अगरतला से करीब 90 किमी दूर बेलोनिया कस्बे में लेनिन की मूर्ति का ढहना जैसे उस चुनावी मुहिम की परिणति का संकेत है जिसे भाजपा ने ‘चलो पालटाई’ (आओ बदलें) नारे के तहत शुरू किया था। हालांकि, नतीजे आने के महज अड़तालिस घंटे के भीतर ही बुलडोजर से मूर्ति ढहाने पर उठे बवाल के बाद भाजपा ने इसे ‘कुछ उपद्रवी तत्वों’ की करतूत बताकर इससे अपने को अलग कर लिया। लेकिन बहुतों को इसमें पूर्व सोवियत संघ के देशों में व्यवस्था परिवर्तन के नजारों की याद आ गई। यह उतना बड़ा परिवर्तन है कि नहीं इस पर दो राय हो सकती है लेकिन इसमें कतई संदेह नहीं कि इस परिवर्तन का देश की सियासत पर गहरा असर होने जा रहा है।
अगर इसे सरलीकरण न कहें तो कहा जा सकता है कि पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में भगवा रंग खिलने का फौरन असर हिंदी पट्टी की सियासत पर दिखा। कोई यह दलील दे सकता है कि नगालैंड और मेघालय में तो स्थानीय सियासी समीकरणों और केंद्र में सत्ता तथा प्रचुर संसाधनों का लाभ भाजपा को मिला लेकिन त्रिपुरा के मामले में शायद यह एक हद तक ही सही है। त्रिपुरा में वाम मोर्चा और कांग्रेस का ही अस्तित्व था, जो देश की मुख्यधारा की पार्टियां हैं यानी मुख्यधारा के वामपक्षीय मध्यमार्गी पार्टियों से तेजी से भाजपा बढ़त लेती जा रही है। शायद यह एहसास ही उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव के साथ बहुजन समाज पार्टी की मायावती को दो संसदीय उपचुनावों गोरखपुर और फूलपूर में एक मंच पर लाने की फौरी वजह बना। वरना मायावती अभी भी तय नहीं कर पा रही थीं कि सपा के साथ एक पाले में बैठने का क्या औचित्य है। इसका असर इसके तत्काल बाद होने वाले कर्नाटक के चुनावों में भी यकीनन दिखेगा। फिर इसी साल के अंत में होने वाले मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावों में भी दिख सकता है।
इस जीत से भाजपा का उत्साह बेशक दोगुना हो गया है। पूर्वोत्तर के नतीजों के जाहिर होने के दिन तीन मार्च को ही दिल्ली के भाजपा मुख्यालय में नेताओं और कार्यकर्ताओं के जमावड़े में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा भी, “जैसे वास्तुशास्त्र में उत्तर-पूर्व कोण शुभ माना है, उसी तरह पूर्वोत्तर की यह जीत हमारे लिए उत्साहवर्धक साबित होगी।” यही नहीं, उन्होंने अपनी पार्टी में भी विजय के सूत्रधार राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को अपरिहार्य बताया और कहा, “हम सबको उनके दिशानिर्देश का पूरी गंभीरता से पालन करना चाहिए।” संकेत उन नेताओं के लिए साफ था जो कुछ उदासीन या असंतुष्ट-से नजर आते हैं।
पूर्वोत्तर के नतीजे भाजपा में आए इस नए उत्साह के साथ सभी गैर-भाजपा दलों में जल्दीबाजी का भाव पैदा कर सकते हैं। उत्तर प्रदेश में मायावती के ऐलान के बाद फौरन अजित सिंह की अगुआई वाले राष्ट्रीय लोकदल ने भी दोनों उपचुनावों में सपा उम्मीदवारों को समर्थन का ऐलान कर दिया है। उत्तर प्रदेश ही नहीं, बाकी राज्यों में भी भाजपा विरोधी वोटों को एकजुट करने की कोशिशें तेज हो सकती हैं। मध्य प्रदेश के दो उपचुनावों में इस गणित पर भी चर्चा हुई कि अगर वहां बसपा ने अपने उम्मीदवार उतार दिए होते तो कांग्रेस की जीत का अंतर इतना कम नहीं होता। यानी बसपा के न होने से उसके वोट भाजपा की ओर चले गए। सो, कर्नाटक में भी एचडी देवेगौड़ा की जनता दल (एस) और बसपा के बीच बन रहा तालमेल कुछ और बड़ी शक्ल ले सकता है, अगर कांग्रेस में भी सियासी जल्दबाजी का एहसास घर कर जाए। यानी इन नतीजों का असर दोनों तरफ बराबर होता लगता है।
लेकिन आइए पहले यह देखें कि पूर्वोत्तर में आखिर कैसे पाला बदला। यह अब अनजाना नहीं है कि पूर्वोत्तर में भाजपा के प्रसार के शिल्पकार वही असम के महत्वपूर्ण मंत्री हेमंत बिस्वा सरमा हैं, जो 2014 लोकसभा चुनावों के पहले कांग्रेस से टूटकर अपने लाव-लश्कर के साथ भाजपा में आ जुड़े। इसके पहले उन्होंने ही अरुणाचल प्रदेश में लगभग पूरी कांग्रेस को भाजपा में बदलने और सरकार बनवाने में भूमिका निभाई। फिर मणिपुर में कांग्रेस के सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बावजूद भाजपा का गठजोड़ कायम कर दिया। अब मेघालय में वही नजारा दिखा। वहां कांग्रेस को 21 सीटें और भाजपा को 2 सीटें मिलीं मगर 19 सीटों वाली नेशनल पीपुल्स पार्टी के नेता कोनार्ड संगमा के साथ कुछ अन्य छोटी पार्टियों को मिलाकर एनडीए की सरकार बन गई। इसी तरह नगालैंड में भाजपा को महज 12 सीटें मिलीं लेकिन नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (19 सीटें) और कुछ अन्य के साथ मिलकर एनडीए की सरकार बन गई जबकि बहुमत से महज चार सीटें कम 27 सीटें पाकर नगा पीपुल्स फ्रंट दोबारा सरकार में नहीं आ सका।
यानी भाजपा के सूत्रधार विरोधी मतों का व्यापक मोर्चा बनाकर अपने पाले में लाने में सफल हुए हैं। यही रणनीति त्रिपुरा में भी कारगर हुई है जहां कांग्रेस के नेताओं और आदिवासी उग्र गुट इंडीजिनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा को साथ लेकर वाम मोर्चे को मात दी गई। वहां भाजपा के 35 विधायकों में 21 पूर्व कांग्रेसी हैं। हालांकि एक तथ्य यह भी है महज एक फीसदी वोटों के फेर से वाम गढ़ ढ़ह गया और भाजपा और माकपा के वोटों का फर्क तो महज साढ़े छह हजार के करीब ही है। अब सवाल है कि क्या भाजपा विरोध में ऐसा ही इंद्रधनुषी मंच बनाने की पहल दूसरी ओर से होगी। शायद पूर्वोत्तर के जनादेश का यही सबसे बड़ा संदेश है।