जिस दिन एक राष्ट्रीयकृत बैंक को खरबों की चपत लगने की खबर आई, उस दिन देश के सबसे तेज चैनल पर बहस का मुद्दा एक क्यूट लड़की और लड़के का वीडियो और उस पर जारी फर्जी ‘फतवा’ था। बात किसी खास कार्यक्रम की नहीं, किसी खास चैनल की भी नहीं। इसे हम टीवी मीडिया के बड़े हिस्से के रूपक के तौर पर लें। वह मीडिया जो इस समय के भारतीय मध्यवर्ग की समझ को बना भी रहा है, दिखा भी रहा है।
इस समय के भारतीय मध्यवर्ग को वास्तव में मीडियामय मध्यवर्ग कहा जा सकता है। इन दिनों बड़े-बड़े नेता ही नहीं, आंदोलन भी टीवी की मेहरबानी से जन्म लेते हैं और काल-कवलित भी हो जाते हैं। किसी की हंसी, किसी का रोना देश की सबसे विचारोत्तेजक समस्याओं में शुमार हो जाते हैं। ऐसा लगता है कि अपने देश में अब न पीने के पानी का संकट है, न किसानों की जीवनदशा का। उचित रोजगार का न होना, भ्रष्टाचार का घटने के बजाय बढ़ते जाना तो मीडियामय मध्यवर्ग की अपनी वास्तविक चिंताएं कही जा सकती हैं। आखिर इन्हीं सवालों पर मध्यवर्ग में पिछली सरकार के विरुद्ध माहौल बना था। ये समस्याएं भी अब मीडिया से गायब हैं और मध्यवर्ग मस्त है।
मस्त है या भारतीय मध्य वर्ग इस वक्त पस्त है?
केवल आय के आधार पर, विश्व अर्थव्यवस्था के संदर्भ में भारतीय मध्यवर्ग के आकार को लेकर आम राय बनाना कठिन है। औसत भारतीय अध्यापक या वकील की कमाई की तुलना पश्चिमी देशों में इन्हीं पेशों से होने वाली कमाई से नहीं की जा सकती। ऐसी तुलना के आधार पर तो भारतीय मध्यवर्ग का आकार तीन करोड़ के आस-पास ही मानना होगा। लेकिन, भारत में व्याप्त विकराल गरीबी और भीषण अमीरी को ध्यान में रखें तो भारतीय मध्यवर्ग का आकार 25 करोड़ तो माना ही जा सकता है। इसके विस्तार की उम्मीद भी की जा सकती है।
संख्या चाहे जितनी हो, किसी भी विचारधारा और सामाजिक राजनैतिक आंदोलन को आरंभ करने वाले, उसे नेतृत्व देने वाले लोग मध्यवर्ग से ही होते हैं। मध्यवर्गीय पेशों के लिए दी जाने वाली शिक्षा में भाषा की समझ, समाज के वर्तमान और इतिहास के बारे में जानकारी शामिल होती ही है। इसलिए सोच का विस्तार भी होता है। समाज के बारे में सोचने के समय और साधन की सुभीता भी होती है। इसीलिए समाज के लिए निर्णायक, अच्छे-बुरे फैसलों में मध्यवर्ग की भूमिका केंद्रीय होती है।
भारतीय मध्यवर्ग के विकास के तीन ऐतिहासिक चरण पहचाने जा सकते हैं। अंग्रेजी राज के दौरान, स्वाधीनता के बाद और सन इक्यानबे में शुरू हुए उदारीकरण, खगोलीकरण के बाद। इन सभी चरणों के विस्तार में जाने की जगह यह नहीं, लेकिन इन्हें ध्यान में रखना जरूरी है। राजीव गांधी के शासनकाल के साथ वह ऐतिहासिक दौर शुरू होता है, जो आज के मध्यवर्ग की पृष्ठभूमि में है। उन दिनों शुरू हुई संचार क्रांति ने देश में मूलगामी बदलाव पैदा कर दिए हैं। इसी दौर में भारत एक उभरती हुई आर्थिक शक्ति की पहचान भी हासिल कर रहा था। सन इक्यानबे के बाद, नरसिंह राव और मनमोहन सिंह द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण और खगोलीकरण की जोरदार शुरुआत हुई। इन प्रक्रियाओं से भारतीय मध्यवर्ग के विकास का जो चरण शुरू हुआ, हम इस वक्त उसी के नतीजों से गुजर रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का विस्तार इस वर्ग के विस्तार के साथ ही जुड़ा हुआ है। मध्यवर्ग और टीवी के प्रभाव का विस्तार परस्पर जुड़ी हुई चीजें हैं।
यहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि जिन दिनों भारत और चीन में आर्थिक ‘सुधार’ लागू किए जा रहे थे, उन्हीं दिनों हेनरी किसिंगर ने अमेरिकी कंपनियों का ध्यान इस ओर खींचा कि उनके व्यापार का भविष्य चीन और भारत में विकसित हो रहे मध्यवर्ग में है। उसके पास खर्च करने के लिए पैसा भी होगा, बेहतर से बेहतर उपभोक्ता वस्तुएं जल्दी से जल्दी हासिल करने की हड़बड़ी भी।
उपभोक्ता मानसिकता का सबसे ऊपर होना खगोलीकरण और उदारीकरण के कारण जन्मे मध्यवर्ग की केंद्रीय विशेषता है। यही केंद्रीयता इसे स्वाधीनता आंदोलन के दौरान और स्वाधीनता के बाद विकसित हुए मध्यवर्ग से अलग करती है।
अपना सुख मनुष्य हमेशा ही खोजता है, उस समय का मध्यवर्ग भी खोजता था। लेकिन, उसकी आकांक्षाओं में नागरिक संवेदनशीलता भी थी। अंग्रेजी राज के दौरान विकसित हुए मध्यवर्ग से शासकों की उम्मीदें जो भी रही हों, लेकिन उसके एक हिस्से ने सांस्कृतिक नवजागरण और राजनैतिक स्वाधीनता आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया। स्वाधीनता के बाद तो, मध्यवर्ग में प्रभावी विचार ही कल्याणकारी राज्य की स्थापना का था। उस समय की आर्थिक नीतियों का लक्ष्य केवल आर्थिक ‘विकास’ नहीं, बल्कि नागरिकता का समग्र विकास था। इसीलिए सरकार की भूमिका केवल आर्थिक प्रक्रियाएं संभव करवा देने वाले एजेंट की नहीं, बल्कि स्वास्थ्य, शिक्षा आदि के क्षेत्र में प्रमुख रूप से काम करने की मानी जाती थी। यह आकलन किया ही जाना चाहिए कि कल्याणकारी राज्य के लक्ष्य कितने हासिल हुए, कितने नहीं। यह भी विचार करना जरूरी है कि कल्याणकारी राज्य के नाम पर राजसत्ता की ताकत अंधाधुंध बढ़ती न चली जाए। लेकिन भारत जैसे विविधतापूर्ण, विकासशील देश में कल्याणकारी राज्य की धारणा को तिलांजलि नहीं दी जा सकती। हमारे जैसे समाज में, राज्यसत्ता केवल बिचौलिए की भूमिका तो नहीं ही निभा सकती। विकास का अर्थ केवल कुछ लोगों की आर्थिक संपन्नता तक तो सीमित नहीं ही किया जा सकता।
खगोलीकरण, उदारीकरण के साथ निजीकरण तो आना ही था, जरूरी था। लेकिन किन क्षेत्रों में? किस हद तक? किस उद्देश्य से? इन सवालों के जवाब में ही वर्तमान भारतीय मध्यवर्ग की विडंबनाएं छुपी हुई हैं। रोजगार के लिए, सामाजिक गतिशीलता के लिए शिक्षा की जरूरत होती है, शिक्षा के ही जरिए समाज अपने सदस्यों में जैसी चाहता है वैसी नागरिकता और संवेदनशीलता का विकास करता है। खगोलीकरण के बाद की शिक्षा नीति में भाषा की संवेदना, इतिहास का वास्तविक बोध, सामाजिक समस्याओं के प्रति चेतना जैसी चीजें लगभग गायब हैं। सोच कुछ ऐसी बनाई गई है कि ये बातें केवल विशेषज्ञों के मतलब की हैं, आम लोग इन पर क्यों वक्त बर्बाद करें? निजी संस्थानों में ही नहीं, सरकारी विश्वविद्यालयों में भी नागरिकता बोध संपन्न करने वाले विषयों और शिक्षण पद्धतियों को बाहर धकेला जा रहा है। स्किल डेवलपमेंट, कोचिंग और शिक्षा के बीच का फर्क जान-बूझ कर मिटाया जा रहा है। निजीकरण, खगोलीकरण और उदारीकरण के इस दौर में विकास की धारणा में से नागरिक संवेदना और न्याय का विकास गायब हो गया है। अब अपना समाज युवा नागरिकों को संवेदनशील शिक्षा देने की नहीं ‘मानव संसाधन’ का ‘विकास’ करने की परवाह करता है।
इस प्रक्रिया का ही एक पहलू समाज का मीडियाकरण है, जिसने सूचना और समाचार को विजुअल सनसनी में बदल दिया है। विश्लेषण की जगह चीख-पुकार ने ले ली है; अफवाह और अंधविश्वास ने ‘ब्रेकिंग न्यूज’ की। तरह-तरह के कौशल संपन्न लोगों (इंजीनियर, सॉफ्टवेयर विशेषज्ञ, डॉक्टर और न जाने कौन कौन) से भरे महान भारतीय मध्यवर्ग को हवाई बातों से बहलाना, महानायक का अभिनय कर रहे लोगों को भक्त बना देना, जिस-तिस को गांधी जी जैसा मान लेने के लिए तैयार करना- यह सब जितना आसान सूचना-विस्फोट के इस जमाने में हो गया है, वह अकल्पनीय सा लगता है। इस ‘शिक्षित’ मध्यवर्ग की संस्कृति, संवेदना और समाज के बारे में वास्तविक ‘शिक्षा’ का अंदाजा किसी भी वाट्सऐप यूनिवर्सिटी की सैर करके लगाया जा सकता है।
किसी समाज में लोकतांत्रिक संस्थाओं और परंपराओं का महत्व उस समाज के मध्यवर्ग के स्वभाव पर दूर तक निर्भर करता है। यह देखना बहुत रोचक है कि भारतीय मध्यवर्ग में नायक-पूजा का भाव दिनोदिन बढ़ता गया है। पिछले लोकसभा चुनाव में भी मीडिया के सक्रिय सहयोग से एक ऐसे महानायक के अवतरण की कथा गढ़ी गई थी जिनके अवतरण के बाद सारी समस्याएं हल हो जाने वाली थीं। कहा जाता है कि जिन दो-चार देशों में हिटलर की आत्मकथा बेस्टसेलर है, उनमें से एक अपना देश भी है। ‘विकास’ की होड़ में चीन से पिछड़ जाने का डर इतना है कि मध्यवर्ग के मुखर और ऊपर की ओर लपकने को उत्सुक हिस्से चीन की ही तरह का लोकतंत्रविहीन निजाम भारत में भी देखना चाहते हैं। विडंबना यह है कि ये सब कामनाएं अगर व्यक्त हो पाती हैं, सरकारें किसी न किसी हद तक अगर जवाबदेह बनी रहती हैं, तो उन्हीं संस्थाओं, प्रक्रियाओं और परंपराओं के कारण, जिनसे मीडियामय मध्यवर्ग के मुखर महानुभाव असुविधा महसूस करते हैं। अभिव्यक्ति की स्वाधीनता की जगह कम जरूर हुई है, खत्म अगर अभी भी नहीं हुई है-तो उन्हीं संस्थाओं और परंपराओं के कारण जो खगोलीकरण के बाद पैदा हुए मध्यवर्ग ने नहीं, बल्कि इसके ऐतिहासिक पुरखों ने रची थीं, संवारी थीं।
निजीकरण से जन्मे, मीडियामय जगत में पले-बढ़े समकालीन भारतीय मध्यवर्ग को तो चाहिए बस ‘विकास’। न्याय और नागरिक मूल्यों की परवाह किए बिना अंधाधुंध होने वाला विकास। राजनैतिक दल मानने लगे हैं कि इस तरह का संदर्भहीन ‘विकास’ ही सत्ता तक पहुंचाने वाला मंतर है। ‘भ्रष्टाचार’ इसीलिए मुद्दा है क्योंकि इसके कारण ‘विकास’ में बाधा पड़ती है। पिछले लोकसभा चुनाव में इन्हीं दो मुद्दों का इस्तेमाल करके और 'अच्छे दिनों' का वादा करके सत्ता परिवर्तन कराया गया था। लेकिन यकीनन मध्यवर्ग के लिए अच्छे दिनों का मतलब कुछ और था, और जो उस तथाकथित जनांदोलन के सहारे सत्ता तक पहुंचे, उनके लिए कुछ और। मध्यवर्ग विकास की राह में पलक पांवड़े बिछाए बैठा है, सत्ताधारी नेहरू से हिसाब चुकता कर रहे हैं। मध्यवर्ग लोकपाल की राह देख रहा है, सत्ताधारी उसका नाम-पता तक भूल गए हैं। यह सब दुखद कितना भी हो, आश्चर्यजनक कतई नहीं है। दरअसल सामाजिक-आर्थिक संरचना में न्यायपरक बदलावों के बिना और नागरिक संवेदना के निरंतर विस्तार के बिना विकास की बात करना व्यर्थ है, यह बात शर्तिया तौर पर आज के मध्यवर्ग को समझनी ही होगी।
समस्या यही है कि वर्तमान मध्यवर्ग की मानसिक बुनावट में यह बात पहुंचना मुश्किल है। जरूरत राजनैतिक नेतृत्व से पहले ऐसे बौद्धिक हस्तक्षेप और नेतृत्व की है, जो इस बात को फिर से सोच-विचार के केंद्र में लाए कि सामाजिक-आर्थिक विषमता की समाप्ति, समाज में लोकतांत्रिक संस्कार का विस्तार किसी राजनैतिक पार्टी का एजेंडा नहीं, भारतीय लोकतंत्र के अस्तित्व की अनिवार्य शर्त है। वरना लोकतंत्र बहुत तेजी से कोरी औपचारिकता में बदलेगा, और जिन सुविधाओं, स्वाधीनताओं को मध्यवर्ग अपना सहज अधिकार मानता है, वे गायब हो जाएंगी। दुनिया में टेक्नोलॉजी का विकास केवल मध्यवर्ग का, या किसी भी नागरिक का जीवन सुखमय बनाने के लिए ही नहीं, सरकारों को, बड़ी-बड़ी कंपनियों को अभूतपूर्व ताकत देने के लिए भी हुआ है। यह भी एक कारण है कि ‘विकास’ का झुनझुना दिखा कर लोकतांत्रिक चेतना और मानवीय संवेदना को सायास हाशिए पर धकेला जा रहा है।
विकसित देशों में खतरा उतना नहीं, जितना हमारे सरीखे देशों में है। जिन कंपनियों को हेनरी किसिंगर चीन और भारत पर ध्यान देने की सलाह दे रहे थे, उनके हित में तो यही है कि समाज में क्रय-शक्ति और उपभोग की लालसा बढ़ती जाए। साथ ही लोकतांत्रिक चेतना घटती जाए। हम मल्टीनेशनल कंपनियों को ‘विकास’ का इंजन मान लें, और बाजिव दाम मांगने वाले किसानों को, बाजिव मजूरी मांगने वाले मजदूरों को विकास का दुश्मन यानी ‘ऐंटी-नेशनल’।
अपना आप टटोल कर देखें तो भारतीय मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा ऐन यही मानता भी है। यह समझना होगा कि परंपरा, संस्कृति या धर्म के नाम पर मार-काट से ज्यादा परंपरा प्रेम और धार्मिकता न्यायपरक समाज की रचना करने में है। पर्यावरण की फैंसी चिंता करने, साफ-सुथरी सड़कों पर झाड़ू लगाते फोटो खिंचवाने से ज्यादा पर्यावरण-प्रेम विकास की अंधाधुंध में पिस रहे, अपने संसाधन बचाने के लिए लड़ रहे आदिवासियों की आवाज सुनने में है। समझने की असली बात यह है कि यह सब किसी कृपाभाव के तौर पर नहीं, मध्यवर्ग के अपने बेहतर जीवन के लिए जरूरी है।
इस समझ के बिना जो हो सकता था, ऐन वही हो रहा है। ‘विकास’ के ‘अच्छे दिन’ घोटालों के करोड़ों से खरबों में पहुंचने के दिनों में बदल रहे हैं, क्षमता के अनुकूल रोजगार के वादे पकौड़ापरक रोजगार में बदल रहे हैं, और मध्यवर्ग बेचारा बना ‘विकास’ की मार झेल रहा है।
(लेखक अकादमिक बुद्धिजीवी और राजनैतिक टिप्पणीकार हैं)