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तवज्जो घटी पर बहलाने को भावनात्मक मुद्दे हैं ही

नोटबंदी, जीएसटी और अर्थव्यवस्थाे में आम तौर पर छाई निराशा को दूर करने के लिए सरकार ने चुनावों के मद्देनजर किसान और गरीब पर फोकस बढ़ाया, मध्यवर्ग को भ्रम में छोड़ा
आकांक्षाओं का क्याः अर्थव्यवस्था में तेजी घटने से निराशा का माहौल

बजट के बाद से सरकार की नजर में मध्यवर्ग की अहमियत कम होने की बात जोर-शोर से की जा रही है। मीडिया भी इसे बहुत उछाल रहा है। लेकिन, ऐसा नहीं है। सरकार में मध्यवर्ग का आकर्षण कम नहीं हुआ है। अलबत्ता चुनावों को ध्यान में रखकर सरकार ने बजट में उन तबकों को लुभाने की कोशिश की है, जो नाराज लग रहे थे। हाल में गुजरात के विधानसभा चुनाव के नतीजों से सरकार को लगा कि किसान नाराज हैं। बेरोजगारी बढ़ने से युवा नाराज हैं। छोटे व्यापारी परेशान हैं। उसे लगा कि गरीब तबका बेहद परेशान है, जिससे उसकी साख ‌गिर रही है।

असल में यह स्थिति नोटबंदी और जीएसटी के कारण पैदा हुई, जिससे असंगठित क्षेत्र बुरी तरह हिल उठा। यह रोजगार मुहैया करने वाला दूसरा बड़ा क्षेत्र है और इसमें सारा काम नकदी में होता है। ऐसे में नकदी पर संकट आया तो इस क्षेत्र को धक्का लगा। दूसरे, जीएसटी की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि बड़े-बड़े बिजनेसमैन को समझ में नहीं आ रहा। छोटे-छोटे व्यापारी जिनके पास कंप्यूटर और एकाउंटेंट नहीं हैं, उनकी समझ में तो यह बिलकुल ही नहीं आया। यही कारण है कि बजट में ऐसे प्रावधान रखे गए जिससे किसान और गरीब को लगे कि उसको कुछ मिल रहा है।

इससे मध्यवर्ग में धारणा बनी कि उसके लिए बजट में कुछ नहीं है। लेकिन, सवाल उठता है कि नीति बनाते समय सरकार को सबसे ज्यादा ध्यान किसका रखना चाहिए। यानी जो सबसे जरूरतमंद है और जिसको सबसे ज्यादा धक्का लगा। मध्यवर्ग को भी नोटबंदी से धक्का लगा पर उतना नहीं जितना असंगठित क्षेत्र और गरीबों को लगा। चुनाव की वजह से भी सरकार को लगा कि उसे इस तबके की ओर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। हालांकि, इस तबके की ओर भी उतना ध्यान नहीं दिया गया, जितना देना चा‌हि‌ए था।

मसलन, 50 करोड़ गरीबों को स्वास्‍थ्य बीमा देने की योजना। यह बहुत जरूरी है, क्योंकि अर्थव्यवस्‍था में जो ग्रोथ हो रही है उसकी वजह से पर्यावरण पर बहुत असर पड़ रहा है। हमारे शहर दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं। गांवों में भी असर पड़ रहा है, क्योंकि वहां कीटनाशक दवा, रासायनिक उर्वरक का इस्तेमाल हो रहा है जो पानी में घुल जाता है। इसकी वजह से कैंसर बढ़ रहा है। किडनी, लीवर की बीमारी बढ़ रही है। किसी परिवार में जैसे ही ऐसी कोई बीमारी आती है वह गरीब हो जाता है। इस तरह स्वास्‍थ्य बीमा बहुत अच्छी स्कीम मानी जा सकती है पर उसके लिए पर्याप्त बजटीय प्रावधान नहीं किए गए हैं। इतनी बड़ी संख्या में लोगों को सुविधा उपलब्‍ध कराने के लिए संसाधन नहीं हैं।

मौजूदा सरकार को यह भी लगता है कि मध्यवर्ग को भावनात्मक मसलों पर भटकाया जा सकता है। जैसा गुजरात में हुआ। जब लगा कि चीजें हाथ से निकल रही हैं तो भावनात्मक मसले उठाए गए। मसलन, मुसलमान आपका सीएम बन जाएगा, गैर-गुजराती मुख्यमंत्री बन जाएगा, पाकिस्तान से सांठगांठ हो रही है। इस तरह के मुद्दों से मध्यवर्ग साथ आ जाता है।

अब सवाल उठता है कि मध्यवर्ग की स्थिति क्या है? हमारे देश में मध्यवर्ग की स्थिति गरीब से बहुत बेहतर है। यह भी सोचना होगा कि देश में मध्यवर्ग कितना है। कुल आबादी का एक फीसदी अमीर होंगे। मध्य और निम्न मध्यवर्ग को 10-10 फीसदी मान लेते हैं। मतलब बची हुई करीब 80 फीसदी आबादी गरीब है। इनमें अति-गरीब भी हैं। मान लीजिए गरीबी का पैमाना 400 रुपया रोजाना की आमदनी है। इसका मतलब यह नहीं है कि 401 रुपया कमाने वाला मध्यवर्ग में आ गया। इसका मतलब हुआ कि वह अति गरीब नहीं रहा, पर गरीब है। तो हमें यह भी फर्क करना होगा कि कौन गरीब और कौन अति गरीब है।

अगर कुछ करना है तो सबसे ज्यादा गरीब के लिए करना चाहिए। मध्यवर्ग का नंबर उसके बाद आएगा और उसमें भी जो निम्न मध्यवर्ग है उसका नंबर पहले आएगा। लेकिन, आज जो हमारा टैक्स नेट है उसमें परोक्ष कर के दायरे में गरीब भी आते हैं। पर जो प्रत्यक्ष कर, आयकर वगैरह है, उसमें ज्यादा से ज्यादा तीन-चार फीसदी लोग ही आते हैं। पूरा मध्यवर्ग भी इसके दायरे में नहीं आता। कारण यह है कि इनकम टैक्स काफी छूट के बाद लागू होता है। अभी ढाई लाख रुपये की वार्षिक आमदनी आयकर से बाहर है। इसके ऊपर स्टैंडर्ड डिडक्शन और अन्य छूटें हैं। सो, करीब साढ़े चार-पांच लाख सालाना आमदनी के ऊपर ही टैक्स लगना शुरू होता है। इसका मतलब यह हुआ कि जिनकी तनख्वाह 40 हजार रुपये प्रतिमाह से ज्यादा है, वही एक तरह से टैक्स के दायरे में आते हैं। इसमें भी जो शुरू का स्लैब है, उसमें टैक्स की दर बेहद कम है। 10 लाख से कम की सालाना आमदनीवाले ज्यादातर ऐसे लोग हैं जिनको छह-सात हजार रुपये ही टैक्स देना पड़ता है। ऐसे में टैक्स छूट का दायरा नहीं बढ़ाने पर केवल ऊपरी स्तरवाले मध्यवर्ग को ही फर्क पड़ता है।

असल में, जो मध्यवर्ग और गरीब तबका है उस पर परोक्ष कर का भार पड़ता है। अभी जीएसटी में जो टैक्स बढ़ गया है, वास्तव में उससे असर पड़ रहा है। मान लीजिए कोई परिवार जिसकी सालाना आमदनी 10 लाख रुपये है, उसे डायरेक्ट टैक्स ज्यादा से ज्यादा 30-40 हजार रुपये ही देने होंगे। लेकिन वह जो खपत करेगा उस पर इनडायरेक्ट टैक्स 15 फीसदी देगा। यानी उसका लाख-सवा लाख रुपया जाएगा। इस तरह से इनडायरेक्ट टैक्स मध्यवर्ग को ज्यादा भारी पड़ता है। दरसल, मध्यवर्ग को इनकम टैक्स तो सीधा-सीधा दिखाई पड़ता है। लेकिन, इनडायरेक्ट टैक्स जो छिपा हुआ है, उसे वह नहीं देख रहा।

इससे लगता है कि मध्यवर्ग एक तरह से भ्रम की स्थिति में है। उसको समझ नहीं आ रह‌ा कि डायरेक्ट टैक्स की बजाय इनडायरेक्ट टैक्स में छूट मिलनी चाहिए। डायरेक्ट टैक्स थोड़ा-बहुत बढ़ जाता है या कम भी नहीं होता है तो उससे उतना असर नहीं पड़ता जितना कि जीएसटी में टैक्स से। इसलिए, डायरेक्ट टैक्स में सरकार ने कुछ नहीं किया है तो उससे परेशान नहीं होना चाहिए। मध्यवर्ग को जीएसटी की दरों से परेशान होना चाहिए।

टैक्सेशन का एक प्रिंसिपल होता है, ‘एबिलिटी टु पे’। इसी से निर्धारित होता है कि कौन कितना टैक्स देगा। इसमें कालेधन की अर्थव्यवस्‍था से दिक्कतें पैदा हो रही हैं। जो एक फीसदी लोग असली अमीर हैं वे कालाधन जेनरेट कर अपना बहुत सारा टैक्स बचा लेते हैं। पेशेवर वर्ग, जो मिडिल क्लास का एक हिस्सा है, वह भी अपना टैक्स बचा लेता है। वित्त मंत्री ने भी अपने बजट भाषण में कहा है कि जो पेशेवर वर्ग है वह अपनी आमदनी कम दिखा रहा है, टैक्स कम दे रहा है। इसी तरह बिजनेस क्लास भी बहुत कम टैक्स दे रहा है। कालेधन की अर्थव्यवस्‍था के चलते जितना टैक्स इकट्ठा होना चाहिए उतना नहीं हो पाता। ज्यादा टैक्स इकट्ठा होने पर इनडायरेक्ट टैक्स कम किया जा सकता है। सो, कालेधन की अर्थव्यवस्‍था भी इनडायरेक्ट टैक्स का बोझ बढ़ाने का प्रमुख कारण है।

मेरे अनुमान से आज कालेधन की अर्थव्यवस्‍था जीडीपी का 62 फीसदी है। कालेधन की अर्थव्यवस्‍था एक सिस्टम के तौर पर काम करती है। एक तिकड़ी इसे चलाती है। इसमें कारोबारी, नेता और नौकरशाह शामिल हैं। नौकरशाही में पुलिस, न्यायपालिका सभी शामिल हैं। इसका मतलब यह हुआ कि यह राजनीतिक मसला है। राजनीतिक इच्छाशक्ति के बगैर इसे खत्म नहीं किया जा सकता।

कालेधन के कारण हमारी अर्थव्यवस्‍था अक्षम बन जाती है। यह ऐसा ही है, जैसे पहले गड्ढा खोदो और फिर उसे भरो। इसका मतलब यह हुआ कि आपने दिन में एक व्यक्ति को गड्ढा खोदने के लिए लगाया और रात में दूसरे व्यक्ति को गड्ढा भरने के लिए, तो सुबह में आपका प्रोडक्‍शन जीरो हुआ और आमदनी डबल हो गई। इसको मैं कहता हूं ‘एक्टिविटी विदाउट प्रोडक्टिविटी’। आपने गड्ढा खोदने के लिए जो निवेश किया उसकी प्रोडक्टिविटी जीरो है। इसी तरह आप अदालत में चले जाएं। वहां एक पक्ष सुनवाई टलवाना चाहता है और जज तीन महीने बाद की तारीख दे देते हैं। इससे जो फैसला तीन महीने में आना चाहिए, उसमें तीन साल लग जाते हैं। मतलब, अदालत में हमने जितना निवेश किया उतनी प्रोडक्टिविटी नहीं मिल रही। नौकरशाही घूस के लिए देरी करती है। पुलिस हफ्ता वसूलती है। इसके कारण निवेश के हिसाब से आउटपुट नहीं मिलता। प्रोडक्टिविटी कम होने से अर्थव्यवस्‍था के बढ़ने की रफ्तार पांच फीसदी कम हो जाती है। सत्तर के दशक में जब कालेधन की अर्थव्यवस्‍था 10 फीसदी से ज्यादा थी, तब से पांच-पांच फीसदी ह‌र साल जोड़ें तो आज हमारी अर्थव्यवस्‍था 18 खरब डॉलर की होती जो अमेरिकी अर्थव्यवस्‍था के बराबर है। इसका असर यह होता कि हमारी प्रति व्यक्ति आमदनी 1700 डॉलर की जगह 13000 डॉलर से ज्यादा होती। हम अमीर देशों में शुमार होते। गरीबी, भूखमरी कम होती। मध्यवर्ग आठ गुना ज्यादा बड़ा होता। बिजनेसमैन क्लास आठ गुना ज्यादा बड़ा होता। इसलिए, कालेधन की अर्थव्यवस्‍था पर अंकुश लगाना बेहद जरूरी है क्योंकि उसके बहुत गंभीर परिणाम चारों तरफ हैं। इसके कारण इनडायरेक्ट टैक्स की दरें ज्यादा हैं। लोगों को सर्विस मिलनी चाहिए वह नहीं मिल रही। हर जगह तरह-तरह से नुकसान हो रहा है।

कालेधन की अर्थव्यवस्‍था के कारण मध्यवर्ग में नाइंसाफी का भाव पैदा हो रहा है। वह देखता है कि बिजनेसमैन टैक्स देते नहीं। लेकिन, उसे देना पड़ता है। ऐसा नहीं कि मध्यवर्ग बहुत ज्यादा टैक्स दे रहा। वह अपनी तनख्वाह का एकाध फीसदी टैक्स ही दे रहा है। लेकिन, इसके कारण वह भी उसे भारी लगने लगता है। गरीब देखता है कि शहर में एक तरफ तो चकाचौंध है, दूसरी ओर वह झुग्गी-झोपड़ी में है, सड़क पर सो रहा है। सो, कालेधन की अर्थव्यवस्‍था के कारण समाज में हर जगह नाइंसाफी का भाव है।

राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो सबसे ज्यादा उनको मिलना चा‌हिए जो गरीब हैं, अति गरीब हैं। मध्यवर्ग तो उनसे दस गुना बेहतर स्थिति में है। लेकिन, हमारा मध्यवर्ग टीवी से बहुत प्रभावित है। टीवी पर वह फैंसी लाइफस्टाइल देखता है। हमारे देश में टीवी पर जो गरीब दिखाए जाते हैं वे मध्यवर्ग की तरह लगते हैं। अमीर का आलीशान बंगला होता है। कपड़े चमक-दमक वाले होते हैं। इससे मध्यवर्ग की आकांक्षाएं बढ़ रही हैं। मीडिया भी उपभोक्तावाद को बढ़ावा दे रहा है। उपभोक्तावाद से प्रभावित मध्यवर्ग की आकांक्षाएं जब पूरी नहीं हो पातीं तो भी उसमें नाइंसाफी का भाव पैदा होता है। इसके कारण वह अनाप-शनाप काम करने को भी तैयार है जिससे कालेधन की अर्थव्यवस्‍था और बढ़ रही है।

आर्थिक के अलावा इसके सामाजिक और राजनीतिक मायने भी हैं। यह चक्रव्यूह की तरह है। कालेधन की अर्थव्यवस्‍था, उपभोक्तावाद, इनडायरेक्ट टैक्स ये सब मिलकर मध्यवर्ग के ऊपर दबाव बना रहे हैं। संतुष्टि नहीं होने के कारण वह आत्मकेंद्रित हो गया है। इसके कारण देश, समाज पीछे छूट रहा है। अब तो वह यह सोचता है कि मुझे अपने लिए क्या करना है। और मीडिया इसको बढ़ावा दे रहा है। इससे वह एक दायरे में घिर गया है और उसे चीजें साफ नजर नहीं आ रहीं।

(लेखक जेएनयू में अर्थशास्‍त्र के प्रोफेसर रह चुके हैं। कालेधन पर उनकी चर्चित किताबें हैं। यह लेख अजीत झा से बातचीत पर आधारित है)

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