क्या हिंदी के लेखक संगठनों और संस्थाओं में महिलाएं, अल्पसंख्यक और दलित शुरू से ही हाशिए पर रहे हैं? अगर इन संगठनों और संस्थाओं का इतिहास देखा जाए तो यह बात सही लगती है। अब जब समावेशी विकास की चर्चा है तो साहित्य को भी समावेशी होना ही होगा। अपनी स्थापना के 35 साल बाद जनवादी लेखक संघ किसी मुस्लिम लेखक को अपना अध्यक्ष बना पाया है। इसी तरह प्रगतिशील लेखक संघ ने करीब 80 साल बाद किसी मुस्लिम लेखक को अपना महासचिव बनाया था। जनसंस्कृति मंच तो आज तक किसी अल्पसंख्यक को अपना अध्यक्ष या महासचिव नहीं बना सका। जहां तक महिलाओं और दलितों की बात है, इन तीनों लेखक संगठनों ने इनमें से किसी को राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं बनाया।
पिछले दिनों जलेस ने अपने धनबाद सम्मेलन में हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार, उपन्यासकार और नाटककार असगर वजाहत को अपना नया राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया। हिंदी के प्रसिद्ध लेखक दूधनाथ सिंह के निधन के कारण अध्यक्ष पद रिक्त हुआ था। असगर वजाहत के अध्यक्ष बनने से एक अच्छा संदेश समाज में गया है, खासकर ऐसे वक्त में जब देश में अल्पसंख्यकों को लगातार निशाना बनाया जा रहा है और नफरत फैलाई जा रहा है। असगर साहब हिंदी के ऐसे लेखक हैं जो दोनों कौमों के बीच सद्भाव, शांति, भाईचारे की बात करते रहे हैं और आज जो कुछ हो रहा है, उससे चिंतित रहे हैं। उन्हें फेसबुक पर अमूमन हिंदू कट्टरपंथियों का निशाना बनना पड़ता है। उन ताकतों को नहीं मालूम कि असगर साहब तुलसीदास पर इन दिनों एक नाटक भी लिख रहे हैं और उनका मशहूर नाटक जिस लाहौर नइ वेख्या ओ जम्याई नइ भारत-पाकिस्तान दोनों मुल्कों की जनता की इंसानियत और मोहब्बत की मिसाल बन गया है।
लेकिन प्रश्न यह है कि जलेस को अपनी स्थापना के 35 साल बाद किसी मुस्लिम लेखक को अध्यक्ष बनाने का ख्याल क्यों आया? हिंदी में राही मासूम रजा से लेकर गुलशेर खान शानी, बदीउज्जमा, अब्दुल बिस्मिल्लाह, असद जैदी जैसे लेखक रहे हैं जो जनवादी मूल्यों में आस्था रखते रहे। प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) में गुलाम रब्बानी ताम्बां जैसे लेखक अपवाद रहे, जो अध्यक्ष बनाए गए। सज्जाद जहीर ने जरूर प्रलेस की स्थापना की लेकिन आठ दशक बाद अली जावेद महासचिव बने। क्या उन आठ दशकों में कोई बड़ा मुस्लिम लेखक देश में पैदा नहीं हुआ, जो इसका नेतृत्व कर सके?
यही हाल इन लेखक संगठनों में लेखिकाओं के नेतृत्व और प्रतिनिधित्व का रहा। 1936 में प्रेमचंद ने अपने निधन से कुछ माह पूर्व प्रलेस का उद्घाटन किया था। उनकी पत्नी शिवरानी देवी, जो खुद एक लेखिका थीं, पति के निधन के बाद उन्हें मानद अध्यक्ष बनाने की कोई कोशिश नहीं हुई। अगर हुई थी और उन्होंने मना कर दिया हो तो यह शोध का विषय है। आजादी के समय और उसके बाद इस्मत चुगताई, कुर्तुल-ऐन-हैदर जैसी बड़ी, प्रगतिशील तथा प्रखर नारीवादी लेखिकाएं सक्रिय थीं लेकिन उन्हें प्रलेस का नेतृत्व करने का अवसर नहीं मिला।
अक्सर कहा जाता है कि लेखिकाओं को पारिवारिक जिम्मेदारियां निभानी होती हैं इसलिए वे नेतृत्व नहीं संभालती हैं लेकिन महादेवी वर्मा के पास तो परिवार की जिम्मेदारी नहीं थी और वे तो 82 वर्ष तक जीवित थीं, फिर उनको किसी संगठन ने मानद अध्यक्ष पद क्यों नहीं दिया? सुभद्रा कुमारी चौहान, चन्द्रकिरण सोनरेक्सा, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, कृष्णा अग्निहोत्री, गिरीश रस्तोगी, निर्मला जैन, मृदुला गर्ग, ममता कालिया, अर्चना वर्मा जैसी लेखिकाओं ने इन संगठनों का नेतृत्व क्यों नहीं किया? क्या इन संगठनों ने उनके लेखन और उसके मूल्यांकन में रुचि दिखाई? शायद नहीं, संगठनों में पितृसत्तात्मक ढांचा ऐसा रहा जिसके कारण उनकी भागीदारी कम रही। अपवाद में नमिता सिंह, रेखा अवस्थी और शुभा जैसी लेखिकाएं जलेस में सक्रिय रहीं लेकिन संगठन के भीतर तवज्जो उनके पति लेखकों को ही अधिक मिली। यही हाल जसम और प्रलेस का रहा। महाश्वेता देवी भी प्रलेस की अध्यक्ष हो सकती थीं लेकिन तब नामवर सिंह का उस संगठन पर कब्जा रहा।
संगठनों की ही नहीं, संस्थाओं की बागडोर भी पुरुषों के हाथ में रही। मैत्रेयी पुष्पा संभवतः पहली लेखिका हैं, जो दिल्ली हिंदी अकादमी की प्रमुख बनी हैं। साहित्य अकादेमी, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, मध्य प्रदेश साहित्य कला परिषद, भारत भवन जैसी अनेक संस्थाओं का नेतृत्व पुरुष ही करते रहे हैं। ओम प्रकाश वाल्मीकि, तुलसीराम जैसे लेखकों को इन संगठनों में उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला। शायद इन संगठनों की बेरुखी के कारण दलित लेखक संघ और महिला लेखक संघ बने। इन संगठनों में धीरे-धीरे वैचारिक कट्टरता बढ़ी और परंपरा से उनका रिश्ता टूटता चला गया।
कभी जैनेन्द्र, अज्ञेय, निर्मल वर्मा जैसे लेखक प्रलेस से जुड़े रहे लेकिन धीरे-धीरे अलग होते गए और इन संगठनों ने उन्हें याद करना भी मुनासिब नहीं समझा। अज्ञेय की जन्मशती पर जसम के अध्यक्ष एक समारोह में बोलने गए तो जसम के लोगों ने विरोध किया। जलेस ने अज्ञेय, जैनेन्द्र, धर्मवीर भारती, विजयदेव नारायण साही सबको विस्मृत करना शुरू कर दिया। इन तीनों संगठनों ने प्रेमचंद, निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और यशपाल को ही अपना प्रतीक बनाया और हिंदी की समृद्ध प्रगतिशील विरासत की अनदेखी की। यहां तक कि रामविलास शर्मा पर भी हमले किए।
इन वाम संगठनों के इस संकट के बीज देश के वाम आंदोलन के भीतर भी रहे, जिसमें स्त्रियों दलितों और अल्पसंख्यकों को उचित नेतृत्व और प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। लिहाजा, दलित उभार और स्त्री शक्ति उभार से ये संगठन खुद को जोड़ नहीं पाए। ये संगठन सांप्रदायिक तथा बाजार की ताकतों के खिलाफ भी एकजुट नहीं हो पाते। जयपुर लिट् फेस्ट के सामानांतर इन संगठनों ने अलग-अलग आयोजन किए पर संयुक्त समारोह नहीं कर पाए। तीनों संगठनों का नेतृत्व आपसी एकता के लिए तैयार नहीं होता। अगर वे अब भी सचेत हो जाएं तो अपनी लड़ाई तेज कर सकते हैं।
(लेखक कवि और वरिष्ठ पत्रकार हैं)