Advertisement

खतरे और नाउम्मीदी की हदें पार

जम्मू-कश्मीर में फिदायीन हमले का सिलसिला बढ़ा, केंद्र की सख्त नीति बेअसर, घाटी में अलगाव और एलओसी पर धमाके बेइंतहा
सुंजुवां कैंपः 10 फरवरी को आतंकियों ने यहां हमला किया था

आतंकी हमलों में तेजी अचानक नहीं है। यह सबकी जानकारी में था कि नौ फरवरी को अफजल गुरु की पांचवीं बरसी है। 2001 में संसद पर हमले के आरोप में इस कश्मीरी अलगाववादी को 2013 में फांसी दी गई थी। इस साल बरसी से पहले खुफिया एजेंसियों ने राज्य में संभावित आतंकी हमलों को लेकर आगाह कर दिया था। जम्मू-कश्मीर पुलिस ने भी सतर्कता बढ़ा दी थी। लेकिन, 10 फरवरी को तड़के जम्मू शहर से सटे सुंजुवां आर्मी कैंप पर फिदायीन हमले में छह जवान शहीद हो गए। एक पल में, आतंकी यह फिर जताने में सफल रहे कि भले ही कितनी सुरक्षा और अलर्ट हो, किसी भी जगह को भेदने की उनमें कुव्वत है। जम्मू-कश्मीर में 36वीं ब्रिगेड की टुकड़ी पर सुबह चार बजकर 45 मिनट पर हुए इस हमले में तीन फिदायीन और एक जवान के पिता भी मारे गए। आर्मी कैंप के भीतर रह रहे बच्चे और महिला सहित 10 अन्य जख्मी भी हो गए।

जम्मू-कश्मीर पुलिस के वरिष्ठ खुफिया अधिकारियों का कहना है कि आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के अफजल गुरु विंग ने यह हमला किया। आतंकियों ने 10 फरवरी को एनकाउंटर से पहले जम्मू में सेना की एक वीरान इमारत की दीवार पर ‘अफजल गुरु’ और ‘भारत वापस जाओ’ जैसे नारे लिख दिए थे। शनिवार की उस सर्द सुबह भारी हथियारों से लैस आतंकी सुरक्षा में सेंध लगाते हुए सेना के कर्मचारियों के फैमिली क्वार्टर की तरफ आगे बढ़े। अगले तीन दिनों तक रुक-रूककर फायरिंग होती रही, जिसमें तीन आतंकवादी मारे गए।

जैश के आतंकवादी बड़े मंसूबे के साथ आए थे, क्योंकि हथियारों के साथ-साथ उनके पास रसद भी थी। पाकिस्तान से संचालित जैश-ए-मोहम्मद का राज्य में यह दूसरा सबसे बड़ा हमला था। इससे पहले दक्षिणी कश्मीर जिले के पुलवामा में एक जनवरी को लेटपोरा कैंप पर हमला हुआ था, जिसमें सीआरपीएफ के पांच जवान शहीद हो गए थे। सुंजुवां घटना के बाद रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण 12 फरवरी को जम्मू दौरे पर गईं। आतंकी घटना के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराते हुए उन्होंने कहा कि इस हिमाकत की उसे भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। जम्मू के दक्षिण में हिमालय की पीर पंजाल पर्वतमाला में आतंकवाद का साया फैलाने का आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा कि सीमा पार बैठे हैंडलर्स आतंकवादियों को कंट्रोल करते हैं।

यह सोपोर से लगभग 250 किलोमीटर दक्षिण का इलाका है, जो अफजल गुरु के जन्मस्थल के करीब है। वही अफजल जिसे कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार ने उसके परिवार को बिना खबर दिए दिल्ली की तिहाड़ जेल में फांसी दे दी थी। इस ‘आउट ऑफ टर्न’ जाकर सजा देने पर तत्कालीन सत्तारूढ़ नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) और राज्य में मौजूदा सत्तासीन पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) दोनों ने आपत्ति जताई। दोनों क्षेत्रीय दलों का मानना था कि पहले से ही अशांत घाटी में अफजल गुरु के फांसी के दूरगामी नकारात्मक असर पड़ेंगे। पांच साल के बाद आशंकाएं सही साबित हो रही हैं। घाटी में आतंकवाद का रुख करने वाले स्थानीय युवाओं की संख्या बढ़ रही है। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के मुताबिक, 2013 में कुल 16 कश्मीरी युवा आतंकवादियों के साथ जा मिले थे, लेकिन अकेले 2017 में यह आंकड़ा 127 तक जा पहुंचा। दरअसल, जैश-ए-मोहम्मद पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ का दुलारा है और खुफिया एजेंसियों के मुताबिक, 1998 में अस्तित्व में आने के बाद से ही यह लगातार फिदायीन हमले कर रहा है।

एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहते हैं, “जैश-ए-मोहम्मद मानता है कि भारत के आर्मी कैंप और दूसरे सुरक्षा संस्थानों पर आत्मघाती हमले से कुछ समय तक इसका असर रहेगा।” वे आउटलुक को बताते हैं, “वे कुछ हद तक इसमें कामयाब भी रहे हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि जैश पर काबू नहीं पाया जा सकता।” हमने 2016 और 2017 के दौरान दक्षिण कश्मीर में 30 और बडगाम में जैश के नौ आतंकवादियों को मार गिराया। पुलिस का मानना है कि जैश की गतिविधियों को रोकने के लिए सीमा पार घुसपैठ को रोकने की जरूरत है। वे कहते हैं, “अगर आप जैश आतंकियों को मार गिराते हैं, तो इतनी ही संख्या में वे फिर से घुसपैठ कर जाते हैं। घुसपैठ करना उतना आसान नहीं है, लेकिन यह मुमकिन है।”

दरअसल, सुंजुवां कैंप में 12 फरवरी को जैसे ही फायरिंग बंद हुई, उधर उसी सुबह दो आतंकियों ने श्रीनगर के करननगर क्षेत्र के सीआरपीएफ कैंप को उड़ाने की कोशिश की। एक चौकन्ने संत्री ने जवाबी फायरिंग कर उन्हें पास की ही इमारत में घुसने पर मजबूर कर दिया, जिसे बाद में दोनों आतंकियों ने अपना बंकर बना लिया। इसके बाद फायरिंग में अर्धसैनिक बल का एक जवान शहीद हो गया। कड़ी सुरक्षा के बीच इस हमले की जिम्मेदारी लश्कर-ए-तैयबा ने ली और शहरी इलाकों में आतंकी घुसपैठ की ओर इशारा किया।

एक सप्ताह पहले ही, लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादी नवीद जट को श्रीनगर सेंट्रल जेल से मेडिकल जांच के लिए अस्पताल ले जाते वक्त दो पुलिसवालों की हत्या कर दी गई थी। अस्पताल के गेट पर 22 वर्षीय नवीद जट का इंतजार कर रहे एक आतंकी ने अचानक उसे पिस्टल थमा दिया था। इसके बाद दो पुलिसवालों की हत्या कर दोनों फरार हो गए। पुलिस का कहना है कि अबु कासिम से लेकर अबु दुजाना और अबु इस्माइल तक अपने शीर्ष मुजाहिदीन के मारे जाने के बाद तीन दशक पुराना लश्कर-ए-तैयबा बड़ी बेचैनी से एक कमांडर की तलाश कर रहा है। फरार होने के बाद नवीद हिजबुल मुजाहिदीन के पास गया। एडिशनल डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस मुनीर खान बताते हैं, “यह दिखाता है कि हिजबुल और लश्कर दोनों एक साथ काम करते हैं।” नवीद को पुलिस और सुरक्षा बलों पर हमला करने वाले आतंकी के रूप में जाना जाता है। उसे 2014 में पकड़ा गया था। उसके बारे में कहा जाता है कि वह बेहद प्रशिक्षित है और आंख मूंदकर 45 सेकेंड के भीतर एके-47 राइफल के पुर्जों को अलग कर, फिर जोड़ सकता है। 

हाल में पूरे कश्मीर में पुलिस और आर्मी की कार्रवाई के बावजूद आतंकवाद बढ़ा है। घाटी के लोगों का मानना है कि पाकिस्तान के खिलाफ सरकार के सख्त रवैए और अलगाववादियों पर राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) की कार्रवाई से हालात और बिगड़े हैं।

मुख्यमंत्री ने 12 फरवरी को विधानसभा में और अधिक मुखर होकर कहा कि फिदायीन हमलों के लिए सेना और सुरक्षा बलों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, “अगर कोई मरने-मारने की सोचकर आता है तो उसके साथ सुरक्षा बल कैसे निपटेंगे?” उन्होंने पाकिस्तान से बातचीत पर भी जोर दिया। महबूबा ने आगे कहा कि पिछले 30 साल से राज्य के लोग हिंसा-चक्र में फंसे हैं और इस दर्द से राहत के लिए वे भारत-पाक के अच्छे संबंधों की खातिर बातचीत की मांग कर रहे हैं। उन्होंने नम आंखों से, पर जोर देकर कहा, “आखिर कब तक लोग मरते रहेंगे? कब तक हम कब्र पर फूल की मालाएं चढ़ाते रहेंगे।” जंग नहीं, बल्कि संवाद ही शांति और दोस्ती का मूलमंत्र है।

मुख्यमंत्री ने टीवी चैनलों पर भी टीआरपी के लिए कश्मीर का इस्तेमाल करने का आरोप लगाया। उन्होंने कश्मीर और पाकिस्तान को लेकर भाजपा की अगुआई वाली एनडीए सरकार की नीतियों पर सवाल उठाते हुए कहा, “इसका खामियाजा राज्य और देश को भुगतना पड़ेगा।”

जानकारों का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नई दिल्ली की कश्मीर नीति का ढांचा पूरी तरह बदलकर रख दिया है। जबकि जम्मू और कश्मीर में पीडीपी और भगवा पार्टी की गठबंधन वाली सरकार लगातार अलग नजरिया अपनाने की बात कर रही है। वे कहते हैं कि एनडीए शासनकाल में कश्मीर के प्रति सख्त रवैए ने आतंक विरोधी आवाजों को दबा दिया है, जिससे आतंकवाद को नया जीवन मिला है। नाम न छापने की शर्त पर एक जानकार कहते हैं, “इसने कश्मीर को 1990 के दशक में ला खड़ा किया है।”

कुछ एक्सपर्ट तर्क देते हैं कि मोदी सरकार के रुख से जाने-अनजाने वह ‘डर’ ही खत्म हो गया है, जो राज्य के पास सबसे प्रभावी हथियार होता है। उनके मुताबिक, हथियार और युद्धक जहाजों से कहीं अधिक प्रभावी राज्य का डर ही है, जिससे आतंकवादी वारदातें व्यापक जन-प्रतिरोध में नहीं बदल पाईं। ऐसा लगता है कि आज सरकार का ठेठ ‘सैन्यवादी’ रवैया और “सबको साफ कर डालने” और “अलगाववाद को कुचल डालने की मुहिम” का उलटा ही असर हुआ है। इससे लोगों में खुलेआम बंदूकों के सामने खड़े होने का जज्बा पैदा हो गया है। एक पुलिस अधिकारी कहते हैं, “हालात इतने बुरे हैं कि आपको पता ही नहीं चलेगा कि कौन आतंकी है और कौन नहीं।” आंतरिक और बाह्य बातचीत पर सरकार के दो-टूक ‘ना’ से लोग यह उम्मीद खो बैठे हैं कि एक न एक दिन बातचीत और सुलह-सफाई की मुश्किल प्रक्रिया से देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में कश्मीरी आकांक्षाओं को जगह मिलेगी।

विशेषज्ञ जम्मू-कश्मीर को संविधान में मिली स्वायत्तता और ‘स्थायी निवासी’ को परिभाषित करने वाले अधिकार का हवाला देते हुए कहते हैं कि केंद्र सरकार ने हिंदुत्व को वस्तुतः राज्य के नीति-निर्देशक तत्व के रूप में पेश करके कश्मीरियों को अलग-थलग कर दिया है। आरएसएस समर्थक अनुच्छेद 370 और 35 (ए) को खत्म करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा रहे हैं और उसमें सरकार की शह दिखती है। इससे कश्मीरियों में डर पैदा करने की कोशिश भी हो रही है। 

वे नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता और विधानसभा अध्यक्ष रहे अकबर लोन का उदाहरण देते हैं और कहते हैं, “केंद्र ने उन कश्मीरियों में भी अलगाव की भावना भर दी है, जो अपनी मुस्लिम पहचान के साथ भारतीय पहचान को जोड़कर देखने की कोशिश करते रहे हैं।” 10 फरवरी को जब भाजपा ने सुंजुवां कैंप के आसपास रहने वाले रोहिंग्या और मुसलमानों पर हमले में मदद का आरोप लगाया तो लोन ने विधानसभा में पाकिस्तान समर्थित नारे लगाए।

विपक्षी नेशनल कॉन्फ्रेंस का आरोप है कि कश्मीर के प्रति केंद्र की नीति ने सुलह-समझौते को बुराई के तौर पर पेश करना शुरू कर दिया है। इसकी जगह अंधराष्ट्रवाद को देशभक्ति के रूप में पेश किया जा रहा है। नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रवक्ता जुनैद आजिम मट्टू आउटलुक को बताते हैं, “भाजपा ने कश्मीर के लिए सरकार द्वारा घोषित नए वार्ताकार (दिनेश्वर शर्मा) का खुद मजाक उड़ाया है। यहां तक कि कुछ खास मंत्री और प्रधानमंत्री के करीबी भी खुश नहीं हैं।”

मट्टू कहते हैं कि पाकिस्तान को लेकर नीतियां भी “अस्थिर और अव्यावहारिक” रही हैं। प्रधानमंत्री की अचानक पाकिस्तान यात्रा, सर्जिकल स्ट्राइक और विभिन्न चुनावों में भाजपा की ओर से पाकिस्तान विरोधी रवैए से हर कोई अचंभित है कि क्या केंद्र सरकार को यह एहसास है कि इस लंबे गतिरोध और दुश्मनी की कीमत कितनी बड़ी होगी। इसकी कीमत नियंत्रण रेखा और अंतरराष्ट्रीय सीमा पर रहने वाले लोगों को चुकानी पड़ती है। विभिन्न राज्यों में आगामी चुनाव से पता चलेगा कि केंद्र कश्मीर और पाकिस्तान को चुनावी दांव की तरह इस्तेमाल करता है या फिर वह महबूबा के “जंग कोई विकल्प नहीं” पर आधारित विचार के मद्देनजर बातचीत के लिए आगे आता है। 

आखिरकार, पाकिस्तान स्पॉन्सर फिदायीन हमले में 2014 के बाद से ही तेजी आई है। उस साल पांच दिसंबर (बाबरी मस्जिद विध्वंस की बरसी की पूर्व संध्या पर) को उत्तरी कश्मीर के उड़ी में आर्मी कैंप में छह जैश आतंकी घुस गए और उनके हमले में आठ जवान और तीन पुलिसवाले शहीद हो गए। इसके बाद सितंबर 2016 में उड़ी ब्रिगेड हेडक्वार्टर पर जैश-ए-मोहम्मद के हमले में सेना के 18 जवान शहीद हो गए और 22 घायल हो गए।  

इस साल एक जनवरी को लेटपोरा हमले से पहले जैश आतंकी फरदीन खांडे (जो दूसरे आतंकी के साथ मारा गया) ने एक वीडियो बनाया था, जिसमें वह कश्मीरी युवाओं और देश के मुसलमानों से भारत के खिलाफ जेहाद में शामिल होने की अपील कर रहा है। 16 वर्षीय फरदीन आठ मिनट के वीडियो में कहता है कि आतंकवाद का बेरोजगारी से कोई लेनादेना नहीं है, जैसा कि नई दिल्ली की ओर से तोड़मरोड़ कर पेश किया जाता है। यह कश्मीर पर भारत के अवैध कब्जे का जवाब है। पिछले साल सितंबर में आतंकवाद का दामन थामने वाला यह युवक अंत में अफजल गुरु और लश्कर-ए-तैयबा के संस्थापक मौलाना मसूद अजहर की तारीफ करता है। इस तरह हिंसा का मनहूस चक्र चलता रहता है।

फिदायीन हमलों का लगातार बढ़ता सिलसिला

जम्मू के सुंजुवां में 10 फरवरी को फिदायीन हमले में 10 जानें चली गईं। उनमें छह सेना के जवान थे। जम्मू-कश्मीर की ऐसी घटनाओं पर डालते हैं एक नजरः

-3 नवंबर 1999: श्रीनगर के बदामीबाग आर्मी हेडक्वार्टर पर फिदायीन हमले में सेना के आठ जवान शहीद हो गए।

-17 सितंबर 2001: हंदवाड़ा में फिदायीन हमले में जम्मू-कश्मीर पुलिस के आतंकनिरोधी दस्ते के स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप के नौ पुलिसकर्मी शहीद हो गए।

-14 मई 2002: जम्मू के कालूचक में आर्मी कैंप पर तीन आतंकवादियों के हमले में 31 लोगों की मौत हो गई, जबकि 48 जख्मी हो गए।

-22 जुलाई 2003: जम्मू के अखनूर में आर्मी कैंप पर फिदायीन हमले में एक ब्रिगेडियर सहित सेना के आठ जवान शहीद हो गए, जबकि 12 घायल हो गए। घायलों में चार जनरल, एक ब्रिगेडियर और दो कर्नल शामिल थे।

-19 जुलाई 2008: बडगाम जिले में श्रीनगर-बारामूला नेशनल हाइवे के पास आर्मी के दस्ते पर आतंकियों के हमले में 10 जवान शहीद हो गए, जबकि 20 जख्मी हो गए।

-24 जून 2013: श्रीनगर के हैदरपोरा बाइपास पर दो आतंकियों ने घात लगाकर सेना की टुकड़ी पर हमला बोला, जिसमें 10 जवान शहीद हो गए और 12 जख्मी हो गए। हमले के बाद आतंकवादी फरार होने में सफल हो गए।

-25 सितंबर 2013: जम्मू के सांबा और कठुआ में दो फिदायीन हमले में एक लेफ्टिनेंट कर्नल और चार पुलिसकर्मी सहित नौ लोगों की मौत हो गई। बाद में तीन आतंकी भी मारे गए।

-5 दिसंबर 2014: नियंत्रण रेखा के पास उड़ी के आर्मी कैंप पर आतंकी हमले में सेना के आठ जवान और तीन पुलिसकर्मी शहीद हो गए। जैश-ए-मोहम्मद ने इस हमले की जिम्मेदारी ली। बाद में जैश के छह आतंकी भी मारे गए।

-26 जून 2016: श्रीनगर-जम्मू नेशनल हाइवे पर पंपोर में सीआरपीएफ के दस्ते पर फिदायीन हमले में सीआरपीएफ के आठ जवान शहीद हो गए और 22 घायल हो गए।

-18 सितंबर 2016: उत्तरी कश्मीर में नियंत्रण रेखा के पास भारी हथियारों से लैस आतंकवादियों ने उड़ी ब्रिगेड पर हमला बोला। इस आतंकी हमले में सेना के 18 जवान शहीद हो गए, जबकि 22 जवान बुरी तरह जख्मी भी हो गए।

-1 जनवरी 2018: दक्षिण कश्मीर के पुलवामा जिले में जैश-ए-मोहम्मद के आतंकियों ने लेट-पोरा आर्मी कैंप पर हमला बोला। इस फिदायीन हमले में एक अधिकारी सहित सीआरपीएफ के पांच जवान शहीद हो गए। सुरक्षा बलों की कार्रवाई में जैश के दो आतंकी भी ढेर हो गए।

Advertisement
Advertisement
Advertisement