पौ फटते ही 37 साल के मधु मलिक चूल्हा जलाते हैं, पानी मिलाकर दूध उबालते हैं और उसमें चाय की पत्तियां डाल देते हैं। रोजाना उनके दिन की शुरुआत ऐसे ही होती है। केतली में से निकलती भाप के साथ ही उनकी दुकान पर ग्राहकों का आना शुरू हो जाता है। दक्षिण-मध्य बंगाल में जंगीपाड़ा नाम का एक पुलिस जिला है, जहां उनके मिट्टी के झोपड़े के घर के दूसरे कोने पर यह दुकान ईंटों और सीमेंट के सहारे खड़ी है। इसे ऐसे समझें कि हुगली जिले के मोहनबाटी, माझीपाड़ा और गयापाड़ा नाम के गांव जहां मिलते हैं, वहां से गुजर रहे राजमार्ग के एक किनारे मधु टी शॉप नाम की यह दुकान मौजूद है। इसके मालिक की मानें तो उनकी दुकान राज्य में हुए सियासी बदलावों की “मूक गवाह” है। ऐसा कहते हुए इसके मालिक सात साल पहले आए बदलाव की बात बताते हैं, जब पैंतीस साल तक अबाध राज करने के बाद ताकतवर कम्युनिस्टों को चुनाव में हार मिली थी। इन साढ़े तीन दशकों के दौरान जंगीपाड़ा एक कुख्यात सियासी चुनावी क्षेत्र के रूप में जाना जाता रहा। इस अवधि में एक बार भी ऐसा नहीं हुआ जब इस क्षेत्र ने माकपा या उसके सियासी सहयोगी के अलावा किसी को चुना हो, चुनाव चाहे नगर निकाय का हो, विधानसभा का या संसद का। मलिक सहमति में सिर हिलाते हुए कहते हैं, “हां, पहले इन इलाकों पर कम्युनिस्टों का प्रभुत्व था।”
उनकी दुकान के बाहर लगी लकड़ी की बेंचों पर कभी जो स्थानीय नेता और पार्टी कार्यकर्ता बैठकर चाय पीते और गप करते थे, वे सब लाल पार्टी के हुआ करते थे। जब 2011 में मई दिवस पर ममता बनर्जी ने कोलकाता में शपथ ली, तो ऐसा लगा कि रातोंरात समूचा इलाका हरा हो गया। यह नई सत्ताधारी पार्टी तृणमूल कांग्रेस का रंग है।
स्थानीय लोगों के मुताबिक, तब से लेकर अब बीते सात साल में सीपीएम के नेता, काडर या कायकर्ता को तो भूल ही जाएं, किसी ने पार्टी का एक समर्थक भी इस इलाके में नहीं देखा है।
विधानसभा चुनाव 2011 में माकपा की बुरी हार के बाद विपक्षी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने प्रतिशोध में वामदलों के समर्थकों को उनके घर-गांव से खदेड़ा और बाहर निकाल दिया। ऐसे किसी प्रतिशोध की आशंका के चलते ही तृणमूल की सुप्रीमो और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पार्टी कार्यकर्ताओं के नाम एक बयान जारी किया था और कहा था कि उनका लक्ष्य होना चाहिए “बदलाव चाहिए, बदला नहीं।” यह चेतावनी काम नहीं आई। माकपा के काडरों को पीटा गया, नेताओं का पीछा किया गया, उनकी पार्टी के झंडों को उखाड़ फेंक दिया गया और दफ्तरों में तोड़फोड़ की गई। इसके चलते सैकड़ों माकपा समर्थकों ने डर के मारे अपनी वफादारी बदल दी और पूरी की पूरी खेप ही तृणमूल में चली आई।
जंगीपाड़ा बाजार के सीतापुर में माकपा का दफ्तर चुनाव के बाद हुई गुंडागर्दी और हिंसा का अब तक गवाह बना हुआ है। उसकी टूटी हुई खिड़कियां और दीवारें विपक्षी दल के लोगों द्वारा चलाई जा रही चाय की दुकानों और ठीहों के पीछे देखी जा सकती हैं। कुछ लोग खुलकर बात करते हैं कि उस वक्त कैसा गुस्सा पनपा था, जिसने इस हिंसा को अंजाम दिया।
यह गुस्सा दरअसल 34 साल के राज के दौरान माकपा के ठस ढांचे की सड़ांध से पैदा हुआ था। यह विडम्बना माकपा से जुड़े हर उस प्रतीक में नजर आती है, जिसे हिंसक भीड़ ने हमला कर के नष्ट कर डाला था। वही भीड़ जो इतने समय तक पार्टी को सत्ता में रखते आई थी, लेकिन अब फिरंट हो गई थी। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पार्टी ने ऊपर से लेकर नीचे तक आंतरिक लोकतांत्रिक प्रक्रिया को ही बंधक बनाया हुआ था, चाहे वे जिला स्तर के नेता हों, काडर या कार्यकर्ता। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हिंसा करने वाली भीड़ के लोग नए निजाम से ताल्लुक रखते थे या नहीं।
अपना नाम छुपाए एक अधेड़ कहते हैं, “हमें कभी भी वोट डालने नहीं दिया जाता था। किसी चुनाव से पहले बदमाश लोग हमारे गांव आ जाते थे, घरों में जबरन घुस जाते थे और हमें धमकाते थे कि अगर हमने मतदान केंद्र के आसपास फटकने की भी कोशिश की तो अंजाम बुरा होगा। जो इनकी बात नहीं मानता उससे बर्बर बरताव किया जाता।”
दरअसल, पार्टी के राज्य की सत्ता में आने के बाद गांव-कस्बों में मजबूत होते जाने के साथ ही ये आरोप लगने लगे थे कि वह बाहुबलियों, गुंडों और बदमाशों के सहारे चुनावों पर नियंत्रण करने की कोशिश कर रही है। कभी माकपा का गढ़ रहे तारकेश्वर के मकरार गांव में रहने वाले दीपक मैती कहते हैं कि वह जोसेफ स्टालिन की तानाशाही जैसा राज था। मैती (53) वामदल में हुआ करते थे और 1998 में तृणमूल बनने के बाद उसमें चले आए थे। वे कहते हैं, “अगर स्टालिन को पता चले कि उनके कामरेड यहां कैसी गतिविधियों में लिप्त थे तो वे कब्र में ही पहलू बदलने लगेंगे।”
वामदल कैसे भ्रष्ट होते गए, यह समझाते हुए मैती याद करते हैं कि माकपा जब सत्ता में आई तो उनकी उम्र 12 साल की थी। उन्होंने कहा “मैंने बीसेक साल में पार्टी को पकड़ा।” एक स्थानीय कॉलेज से अकाउंटेंसी में स्नातक की डिग्री लेने के बाद उन्हें फॉरवर्ड ब्लॉक के एक ग्राम पंचायत नेता ने अकादमिक कामों के लिए अपने यहां नौकरी पर रख लिया। वह बहुत पढ़ा-लिखा नहीं था। “उस वक्त वाम को जबरदस्त समर्थन हुआ करता था, क्योंकि लोग मानते थे कि वह गरीबों की मदद के लिए आई है। मैंने विचारधारा के नाम पर ही पार्टी ज्वाइन की थी।” पार्टी 1977 में राज्य की सत्ता में आई थी।
अस्सी और नब्बे के दशक में जिला और गांव के स्तर पर पार्टी में “गुंडा तत्वों का आना शुरू हो चुका था।” मैती बताते हैं कि उनका काम यह सुनिश्चित करना था कि पार्टी चुनाव जीतती रहे। वे कहते हैं, “ये लोग भाड़े पर लाए गए गुंडे और बदमाश थे जो पार्टी के लिए काम करते थे। उनका काम बस इतना था कि चुनाव से पहले घर-घर जाकर लोगों को धमकाएं कि अगर किसी ने मतदान केंद्र के पास फटकने या वोट देने की जुर्रत की तो अंजाम बुरा होगा।” वे बताते हैं, “अकसर वे सहज तरीके से लोगों से कहते-जाने की जहमत मत उठाना, हम तुम्हारा काम कर देंगे या फिर दबे-छिपे धमकी देते।” विरोध करने वाले को प्रताड़ित किया जाता था। अकसर ऐसे लोगों को उनके घरों से खींच कर बाहर लाया जाता और मारा जाता। मुझे यह सब पसंद नहीं आ रहा था। मेरे बदलते रुख को भांपकर मेरे कुछ पूर्व सहयोगियों ने मुझे डराया धमकाया। कुछ ने डंडे और कोड़ों से मेरी कई बार पिटाई भी की।”
मैती बताते हैं कि यह अपराधीकरण दूसरे इलाकों में भी फैलने लगा। वे कहते हैं, “ये बदमाश लोग गांव की औरतों और लड़कियों पर फब्तियां कसते और प्रताड़ित करते थे। वे शराब पीते, पत्ते खेलते और सड़क किनारे बैठकर भद्दी टिप्पणियां करते। वे वसूली करने लगे थे। वे अच्छे से जानते थे कि उन्हें कोई छू नहीं सकता, क्योंकि वे पार्टी के हैं।”
अगर जमीनी कार्यकर्ता और काडर ऐसा करते तो स्थानीय नेता उनकी ओर से अपनी निगाह फेर लेते थे। वे अपने अपराध करने में जुटे रहते थे। वे सरकारी योजनाओं, फंड और लाभ को अपने परिवार और रिश्तेदारों में बांटने में जुटे हुए थे। कोई इसमें एतराज करता तो उसे भुगतना पड़ता था। उसे उसके घर से बाहर निकाल लाया जाता था और परिवार के सामने खूब बेरहमी से मारा जाता था। अकसर ऐसा होता था कि दूसरी पार्टी को वोट देने वाले की उंगलियां या दूसरे अंग काट दिए जाते थे। राजनीति की बात आते ही लोगों के दिमाग में इतना डर पैदा हो जाता था कि कोई भी खुलकर कुछ बोलने की हिम्मत नहीं कर पाता था, बहस-मुबाहिसे की बात तो दूर रही। उसकी जान भी जा सकती थी। ऐसा हुआ है।”
वाम शासन के दौरान पुलिस आयुक्त रहे एक शख्स मानते हैं कि उस दौर में “भयावह” काम अंजाम दिए जाते थे। आउटलुक से बातचीत में वे कहते हैं, “इनमें से सभी कृत्य सामने नहीं आ पाते थे, क्योंकि उस वक्त एक तो मीडिया इतना नहीं था और दूसरे ये इलाके अकसर दूरदराज के होते थे।”
पार्टी को राज्य में एक दशक पूरा होते ही उसका हर संस्थान पर कब्जा हो गया-पुलिस, शिक्षा, प्रशासन और नौकरशाही सब जगह पार्टी के लोगों को भर दिया गया। एक पूर्व नौकरशाह कहते हैं, “इसने राज्य मशीनरी के कार्यबल को एक ऐसे समूह में बदल डाला, जिनकी किसी भी काम को लेकर पहली प्रतिक्रिया होती थी ‘नहीं।’ “उन्हें निकाला नहीं जा सकता था लिहाजा वे ज्यादा काम भी नहीं करते थे। लोकसेवा का जो भी काम वे करते बगैर रिश्वत लिए-दिए नहीं करते थे। माकपा के दौर ने राज्य में काम करने की संस्कृति को पूरी तरह नष्ट कर दिया।” इसके अलावा वामदलों की अगुआई में उसकी मजदूर यूनियनों की हड़तालों ने राज्य में श्रम की संस्कृति को चौपट कर दिया।
मजदूर संगठन का काम कम्युनिस्ट राजनीति का केंद्रीय तत्व है और गरीब किसानों व मजदूरों के साथ पार्टी की पहचान में यह एक निर्णायक कारक होता है, लेकिन इसने शहरी वोटर को पार्टी से दूर कर दिया। कांग्रेस के परंपरागत वोटर भी भ्रमित हो गए और इसी ने राज्य में पार्टी के साथ माकपा के गठजोड़ को प्रभावित किया। आगामी अप्रैल में जब हैदराबाद में माकपा की पार्टी कांग्रेस होगी तो एक अहम बहस इस बात को लेकर हो सकती है कि क्या पार्टी यूपीए-1 के दौर की तर्ज पर कांग्रेस के साथ दोबारा जा सकती है या नहीं। सीताराम येचुरी की अगुआई वाला पार्टी का एक धड़ा इसके पक्ष में है और बंगाल की माकपा में अधिकांश इस धड़े के साथ हैं। इनकी दलील है कि खोई हुई जमीन वापस पाने का यही एक तरीका है।
माकपा के अंदरखाने एक व्यक्ति ने आउटलुक को बताया, “कांग्रेस के साथ माकपा के होने के चलते ही तृणमूल अकेली रह गई। हमने जब समर्थन वापस लिया तो 2011 के विधानसभा चुनाव में दोनों का गठजोड़ हो गया, जिसने हमारी हार तय कर दी।”
जमीनी हकीकत इतनी आसान नहीं है। 2011 में ममता बनर्जी की जीत सिर्फ इसलिए नहीं हुई कि सब विपक्षी एक हो गए थे। चुनाव विश्लेषक यहां तक कहते हैं कि अगर कांग्रेस और तृणमूल साथ नहीं आए होते तब भी माकपा की हार ही होती। राजनीतिक विश्लेषक बिस्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं कि चुनाव केवल आंकड़ों का खेल होता है और 2011 में माकपा के पास आंकड़े नहीं थे। वे आउटलुक से कहते हैं, “अपने 34 साल के अबाध राज में इसने सायास या अनायास जनता के साथ जितनी ज्यादती की थी, उस नाते बहुत पहले उसका वोट खत्म हो गया था। ममता ने विकल्प दिया और एक सपना बेचा। लोगों ने खरीद लिया। उसने वामदलों के पारंपरिक वोटरों का वोट अपनी ओर खींच लिया, जिनमें शहरी बौद्धिक तबका भी था और गांव की जनता भी थी। कांग्रेस का समर्थन न होता तब भी तृणमूल जीत जाती।”
चक्रवर्ती की दलील है कि अगर तृणमूल अकेले लड़ती तब भी उसे स्पष्ट बहुमत आता चूंकि पार्टी को 197 सीटों का फायदा हुआ था जबकि वामदलों को 171 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा। पांच साल बाद यह दलील पुष्ट हुई जब ममता एक बार फिर वित्तीय घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद जीत गईं जबकि इस बार वामदल कांग्रेस के साथ थे।
इसका मतलब साफ है कि कांग्रेस और वामदलों का संयोजन अब कारगर नहीं रहा। ऐसा लगता है कि जनता अब माकपा को अपनी स्मृति से पूरी तरह बाहर निकाल फेंकने को उद्यत हो। वामदलों के कभी मजबूत गढ़ रहे इलाकों में आउटलुक की यात्राओं से यही संकेत निकल रहा है। हुगली के तारकेश्वर में कम्युनिस्टों का 1977 से 2011 तक अबाध राज रहा। ममता ने इस पर पूर्ण विराम लगा दिया। आज तारकेश्वर में घूमते वक्त आपको वाम अतीत का एक भी प्रतीक नजर नहीं आएगा। हवा में फड़फड़ाते अधिकतर झंडे सत्ताधारी तृणमूल के ही हैं।
वामदलों के सबसे ताकतवर आधारक्षेत्र बर्दवान में अब बंद हो चुके माकपा कार्यालय के बाहर टहल रहे युवाओं का एक समूह बिना पूछे खुद ही माकपा के विलुप्त होने की कहानी सुनाता है। ये सब लड़के पहले माकपा के काडर होते थे। इनमें एक लड़का साजिशन ढंग से कहता है, “हम लोग कहीं नहीं गए, हमने बस रंग बदल लिया है।”
यहां “गिरगिटों की ऐसी कई श्रेणियां हैं। हम में से कुछ लोगों ने विपक्षी पार्टी की पेशकश आते ही पार्टी छोड़ दी थी, क्योंकि हमसे वादा किया गया था कि अगर वे सत्ता में आए तो हमें बेहतर लाभ देंगे। दूसरे लोग केवल इसलिए साथ आ गए क्योंकि वे वक्त के साथ चलना चाहते थे, पीछे छूटना नहीं चाहते थे।”
एक निवासी कहता है कि सत्ताधारी पार्टी के साथ रहने में आपके पास “ज्यादा अवसर” होते हैं। वह कहते हैं, “अधिकतर लोग संकेतों का इंतजार करते हैं कि जो पार्टी ज्यादा लोगों का शिकार कर रही है चुनाव वही जीतेगी। मैं ऐसे ही एक समूह से आता हूं।” कुछ और लोग वे हैं जो अपनी जान के खतरे के डर से पाला बदल लिए लेकिन दिल में उनके अब भी माकपा ही बसती है। “जो लोग धमकियों के बावजूद माकपा के साथ बने रहे, उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योकि वे वास्तव में पार्टी की विचारधारा में आस्था रखते हैं या फिर उन्हें पाला बदलने के साथ कायर कहलाने में शर्मिंदगी महसूस होती है। हम में से हालांकि अधिकतर लोगों को इस बात को स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं कि हवा जिधर की होगी, हम उधर ही चल देंगे।”
शाम ढलते ही मलिक अंगारों को हवा देना बंद कर देते हैं। चूल्हे की आग धीरे-धीरे बुझ जाती है। उनकी दुकान का एक नियमित ग्राहक चाय की चुस्की लेते हुए तकरीबन उद्घाटन करने के लिहाज से धीरे से कहता है, “देखिए, कम्युनिस्ट कहीं गायब नहीं हुए हैं। वे अब भी यहीं कहीं हैं, बस उन्होंने वर्दी बदल ली है।” ऐसा कहते ही वह एक असहज और धीमी हंसी हंस देता है। साफ है कि उसे सियासी चर्चा से डर लगता है। स्थानीय लोग कहते हैं कि यहां राजनीति पर बात करना बहुत संवेदनशील मामला है। बहस गरम हो जाए तो मारकाट भी हो सकती है। उसे बोलता देख उसका एक साथी जिसका सिर कोहरे में छुपा है और जिसके देह पर मटमैले रंग की शॉल है, उसे घूरते हुए असहमति-सी जाहिर करता है। फिर वह अपनी पैंट की जेब से कुछ सिक्के निकालकर काउंटर पर फेंक देता है और दोनों चांद की रोशनी में जंगल के रास्ते धुंध में कहीं गायब हो जाते हैं। उसके जाने पर मधु धीरे से कहते हैं, “दोनों कामरेड थे। अब वे सत्तारूढ़ पार्टी के लिए काम करते हैं।”