अगर आलोचना की प्रचलित शब्दावली से अलग कृष्णा सोबती के बारे में सोचना हो तो जो शब्द जेहन में पहले पहल आते हैं वे हैंः गूंथ, जोड़, प्रवाह, लय। उनका कथा-संसार शुरू से ही स्मृतियों और कड़वी सच्चाइयों, अंतर्भेदी मर्म और पीड़ा, सहज उल्लास और जटिल अनुभव, भाषा और बोली को लगातार एक बहुत ऊर्जस्वित वितान में गूंथता रहा है। यह उनके स्त्री होने के कारण सहजता से भले आता हो, अपने पैटर्नों और संग्रथन में है बहुत कठिन। वे जटिलता को सहजता से और आत्मविश्वस्त उत्साह से गूंथनेवाली लेखक हैं। उनके यहां सूक्ष्मता और जटिलता दोनों को ऐसे गूंथा जाता है कि सूक्ष्मता होशियारी या चतुराई नहीं लगती और जटिलता लगभग अनिवार्य और संप्रेषणीय। वे कई बार एक नदी की तरह उच्छल और अहरह लगती हैंः वह लगातार बहती रहती हैं, अपने तटों को जब-तब वेग से तोड़ी हुई, सब कुछ अपने में धारण कर बहाती हुई, हमारे समय और समाज के कचरे को भी, जो लगातार बढ़ता जाता है और कई बार लगता है कि उस कचरे से साहित्य के अलावा कोई और नहीं निपट रहा है।
कृष्णा जी ने अपने रचे-बनाए कथा-संसार में बहुत कुछ को जोड़ा और बांटा है। वे सब कुछ अनिवार्य मानकर उसे स्वीकार नहीं करतीं। उनके पास गहरा नैतिक बोध है और लेखकीय जिम्मेदारी का चौकन्ना एहसास भी। वे इस अर्थ में समावेशी हैं कि कई परस्पर विरोधी या असंगत लगते अनुभवों को साथ लेती चलती हैं। लेकिन उनको सब कुछ स्वीकार्य नहीं है। जो कुछ है उसमें से चुनना और खारिज करने का विवेक और साहस दोनों चाहिए। दशकों में फैला उनका लेखकीय आचरण स्पष्ट करता रहा है कि उन्हें क्रूरता और हिंसा, धर्मान्धता और सांप्रदायिकता, बाजारूपन और रूढ़िवादिता, सत्ता का रौब और अहंकार, विचारधाराओं की संकीर्णता सिरे से स्वीकार्य नहीं है। वह जो मानवीय है, जो विडंबनाओं से भरे होने के बावजूद अपने होने पर इसरार करता रहता है वही उनकी नजर में दर्ज करने के काबिल है। कृष्णा जी ने शुरू से ही मानवीय बिरादरी, सहकार और संवाद दूसरों को बांटने की चेष्टा की है। वे हमारे समय में लगातार संकटग्रस्त मानवीयता की गाथाकार हैं। यह गाथा उनकी कहानियों और उपन्यासों में लगातार विन्यस्त हुई है। यह कहना सर्वथा उचित है कि कृष्णा सोबती हमारे उलझे समय के गद्य में अप्रतिम महाकाव्यकार हैं।
यह महाकाव्य-दृष्टि जीवन में अब भी संभव कोमलता, लगाव, गरमाहट, लालसा, उत्कंठा, प्रेम आदि को पूरी जगह देती है। एक तरह से उसका लक्ष्य इस संभावना को लगातार मानवीय स्थितियों और संबंधों में खोजना और जिलाए रखना है। यह दृष्टि भाषा के अनेक साधनों का सुघड़ और कल्पनाशील उपयोग कर जीवन की उदात्तता पर बल देती है। हमारी अदम्य जिजीविषा पर भी। कृष्णा जी के यहां साधारण की अघोषित पर अटूट, अनाटकीय पर अनिवार्य महिमा और गरिमा है। उनकी दृष्टि इस गरिमा और महिमा का ही महाकाव्यात्मक वितान गूंथती, जोड़ती और बांटती है।
कृष्णा जी को पढ़ना प्रवाह में बहने जैसा है, वह निरंतर हमें नए-नए मुकामों पर ले जाता है और हमें अपनी और दूसरों की निपट मानवीयता पहचानने, महसूस करने का न्योता देता है। यह एक ऐसा भवसागर है जिसे पार कर मुक्ति नहीं मिलना है। इस भवसागर में और अधिक मानवीय होने में ही मुक्ति है। उनकी भाषा में अद्भुत लय है। हम कम गद्यकारों की भाषा में ऐसी लयात्मकता पाते हैं जैसी कृष्णा जी के यहां है। उनका प्रवाह ऐसा है कि उसमें लय-विलय की जुड़वां विन्यस्ति अबाध चलती है। इस जीवन-लय में, जो अपनी भाषिक संरचना में तरह-तरह से प्रगट होती है, जीवन का, उस मानवीयता का जो इस लय को पकड़ और सहेज पाती है वही सत्यापन है।
कृष्णा जी द्वारा चित्रित और गढ़ी गई स्त्रियां बेबाक, स्वाभिमानी और साहसी हैं। वे स्त्रीत्व का सत्यापन प्रतिरोध, साहस से करती हैं, अस्वीकार और जोखिम से, बजाय किसी तरह की लाचार स्वीकृति या निरुपाय समर्पण के। उल्लेखनीय है कि ये चरित्र साधारण जीवन से तब उठाए-रचे गए जब हिंदी में स्त्री विमर्श का वैसा बोलबाला नहीं था जैसा आज है। दरअसल छायावादी कवि-चिंतक महादेवी वर्मा के बाद हिंदी में स्त्री की निर्भीक, स्वाभिमानी और दुस्साहसी उपस्थिति कृष्णा सोबती के यहां ही रही है।
अपने समकालीनों और युवतर लेखकों को याद करने में भी कृष्णा जी का सानी नहीं है। अक्सर संस्मरण दिवंगतों के लिखे जाते हैं, कृष्णा जी ने इसके ठीक उलट जीवित लेखक-सहचरों के संस्मरण तीन जिल्दों में हम हशमत नाम से लिखे हैं। इन निबंधों से बखूबी जाहिर होता है कि चकाचौंध और लेखकीय संघ-सम्मेलनों से दूर रहकर भी उनकी लेखकीय बिरादरी में कितनी गहरी पैठ है।
लोकतंत्र में लेखकीय स्वाभिमान पर अपने आचरण से शायद सबसे अधिक आग्रह कृष्णा जी ने ही किया है। वे लेखक को लोकतंत्र का एक सजग नागरिक मानती रही हैं, न उससे कम, न ज्यादा। उनसे अधिक शायद ही किसी लेखक ने लेखकीय उपलब्धि को सरकारी मान्यता और पुरस्कार से ऊपर और परे माना हो। उन्होंने दिल्ली सरकार के शलाका सम्मान और भारत सरकार के पद्मभूषण को लेने से बिना किसी हिचक के इनकार किया है। जब कुछ लेखकों ने वर्तमान समय में बढ़ती असहिष्णुता और सत्ता को उसका मूक समर्थन मिलने पर विरोधस्वरूप अपने पुरस्कार वापस किए तो उन्होंने साहित्य अकादेमी की महत्तर सदस्यता लौटाई। लगभग 93 वर्ष की आयु में मिले भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार को स्वीकार करते हुए उन्होंने आग्रह किया है कि यह पुरस्कार उन जैसे अति वरिष्ठ लेखकों को देने के बजाय उन युवतर लेखकों को दिया जाना चाहिए जिनकी उपलब्धि इसकी सर्वथा सुपात्र है।
कृष्णा जी ने यह भी कहा, “राजनीतिक संस्कृति का पर्यावरण जो भी हो, शब्द-संस्कृति को अपनी मानसिक जलवायु की सुरक्षा करनी होगी। सियासी राजनीतिक दलों और खेमों में हेर-फेर, उठा-पटक, ऊंच-नीच, जो भी होता रहे, लेखक को अपनी कलम धो-पोंछकर पन्नों पर पाठ की प्रतिष्ठा करनी होगी। शब्द-संस्कृति की सुरक्षा करनी होगी। आस-पास के दल और उसके भंवर-जाल शब्दों और पंक्तियों को बरगला न दें। लेखक की साधारण, छोटी-सी दिखने वाली हस्ती जो अपने में न जाने कितनी संज्ञाएं छिपाए रहती है वह किस-किस से आक्रांत नहीं है? मगर क्यों?”
क्या लेखक इस घेरेबंदी में ‘साधन-संपन्नता, सहयोग’ के चलते, सक्रियता में जमकर अपने रचनात्मक वैभव को बचा सकता है?
खतरा यह भी है कि लेखक अपनी टकसाल से क्या वही निकालेगा जो राजनीति के एजेंडा और इलेक्ट्रॉनिक भोंपू उगल रहे हैं। यह राजनीति के खिलाफ नहीं, लेखकों के हक में कहा जा रहा है। उपभोक्तावाद के इस स्वर्णिम युग में जहां साधु-संन्यासी, ज्योतिषी, तांत्रिक, डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, मैनेजर बनकर अपने मंत्र-तंत्र और कार्यशीलता को प्रवाहित करते हैं, वहां लेखक को पुचकारने के लिए, उसे उसके स्थान पर रखने के लिए कुछ ऐसा क्यों किया जाता है कि हमारी प्राचीन आचार-संहिता के अनुरूप लेखक बेचारा बनकर वहीं टिका रहे जहां पर पुराने वक्त में था। आज साहित्य सांस्कृतिक और सामाजिक रूप में बड़ा व्यावसायिक उद्योग भी है। इसे क्या हम याद रखना पसंद करेंगे?
एक ऐसा बौद्धिक उद्योग जो ‘सत्य’ की उपभोक्तावादी राजनीति से घिरा है। हम न भूलें कि संस्कृति भी एक विशाल सांस्कृतिक धंधा है। इसमें वह सब कुछ है जो किसी भी धंधे में मौजूद होता है। हम सभी जानते हैं कि लगभग सारी राजनीति, चाहे उसका बैनर कुछ भी हो, ‘सत्य’ के नाम पर ही चलाई-बनाई जाती है। इसका व्यापार किया जाता है। राजनीति की भाषा में सच्चाइयों की कभी कमी नहीं।
लोक का सत्य, व्यवस्था का सत्य, आंकड़ाेें का सत्य, झूठ की मुखालफत का सत्य, झूठ के पसीजने का सत्य और उच्च सत्य से फूटते अर्ध-सत्य।
इन छोटे-बड़े ‘सत्यों’ की सूची में से उभरकर आता है, इतिहास का ‘सत्य’। इतिहास की दस्तावेजी प्रामाणिकता से छेड़छाड़ किए बिना भी लेखक-साहित्यकार सीधे जन-साधारण तक पहुंचता है और लगभग ‘जन’ मन की खोज में वह ढूंढ़ लाता है जो इतिहास नहीं है और इतिहास है भी।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं )