करीब 18 साल पहले अस्तित्व में आए झारखंड की राजनीति जैसे 16 साल पीछे चली गई है। मुद्दा वही, पार्टी वही, कहानी भी उसी तरीके से बढ़ रही है, बस किरदार बदले हुए हैं। 2000 में बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व में राज्य में पहली भाजपा सरकार बनी। अगस्त 2002 में यह सरकार डोमिसाइल नीति लेकर आई, जिसे हाइकोर्ट ने असंवैधानिक बताकर खारिज कर दिया था। इस नीति के तहत तीसरी और चौथी श्रेणी की सरकारी नौकरियों के लिए वे ही लोग योग्य माने गए थे जिनके पूर्वज 1932 के पहले से झारखंड में बसे थे।
बाबूलाल मरांडी के जमाने में कहा जाता था कि तीन राय (सरयू राय, रवींद्र राय और मंजू राय) सरकार चलाते हैं। बाद में इन्हीं में से एक सरयू राय ने असंतोष को हवा दी और आखिरकार मार्च 2003 में मरांडी को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। इस घटना के बाद मरांडी के भाजपा से मतभेद इतने गहरे हो गए कि उन्होंने सितंबर 2006 में नई पार्टी झारखंड विकास मोर्चा का गठन कर लिया।
अब 2014 में मुख्यमंत्री बने रघुवर दास के दौर में स्थानीयता और जमीन हस्तांतरण को लेकर खलबली है और इस बार भी असंतोष के झंडाबरदार वही सरयू राय हैं, जो फिलहाल राज्य के खाद्य आपूर्ति मंत्री हैं। कयास लगाए जा रहे हैं कि राय मंत्री पद से इस्तीफा देकर असंतुष्ट विधायकों की कमान संभाल सकते हैं। हालांकि, राय ने आउटलुक को बताया, “नीतिगत मसलों पर मेरे मतभेद रहे हैं। लेकिन, मैं न तो असंतोष को हवा दे रहा हूं और न असंतुष्ट विधायक मेरे संपर्क में हैं। मैं ऐसा कोई फैसला नहीं लूंगा जिससे पार्टी को नुकसान पहुंचे।”
राय ने 31 जनवरी को मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर खुद को संसदीय कार्य मंत्री के पद से मुक्त करने को कहा और चारा घोटाला में लापरवाही बरतने को लेकर विवादों में आई राज्य की मुख्य सचिव राजबाला वर्मा (28 फरवरी को रिटायर होना है) के खिलाफ जांच की मांग की। राय को अगले ही दिन संसदीय कार्य मंत्री के पद से मुक्त कर दिया गया।
असल में भाजपा में कलह की शुरुआत 2016 में हुई, जब रघुवर सरकार ने नई स्थानीयता नीति लागू की और छोटानागपुर टेनेंसी (सीएनटी) एक्ट और संथाल परगना टेनेंसी (एसपीटी) एक्ट में संशोधन की पहल की। आजादी से पहले के इन दो कानूनों के कारण आदिवासियों की जमीन का हस्तांतरण संभव नहीं है। इनमें संशोधन करके कॉरपोरेट तक को जमीन हस्तांतरण को संभव बनाया गया था। राजभवन से बिल लौटाए जाने के बाद अब सरकार इस दिशा में आम सहमति बनाने की कोशिश कर रही है। इस तरह के प्रयास स्थानीयता नीति को लेकर भी जारी हैं। सत्ताधारी भाजपा के 24 विधायकों ने इस नीति का विरोध किया था।
राय के खुलकर सामने आते ही विधानसभा चुनाव हारने के बाद से अलग-थलग पड़े पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा भी सक्रिय हो गए हैं। वे कहते हैं कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को सभी मामलों की जानकारी है और सही समय पर इस संबंध में फैसला लिया जाएगा। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि इस असंतोष के बहाने मुंडा दबाव बनाकर खुद का राजनीतिक पुनर्वास चाहते हैं।
एक भाजपा विधायक ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया, “राजबाला वर्मा सख्त अधिकारी मानी जाती हैं। सड़क निर्माण विभाग की सचिव रहते हुए उन्होंने बहुत अच्छा काम किया था। उनको सेवा विस्तार मिलने की संभावना को समाप्त करने के लिए जान-बूझकर विवाद पैदा किया गया, क्योंकि पार्टी के कुछ नेताओं को लग रहा है कि मुख्य सचिव उनकी नहीं सुनती हैं।” लेकिन, संकट केवल भाजपा के भीतर ही नहीं है, उसके सहयोगी भी असंतुष्ट हैं। जदयू के प्रदेश अध्यक्ष जलेश्वर महतो ने बताया कि राज्य सरकार किसी मसले पर उनकी पार्टी से राय-मशविरा नहीं करती।
तेजी से बदलते घटनाक्रम के बीच प्रदेश में विपक्षी दलों का महागठबंधन बनाने के प्रयास भी तेज हो गए हैं। इस कोशिश में लगे पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी कहते हैं, “इस सरकार का शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी जरूरी चीजों पर ध्यान नहीं है। कॉरपोरेट को लुभाने के लिए सरकार समाज को बांटने का काम कर रही है। स्थानीयता की परिभाषा तय करते-करते ऐसे प्रावधान कर दिए जिससे 13 जिलों में कोई भी नौकरी पा सकता है, जबकि 11 जिलों में वहीं के लोगों को नौकरी मिलेगी। आज नारा लग रहा ‘11 जिला झारखंडवासी-13 जिला भारतवासी’। भाजपा विधायकों से लोग सवाल करने लगे हैं। इससे पार्टी में फूट की नौबत पैदा हो गई।” वहीं, जानकारों का मानना है कि रघुवर दास की कुर्सी को कोई खतरा नहीं है। अब नजरें मार्च में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के संभावित दौरे पर टिकी हैं।