युवा लेखकों की सेना साहित्य के समर में अपने शब्द रूपी हथियार के साथ मौजूद है। किसी के वाक्य घायल करते हैं, किसी के शीर्षक मोह लेते हैं, किसी का कथ्य चौंकाता है तो कोई कहन में मात दे देता है। इस पूरी पीढ़ी को देखकर आश्वस्ति होती है कि ‘हिंदी साहित्य में सन्नाटा’ की चिंताएं और बहसें कुछ थम सकती हैं क्योंकि पॉपुलर साहित्य में ही सही बड़े पैमाने पर युवा लेखकों की सक्रियता एक नया पाठक वर्ग तैयार कर रही है। विषयों किस्सागोई में भी एकदम नया अंदाज देखने को मिल रहा है। युग बदला है तो जाहिर-सी बात है विषय भी बदलेंगे। नए विषयों को तो नए ढंग से कहा ही जा रहा है लेकिन पुराने विषयों को भी इस तरह से कहा जा रहा है कि पाठकों के पास इन किताबों में खो जाने के सिवा कोई और चारा नहीं है।
युवा लेखक सिर्फ प्रेम के संघर्ष की कहानियां ही नहीं लिख रहे हैं बल्कि ऐसे विषय भी उठा रहे हैं जिन पर बात करना वर्जना माना जाता था। बेशक यह पापुलर साहित्य है लेकिन इसने गंभीर साहित्य के साथ-साथ अपनी जगह बना ली है। भगवंत अनमोल ने अपनी किताब जिंदगी 50 50 में किन्नरों की व्यथा को लिखा और सबसे अच्छी बात है कि भाषण या समाज को धिक्कारे बिना उन्होंने सिर्फ परेशानियां रखीं। किन्नर का भाई और बाद में किन्नर का पिता होने की कहानी वाली इस किताब में प्रेम भी है और वह भी एक संदेश देता है कि आत्मिक सुंदरता शारीरिक सुंदरता से कहीं बेहतर होती है। वहीं नीलोत्पल मृणाल डार्क हॉर्स और शशिकांत मिश्रा नॉन रेजिडेंट बिहारी में आइएएस बनने आए प्रतिभागियों की बात करते हैं। एक ही विषय पर लिखे गए दो उपन्यासों में सिर्फ विषय की समानता के अलावा कुछ भी समान नहीं है। नीलोत्पल भाषा के साथ दो-दो हाथ करते हैं और मारक बातें भी हल्के-फुल्के अंदाज में कह कर आगे बढ़ जाते हैं, पीछे छोड़ जाते हैं पाठक को उन विचारों में डूबे हुए, जो कभी व्यवस्था पर दुखी होता है तो कभी आसमान छूती इच्छाओं पर। युवा लेखकों के पास विषय भी नए हैं और कहने का ढंग भी।
नए विषय कितने भी आ जाएं लेकिन यह सच है कि प्रेम साहित्य का स्थायी दोस्त है। यदि यह दोस्ती टूट जाएगी तो संभव है कुछ पाठक भी रूठ जाएं। हर लेखक अपना एक अलग पाठक वर्ग तैयार करना चाहता है। नए लेखक जानते हैं कि सभी को साध कर चलना आज के दौर में नामुमकिन भले ही न हो पर कठिन है। किशोर चौधरी के पाठक उनकी प्रेम कहानियों का इंतजार करते हैं। कहानी पुरानी है लेकिन किशोर चौधरी के पाठक तीन कहानी संग्रह आ जाने के बाद भी उनके अनूठे शीर्षक और जादुई यथार्थ से भरी कहानियां भूल नहीं पाते हैं। किशोर चौधरी को एक ही बात कहने के चार ढंग आते हैं। और उनकी यही शैली उनकी लोकप्रियता की वजह भी है। विवाहेतर संबंध पर लिखी सैकड़ों कहानियों से अलग उनकी कहानी ‘खुशबू बारिश की नहीं मिट्टी की है’ में वह पति-पत्नी के बीच आई दूरियों और किसी ‘तीसरे’ की उपस्थिति को ऐसे बताते हैं जैसे रेतीले ढूहों में कोई प्यासा पानी खोज ले। यह उनके कहन का ही कमाल है कि उनके पहले कहानी संग्रह चौराहे पर सीढ़ियां के बाद जादू भरी लड़की और छोरी कमली को पाठकों ने उतना ही प्यार दिया। किशोर चौधरी अपनी कहानियों में विषयों को ऐसे संवारते हैं जैसे कोई मां अपने बच्चे को संवारती है।
नए विषयों के साथ-साथ नए ढंग से कहना भी साहित्य में अब जरूरी होता जा रहा है। हिंदी साहित्य की टक्कर हिंदी से नहीं बल्कि अंग्रेजी से भी है। किसी जमाने में भारतवंशी झुम्पा लाहिड़ी और किरण देसाई का नाम था और अब हाल यह है कि खालिस भारतीय लेखकों अमीश त्रिपाठी और चेतन भगत ने भारत में अंग्रेजी की संभ्रांत दुनिया की ऊपरी परत को उखाड़ कर वहां हिंदी वालों के लिए भी दूब उगा दी है। जरा भी अंग्रेजी समझने वाले जब भगत और त्रिपाठी के शरणागत हुए तो दिव्यप्रकाश दुबे, सत्य व्यास, निखिल सचान, प्रचंड प्रवीर, भगवंत अनमोल, नीलोत्पल मृणाल, किशोर चौधरी, विवेक मिश्र, प्रियंका ओम और दिव्या विजय जैसे लेखक मैदान में आ गए, जो देसी, खांटी विषयों को अपनी ही भाषा में परोसने लगे।
इस पीढ़ी ने बताया कि फर्स्ट हैंड कहानियों की अंग्रेजी में जुगाली करने के बजाय अच्छा है सीधे हिंदी में इसका मजा लिया जाए। नीलोत्पल मृणाल यूपीएससी की तैयारी से जूझ रही पिछली और नई पीढ़ी के बीच इतनी खूबसूरती से संतुलन साधते हैं कि लगता है उनका ‘डार्क हॉर्स’ हर वो व्यक्ति है जो इसे पढ़ रहा है और दिल्ली के मुखर्जी नगर की दुनिया हर किसी के मन में बसी है। बस कुछ लोग वहां तक जा पाए हैं और कुछ नहीं। नीलोत्पल अपने लेखन में जितने मुखर हैं, उतने ही कलम की दुनिया के बाहर भी। वह कहते हैं, “हिंदी लेखक की माली हालत खराब रहती है। समाज चाहता है, लेखक कालजयी रचें। लेकिन जब कोई व्यक्ति रोजी-रोटी के लिए दस घंटे लगा देगा तो वह कालजयी नहीं रच सकता। जिस दिन समाज लेखक से पूछता है, आजीविका कैसे चलती है उसी दिन समाज साहित्यकार को खो देता है।” लेकिन कई परिवार हैं जो क्लास में अच्छी रैंकिंग से ऊपर साहित्य को भी तरजीह देते हैं। फिलवक्त तंजानिया में रहने वाली प्रियंका ओम उन्हीं में से एक हैं। अपने दूसरे कहानी संग्रह मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है से उन्होंने पाठकों के साथ आलोचकों का भी ध्यान खींचा है। शुरुआती दिनों में वह अंग्रेजी में लिखा करती थीं लेकिन अफ्रीकी देश में रहते हुए उन्हें लगा कि जब वहां के लोगों को अपनी भाषा से इतना प्रेम है तो फिर वह अपनी भाषा छोड़ कर अंग्रेजी के प्रेम में क्यों पड़ें। प्रियंका की भाषा और कथ्य दोनों में ताजगी दिखाई देती है। वह कहती हैं, “पहले नायिकाएं प्रेम में कमजोर पड़ जाया करती थीं लेकिन अब रोती बिलखती नायिकाओं की जगह निर्णय लेती नायिकाएं उभर आई हैं।”
सभी नए लेखकों की स्त्री पात्र निर्णायक ढंग से साहित्य में मौजूद हैं। इन लेखकों को अपने पाठक वर्ग की चिंता है भी और नहीं भी। ये लोग बस कहानी कहना चाहते हैं, नए तरीके से नए विषयों की। किशोर चौधरी कहते हैं, “मुझे अपने आस-पास संबंधों में हताशा, अवसाद, बिखराव और नैराश्य दिखता है तो लगता है कि ये मैं भोग रहा हूं। इन अनुभूतियों से मुक्ति के लिए कहानी लिखता हूं। हमारे आसपास के लोग जो भोग रहे हैं उस छल-कपट, धूर्तता, सादगी, प्रेम और नफरत को कहानी बिना लाग-लपेट सब कुछ साफ-साफ कह दे, मुझे ऐसी कहानियां ही पसंद हैं। मेरे दिमाग में कोई लक्षित पाठक वर्ग कभी रहा ही नहीं क्योंकि मैं लिखकर कुछ बदलने, प्रभावित करने या बनाने के बारे में नहीं सोचता हूं।”
सत्य व्यास कभी नहीं सोचते कि वह खास वर्ग के लिए ही लिख रहे हैं। उनकी किताबें युवा और अधेड़ दोनों वर्गों में समान रूप से लोकप्रिय रहती हैं। वजह सिर्फ इतनी है कि वह कंटेंट की पीठ पर ‘बौद्धिकता’ नहीं लादते। बनारस टाकीज पढ़ने वाले को अपने विश्वविद्यालय के दिन याद आ जाते हैं तो दिल्ली दरबार पढ़ने वाले को मलाल रहता है कि उसने ऐसा क्यों नहीं किया! ऐसा नहीं है कि सभी नए जमाने और शहरी लोगों के लिए लिख रहे हैं। प्रवीण कुमार जब अपने पहले कहानी संग्रह छबीला रंगबाज का शहर को लेकर आते हैं तो उस कैनवास पर इतने रंग दिखाई पड़ते हैं कि पाठक उनकी विविधता पढ़ कर दंग रह जाते हैं। प्रवीण शहर के बदलने और गांव के गुम हो जाने के बीच पाठकों को खड़ा कर देते हैं। उनकी कहानी चिल्लैक्स! लीलाधारी कहने को तो प्रेम कहानी है लेकिन यह जैसे-जैसे आगे बढ़ती है इसके कहन का ढंग पाठकों को सम्मोहित करता चलता है।
नई पीढ़ी को सिर्फ प्रयोगधर्मी कह कर इतिश्री नहीं की जा सकती। ये वो लेखक हैं जो भाषा के साथ फुसलाकर चल नहीं देते। ये कथ्य का जोखिम उठाते हैं और कहन पर किसी की दाद का इंतजार नहीं करते क्योंकि उन्हें पता है, सोशल मीडिया के इस दौर में हर दिन कुछ नया है जो छपते-छपते पुराना लगने लगेगा। वे महान होना नहीं चाहते, क्योंकि उनकी नजरों में लोकप्रिय होना भी बुरी बात नहीं है।