तीस जनवरी आई और चली गई लेकिन अपने पीछे यह गंभीर सवाल छोड़ गई कि आने वाले वर्षों में भारत किस राह पर चलेगा-मोहनदास करमचंद गांधी की राह पर या नाथूराम विनायक गोडसे की राह पर?
इसके पहले 26 जनवरी को देश ने गणतंत्र दिवस मनाया लेकिन उत्तर प्रदेश के कासगंज में उसी दिन सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी। इसके साथ ही पिछले कई दशकों से भारतीय गणतंत्र के स्वरूप और धर्मनिरपेक्षता पर चली आ रही बहस एक बार फिर सार्वजनिक विमर्श के केंद्र में आ गई। यही नहीं, एक बार फिर इस सच्चाई को रेखांकित करने की जरूरत शिद्दत के साथ महसूस की जाने लगी कि यदि भारत को अपनी एकता-अखंडता को बचाए रखना है, तो उसमें रहने वाले सभी समुदायों को पूरी निष्ठा के साथ धर्मनिरपेक्षता का पालन करना होगा। कोई भी देश, जिसमें केवल एक अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय के लगभग बीस करोड़ लोग रहते हों और जिसमें अनेक भाषाएं, खान-पान की अनेक संस्कृतियां और अनेक धार्मिक परंपराएं अपने जीवंत रूप में सक्रिय हों, वह केवल बहुसंख्यक समुदाय के वर्चस्व के आधार पर नहीं चल सकता। यदि इस वर्चस्व को बलपूर्वक थोपने की राज्य-समर्थित कोशिश की गई, तो फिर देश और उसके समाज के जटिल ताने-बाने को बिखरने से कोई नहीं रोक सकता। स्पष्ट रूप से ऐसी कोशिश को राष्ट्रवादी नहीं कहा जा सकता।
लेकिन हिंदुत्व, जिसे हिंदू राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम से भी जाना जाता है, यही कोशिश करने पर आमादा है और इसके लिए लगातार नए-नए बहाने खोजता रहता है। यह कोशिश तब तक पूरी तरह सफल नहीं हो सकती जब तक गांधी की धर्मनिरपेक्ष विरासत पर लगातार हमले करके उसे नष्ट न कर दिया जाए। दिलचस्प बात यह है कि एक ओर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गांधी को “प्रातःस्मरणीय” महापुरुषों की श्रेणी में जगह देता है और दूसरी ओर उससे जुड़े व्यक्ति अक्सर उन पर उंगलियां उठाते रहते हैं। संघ की शाखा से निकले कल्याण सिंह, जो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे और अब राजस्थान के राज्यपाल हैं, सवाल उठा चुके हैं कि गांधी तो भारत राष्ट्र के पुत्र थे, फिर उन्हें 'राष्ट्रपिता' कैसे कहा जा सकता है? जब उन्हें पता चला कि गांधी को सबसे पहले नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 'राष्ट्रपिता' कहा था, तो वे निरुत्तर हो गए।
एक और दिलचस्प बात यह है कि एक ओर गांधी-नेहरू की विरासत पर लगातार हमले किए जा रहे हैं तो दूसरी ओर गांधी के पट्टशिष्य सरदार वल्लभभाई पटेल को बड़े जोर-शोर के साथ अपनाया जा रहा है, मानो वे संघ के नेता रहे हों। हकीकत यह है कि 30 जनवरी, 1948 के दिन गांधी की हत्या होने के बाद तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री और गृह मंत्री सरदार पटेल ने ही चार फरवरी, 1948 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाया था और हजारों संघ कार्यकर्ताओं और नेताओं को जेल की सलाखों के पीछे भेजा था। 11 सितंबर, 1948 को संघ के सर्वोच्च नेता सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर को लिखे पत्र में सरदार पटेल ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि हिंदुओं को संगठित करना एक बात है और उनके साथ हुई किसी ज्यादती का बदला लेने के लिए निर्दोष और असहाय स्त्री-पुरुषों और बच्चों पर हमले करना बिलकुल दूसरी बात। संघ के सभी नेताओं के भाषण सांप्रदायिक जहर से भरे हुए थे और इस प्रकार का जहर फैलाना हिंदुओं को संगठित करने के लिए कतई जरूरी नहीं है। पटेल ने इस पत्र में गोलवलकर को यह भी याद दिलाया था कि संघ के कार्यकर्ताओं ने गांधी जी की हत्या की खबर पाकर मिठाई बांटी थी और खुशियां मनाई थी। इन परिस्थितियों में सरकार के सामने संघ के खिलाफ कार्रवाई करने के सिवा और कोई विकल्प नहीं था। पटेल ने यह भी लिखा कि सरकार को यह उम्मीद थी कि कुछ समय बीत जाने के बाद इन गतिविधियों में कमी आएगी लेकिन वे इस बीच और अधिक उग्र हो गई है।
सरदार पटेल की यह उम्मीद आज तक पूरी नहीं हुई और संघ तथा हिंदुत्व की विचारधारा से प्रभावित अन्य संगठनों की सांप्रदायिक गतिविधियां आज भी जारी हैं। हिंदुओं को मुसलमानों के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है। रोज नए-नए बहाने तलाशे जा रहे हैं। हल्दीघाटी के मैदान में राणा प्रताप को अकबर पर विजयी दिखाया जा रहा है, सड़क से औरंगजेब का नाम हटाया जा रहा है, अन्य नवाबों और महाराजाओं के विपरीत अंग्रेजों से अंतिम सांस तक लड़ने वाले टीपू सुलतान के खिलाफ सांप्रदायिक दृष्टि से अभियान चलाया जा रहा है।
बिना देखे एक साल तक संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावती (जिसका नाम सेंसर बोर्ड ने बदल कर पद्मावत कर दिया) के नाम पर पूरे उत्तर भारत में हिंसक आंदोलन चलता रहा और अलाउद्दीन खिलजी के बहाने मुस्लिम समुदाय के खिलाफ माहौल बनाया गया। गणतंत्र दिवस पर तिरंगा यात्रा के नाम पर भगवा झंडे लेकर जुलूस को मुस्लिम-बहुल इलाके में ले जाकर सांप्रदायिक तनाव पैदा किया गया जबकि वहां मुस्लिम समुदाय के लोग राष्ट्रध्वज फहराकर गणतंत्र दिवस का उत्सव मना रहे थे। संघ से जुड़े बुद्धिजीवी घोषित रूप से संविधान परिवर्तन की आवश्यकता को रेखांकित कर रहे हैं और कुछ तो नए संविधान की रूपरेखा तैयार करने के काम में भी लगे हैं।
जब नेपाल ने हिंदू राष्ट्र बने रहने के बजाय धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनना अपने भविष्य के लिए बेहतर समझा, तब क्या भारत को अपनी अखंडता अक्षुण्ण रखने के लिए धर्मनिरपेक्ष नहीं बने रहना चाहिए?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)