तिहाई बहुमत की जरूरत है और मुझे नहीं लगता कि किसी भी दल को या किसी भी सरकार को दो-तिहाई बहुमत मिलेगा, जिससे वह संविधान में बदलाव ला सके।

राज्यों में चुनाव के बाद बहुमत वाले दल का नेता मुख्यमंत्री बनता है। अगर वह बहुमत खो देता है तो दो ही विकल्प हैं। एक किसी और दल या नेता के पक्ष में बहुमत हो जाए तो उसकी सरकार बने या विधानसभा भंग करके दोबारा चुनाव कराया जाए। लेकिन आम तौर पर ऐसी स्थिति में विकल्प खड़ा करना आसान काम नहीं होता है क्योंकि संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत अगर किसी दल के लोग अपना दल छोड़कर किसी और दल में शामिल हो जाएं तो वे सदन की सदस्यता खो सकते हैं। जब तक इस संविधान में यह व्यवस्था रहेगी तब तक एक दल के लोग दूसरे दल में शामिल नहीं हो सकते। मतलब यह कि किसी दल के दो-तिहाई विधायक जब तक पार्टी तोड़कर दूसरी पार्टी में जाने का फैसला नहीं करते, वह दलबदल वैधानिक नहीं होगा। मेरी राय में खासकर दो सौ के आसपास वाली विधानसभा वाले बड़े राज्यों में यह संभव नहीं हो पाता। छोटी संख्या वाली विधानसभाओं वाले छोटे राज्यों में हमने देखा है कि भाजपा साजिश करके विधायकों को अपने पाले में कर चुकी है। यह गोवा में भी दिखा और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में भी।

विधानसभा भंग न करनी पड़े इसलिए किसी विकल्प के अभाव में अल्पमत सरकार को चलाए रखने से अस्थिरता को ही न्योता देना होगा। इससे राजकाज में जो मजबूती चाहिए, वह नहीं आ पाएगी। फैसले करना मुश्किल होगा। फिर बिना बहुमत के फैसलों का पालन करवाना मुश्किल होगा। इससे देश और जनता का भारी नुकसान होगा। इस अस्थिरता की स्थिति से विकास जिस रफ्तार से होना चाहिए, वह नहीं हो सकेगा। लिहाजा, यह बहुत ही गंभीर मुद्दा है और इस गंभीर मुद्दे पर बिना इसके नतीजों को समझे, भाषणबाजी करके जनता को गुमराह नहीं करना चाहिए।

इस सरकार ने कई मामलों में बिना सोचे-समझे कदम बढ़ाए हैं और उसका नतीजा सबके सामने है। सरकार ने नोटबंदी के फैसले से छोटे तबके के व्यापारियों को इतना नुकसान पहुंचाया कि आज तक वे कराह रहे हैं। गरीब का तो रोजगार छिन गया, उसे रोजी-रोटी और परिवार चलाने तक के लाले पड़ गए। जो अमीर था उसने तो अपना काला धन बदल लिया और मजे में रहा। ऐसा ही फैसला जीएसटी का भी है। उसमें कितने बदलाव करने पड़े। आज वित्त मंत्री वही करने जा रहे हैं जो कांग्रेस कहती रही है। बिना सोचे-समझे इन फैसलों से जीडीपी में दो फीसदी गिरावट आई। करीब तीन लाख करोड़ रुपये का देश को नुकसान हुआ।

इसलिए यह विचार तो देखने में सुंदर लगता है कि पूरे देश में एक साथ चुनाव कराए जाएं, लेकिन इसके नतीजे तो जरा सोचिए! इसमें दो राय नहीं कि सरकारें चलाना मुश्किल हो जाएगा, इसकी वजह से राजनीति में भ्रष्टाचार बढ़ेगा, विधायकों की खरीद-फरोख्त होने लगेगी। इन बातों पर बिना सोचे-समझे ऐसे फैसले करना असंवैधानिक ही नहीं, बल्कि लोकतंत्र के लिए घातक है।

ऐसे फैसले कोई एक राजनैतिक तबका नहीं ले सकता। जब तक सभी पार्टियां और राजनैतिक सोच वाले लोगों के बीच सहमति नहीं बन जाती, तब तक इसके बारे में सोचना भी नहीं चाहिए। आज लोगों को यह एहसास हो गया है कि राजकाज भाषणबाजी और जुमलों से नहीं चलता।

(लेखक वरिष्ठ संविधानविद और कांग्रेस नेता हैं)

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