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हताश और उदास मध्यवर्ग

रोजगार, काम-धंधे के मोर्चे पर मंदी से लाचार, उदास मध्यवर्ग के लिए क्या विपक्ष दिखा पाएगा उम्मीद
अपेक्षाएं नहीं हो पा रही पूरी

आर्थिक, सामाजिक बदलावों के साथ मध्यवर्ग का स्वरूप बदल रहा है। यह अब 30-40 करोड़ लोगों का देशव्यापी वर्ग है, जो प्रभावशाली है, जिसकी आवाज मजबूत है। 2014 में जब नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय फलक पर बड़े नेता के तौर पर उभरे तो इसके पीछे मध्यवर्ग का बड़ा हाथ था। मेरे हिसाब से मध्यवर्ग को साथ लेने की एक सोची-समझी रणनीति थी, क्योंकि मध्यवर्ग ओपिनियन मेकर है, इसका असर इसकी संख्या से कहीं ज्यादा है। यह वर्ग देश की बागडोर मजबूत, निर्णायक नेतृत्व के हाथ में देखना चाहता था। इसके पीछे मध्यवर्ग के अपने स्वार्थ थे। मध्यवर्ग की ख्वाहिश थी कि आर्थिक तरक्की उस दिशा में हो, जिसकी उपलब्धियों का लाभ उसे मिले।

मजबूत नेतृत्व को आगे बढ़ाने की मध्यवर्ग की यह रणनीति एक हद तक सफल भी रही। यूपीए-2 सरकार के मुकाबले नरेंद्र मोदी के रूप में मजबूत और निर्णायक नेतृत्व सामने आया, जो देश की रक्षा और अर्थव्यवस्था से जुड़े बड़े फैसले लेने में सक्षम था। मध्यवर्ग को मिली इस कामयाबी से देश में खुशनुमा माहौल बना था। लेकिन आज यह उत्साह ठंडा पड़ता दिख रहा है। मध्यवर्ग में उदासी है। मोदी जैसे सशक्त नेतृत्व से उसकी जो अपेक्षाएं थीं, वे पूरी नहीं हो पाईं। सबसे ज्यादा परेशानी नौकरियों और अर्थव्यवस्था को लेकर है। ऐसा नहीं कि पिछले तीन-चार साल में आर्थिक तरक्की कतई नहीं हुई, मगर जैसी उम्मीद थी, वैसे नतीजे नहीं आए। हालांकि, इस दौरान वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ, कच्चे तेल के दाम भी काबू में रहे। मगर भारत में यह रोजगारहीन विकास का दौर रहा। नई नौकरियों के पैदा होने की रफ्तार बेहद सुस्त पड़ गई।

कुल मिलाकर मोदी सरकार के वायदों और उनके पूरा होने के बीच एक फासला है! रही-सही कसर नोटबंदी और जीएसटी ने पूरी कर दी। नोटबंदी के दौरान जो मध्यवर्ग मोदी सरकार का पक्का समर्थक बनकर लाइनों में खड़ा रहा, जीएसटी ने उसकी भी सोच बदल दी। अब नीरव मोदी के घोटाले का क्या असर पड़ता है, यह देखना होगा। लेकिन “ना खाऊंगा, ना खाने दूंगा” की छवि को धक्का लगा है। जिन-जिन वजहों से मध्यवर्ग ने अपनी आकांक्षाओं के लिए नरेंद्र मोदी में भरोसा किया था, उससे मोहभंग हुआ है।

मोदी सरकार के आखिरी पूर्ण बजट से मध्यवर्ग को एक उम्मीद थी कि उसे कोई बड़ी रियायत दी जाएगी। लेकिन टैक्स के मामले में जो थोड़ी-बहुत छूट दी भी गई, उससे ज्यादा बोझ बढ़ गया। इस बीच पाकिस्तान और ज्यादा हमलावर हो गया है। कश्मीर में किसी एक महीने में इतने फिदायीन हमले कभी नहीं हुए। सर्जिकल स्ट्राइक को जिस तरह बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया था, उसका नुकसान ही होता दिख रहा है। हमारी बहादुर सेना के प्रयासों पर सरकार की सामरिक और कूटनीतिक नासमझी भारी पड़ रही है। इन वजहों से भी मध्यवर्ग में निराशा बढ़ रही है।

वैसे, माना जाता है कि मध्यवर्ग थोड़ा स्वार्थी और खुद में सिमटा वर्ग है। वह समाज की व्यापक पीड़ा से जुड़ता नहीं है। लेकिन मीडिया के असर और कई दूसरी वजहों से भी यह स्थिति बदल रही है। अब मध्यवर्ग देशव्यापी है। शहर की तरह गांवों में भी एक मध्यवर्ग है। किसानों के बीच भी एक मध्यवर्ग बन गया है जो कृषि की दुर्दशा और आरक्षण के झगड़ों से खुद को जोड़कर देखता है। मध्यवर्ग अब शहरी-ग्रामीण फिनॉमिना बन गया है। सबसे छोटा शहर, एक बड़ा गांव है। बहुत बड़ा गांव, एक छोटा शहर। शहर और गांव का विभाजन मिटता जा रहा है। इसलिए अब ऐसा नहीं कहा जा सकता कि कृषि संकट से मध्यवर्ग का कोई लेना-देना नहीं है। इस लिहाज से देखें तो मध्यवर्ग का विस्तार हो रहा है। इसलिए उसकी अनदेखी करना और भी मुश्किल है।

हालांकि, मध्यवर्ग बड़ा व्यावहारिक तबका है। वह चाहता है कि नौकरियां मिलें, सुरक्षा मिले, आर्थिक अवसर बढ़ें, आय बढ़े, उसकी खुशहाली के अवसर पैदा हों। अगर यह सब होता रहे तो वह अति राष्ट्रवादी या सांप्रदायिक एजेंडे को भी निभा लेगा। लेकिन धंधे पर चोट हो, आमदनी न बढ़े, महंगाई बढ़ती रहे, तब सवाल उठता है कि मध्यवर्ग में सांप्रदायिक और अति राष्ट्रवादी मुद्दों से कब तक उत्साह भरा जा सकता है। मौजूदा सामाजिक अस्थिरता, हिंसक भीड़ की सरेआम हत्या की घटनाओं, बढ़ती सांप्रदायिकता ने मध्यवर्ग में बेचैनी को बढ़ा दी है। यह भी मध्यवर्ग के मोहभंग का एक कारण है।

एक बात और ध्यान रखनी चाहिए। हिंदू मध्यवर्ग लक्ष्मी को भी उतना ही पूजता है, जितना राम को। 2014 में मध्यवर्ग ने जैसा उत्साहजनक समर्थन भाजपा को दिया था, उस उत्साह की जगह निराशा और उदासी का भाव आ गया है क्योंकि उस पर लक्ष्मी मेहरबान नहीं हो रही हैं। नौकरियां जा रही हैं, काम-धंधे में मंदी है। इसी वजह से उसकी नजरें शायद विकल्प पर भी हैं। पहले भी भ्रष्टाचार के खिलाफ यह वर्ग आम आदमी पार्टी सरीखे नए प्रयोगों से जुड़ा था। लेकिन वह विकल्प कमजोर पड़ गया है।

मध्यवर्ग अब शिद्दत से विकल्प तलाश रहा है। इस विकल्प को पेश करने का उत्तरदायित्व विपक्ष पर है। अगर विकल्प न मिला तो पाकिस्तान, राम मंदिर जैसे मुद्दों पर नरेंद्र मोदी मध्यवर्ग को साथ जोड़े रखने में कामयाब हो सकते हैं।

(लेखक राजनेता हैं और ‘द ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास’ उनकी चर्चित किताब है। यह लेख अजीत सिंह से बातचीत पर आधारित है)

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