शनिवार दोपहर जब त्रिपुरा विधानसभा चुनाव के नतीजे आ रहे थे, उस वक्त मैं अगरतला में अपने एक मित्र प्रोफेसर के साथ फोन पर वाम मोर्चे की हार के बारे में बात कर रही थी। मुझे भरतीय जनता पार्टी के समर्थकों का जयघोष साफ सुनाई दे रहा था, जय श्री राम। शनिवार शाम तक नतीजे तकरीबन साफ हो चले थे। भाजपा अपनी गठबंधन सहयोगी इंडीजीनियस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा के साथ दो-तिहाई बहुमत की स्थिति में आ गई थी। सरकार बनाने के लिए इतना आंकड़ा काफी था। इसे वाकई एक बड़ी जीत कहा जा सकता है क्योंकि पिछले चुनावों में पार्टी की यहां मौजूदगी तक नहीं हुआ करती थी।
फोन पर दूसरी ओर से मेरे प्रोफेसर मित्र ने कहा, “दशकों तक निरपेक्ष सत्ता किसी भी राजनीतिक दल को खत्म कर देती है।” मैंने उनसे पूछा था कि आखिर वाम मोर्चे की हार की वजह क्या हो सकती है, उसके जवाब में नाम न छापने की शर्त पर उन्होंने अपनी यह राय दी थी। वे बोले, “त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार की ईमानदारी पर कोई सवाल नहीं है। वह हालांकि पार्टी को चुनाव जिताने में मददगार नहीं हो सकती।” उन्होंने कहा, “सुनने में बड़ा अच्छा लगता है कि मुख्यमंत्री की पत्नी अगरतला में रिक्शे से चलती हैं लेकिन इससे पार्टी वोट नहीं जुटा सकती। वाम मोर्चे ने त्रिपुरा में न तो कोई उद्योग-धंधा लगाया, न ही यहां की अधिरचना का कोई विकास किया। सड़कें खस्ताहाल हैं। सार्वजनिक परिवहन की हालत जर्जर है। युवा बेरोजगार हैं। भाजपा इन्हीं नाकामियों को जनता के सामने लेकर आई और चुनावों के बाद सुधार का वादा किया।”
मुझे 2016 में दिए एक विस्तृत साक्षात्कार में मानिक सरकार ने कहा था, “त्रिपुरा में वाम मोर्चा बरसों से राज्य की समृद्धि की दिशा में काम कर रहा है। इसके लिए उसने आदिवासियों और गैर-आदिवासियों के बीच एकता और मित्रता, सहानुभूति और सम्मान का रिश्ता कायम किया है। हम लोग बरसों से आदिवासियों के बीच काम कर रहे हैं क्योंकि हम जानते हैं कि आदिवासियों के संरक्षण के बगैर त्रिपुरा को विकसित नहीं किया जा सकता।”
यह बात 2016 की है। मौजूदा चुनाव ने स्पष्ट कर दिया है कि आदिवासियों और गैर-आदिवासियों ने मिलकर वाम के खिलाफ वोट दिया है। आखिर क्या गलती हुई वाम से? अगरतला में तीन दशक से रह रहे एक मझोले कारोबारी और कार्यकर्ता रबींद्रनाथ घोष कहते हैं, “मानिक सरकार की हार के पीछे सत्ता के खिलाफ मौजूद भावना का सबसे बड़ा हाथ है।”
घोष कहते हैं, “अपने कार्यकाल में सरकार ने त्रिपुरा में बंगालियों और आदिवासियों के बीच मतभेदों को सुलझाने का काम सफलतापूर्वक किया लेकिन बीते कुछ वर्षों में बेरोज़गारी और आर्थिक बदहाली को लेकर बंगालियों में लगातार बेचैनी बढ़ती गई और वे अधीर हो उठे।” उन्होंने कहा, “यही कारण है कि अलगाववादी पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा इस बार आठ सीटों पर विजयी हुआ जबकि पिछले असेंबली चुनावों में उसका बमुश्किल वजूद था। इससे यह साबित होता है कि वाम मोर्चे को न सिर्फ आदिवासी जनाधार गंवाना पड़ा बल्कि बंगालियों के वोट भी बड़ी संख्या में उससे छिटक गए।”
इस बात से सहमत होने के अलावा कोई उपाय नहीं है। भाजपा ने सुनियोजित तरीके से पैसा बहाकर अगरतला में जो अभियान चलाया, उससे न सिर्फ वाम के इस गढ़ में असंतोष को हवा मिली बल्कि बंगालियों को भी उसने नागरिकता बिल में संशोधन के जरिए नागरिकता दिलवाने के नाम पर अपने साथ जोड़ा। इसे भाजपा नेतृत्व की राजनीतिक परिपक्वता ही कहा जाएगा कि इंडीजीनियस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा के साथ गठजोड़ कायम करने के बाद उसने अलग राज्य ‘ट्विप्रालैंड’ की मांग को मानने से इनकार कर दिया और इस तरह बंगालियों का दिल जीत लिया जो पहले से इस गठबंधन के बारे में कुछ आशंका पाले बैठे थे।
कोलकाता के लेखक प्रचेता गुप्ता के मुताबिक, “त्रिपुरा के लोग बेरोजगारी और विकास के अभाव के चलते असंतोष से भरे हुए हैं। पिछले साल त्रिपुरा की अपनी यात्रा के दौरान मैं सड़कों की खराब स्थिति और परिवहन की बदहाली देखकर चौंक गया। रिक्शा, ऑटोरिक्शा और कुछेक बीमार बसों के अलावा यहां सार्वजनिक परिवहन के नाम पर कुछ नहीं था। मेरे लिए यह जानना हैरत की बात थी कि त्रिपुरा में कोई उद्योग नहीं है और बेरोजगारी तो यहां की आम जिंदगी का हिस्सा है।” वह कहते हैं, “मैंने जब कभी किसी स्थानीय निवासी से वाम मोर्चे की सरकार के बारे में पूछा, मुझे कुल मिलाकर इतना सुनने को मिला कि मुख्यमंत्री ईमानदार व्यक्ति हैं। इस युग में जब भ्रष्टाचार एक सामान्य चीज हो चली है, ईमानदारी वास्तव में एक दुर्लभ गुण है लेकिन सत्ता में होने की चाह रखने वाली किसी राजनैतिक पार्टी या व्यक्ति के लिए यह पर्याप्त नहीं है।”
गुप्ता ने कहा, “लोगों ने वाम को इसलिए खारिज कर दिया क्योंकि पार्टी ने उन्हें राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से नाकाम कर डाला था। सत्तारूढ़ पार्टी न तो रोज़गार दे सकी, न ही आर्थिक विकास को सुनिश्चित कर सकी या फिर एक सशक्त सांस्कृतिक आधार ही तैयार कर सकी। साल में एक बार पुस्तक मेला आयोजित करवाने के अलावा पार्टी और कोई सांस्कृतिक गतिविधि की मेजबानी कर पाने में नाकाम रही। भाजपा ने इन्हीं सब रिक्तियों को भरते हुए इनका लाभ उठा लिया।” गुप्ता कहते हैं, “और ज्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि त्रिपुरा में पतन के बाद पार्टी को अब भी खुद को साबित करना बाकी है। आत्ममंथन के बजाय वह अब भी कुछ शरारती तत्वों को अपने नुकसान का दोषी ठहरा रही है। ऐसी प्रवृत्ति अस्वीकार्य है।”
अगरतला में एक पुस्तक विक्रेता मणींद्रनाथ पाल भी यही राय रखते हैं, जो नियमित रूप से कोलकाता से अगरतला का सफर करते हैं। पाल कहते हैं, “त्रिपुरा में वाम मोर्चा दिशाहीन तरीके से काम कर रहा था। अपनी विचारधारा को पूरी तरह छोड़कर पार्टी आदिवासियों के बीच रचनात्मक और प्रभावी राजनीतिक कदम उठाने के बजाय चुनाव से पहले धार्मिक समागम करवा रही थी। भजन और कीर्तन करवाने से आप हिंदुत्व पर आधारित पार्टी को कैसे टक्कर दे सकते हैं? इसके अलावा चूंकि कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस ने राज्य में प्रचार ही नहीं किया, तो भाजपा की राह इससे भी आसान हो गई।”
प्रोफेसर ए. साहा ने फोन पर बताया, “भाजपा की यह जीत तय मानी जा रही थी। हर कोई इसे लेकर आश्वस्त था। यहां तक कि माकपा को भी नतीजे का अंदाजा पहले हो गया था लेकिन टक्कर देने के लिए उसने कुछ नहीं किया।” साहा ने कहा, “पिछले 25 साल से वामपंथ के राज में सरकारी कर्मचारियों को चौथे वेतन आयोग के हिसाब से तनख्वाह दी जा रही है जबकि पूरे देश में सातवां वेतन आयोग चल रहा है। भाजपा ने सरकारी कर्मचारियों से इसे दुरुस्त करने का वादा किया है। अगर सरकारी कर्मचारी का वेतन चौथे वेतन आयोग में 20 हजार था तो वह सातवें वेतन आयोग के अंतर्गत 35 हजार हो जाएगा। यह इतना बड़ा आकर्षण है कि इसे कौन छोड़ेगा।”
प्रोफेसर साहा कहते हैं, “भाजपा अलग-अलग तबकों के हिसाब से राजनीति करती है। उसे जब एहसास हुआ कि इस चुनाव का केंद्रीय मुद्दा वेतन आयोग है तो उसने इसे अपने विजन डॉक्यूमेंट का हिस्सा बना लिया। पार्टी के चुनावी मंच हों या उसके नेताओं के भाषण- जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और वित्त मंत्री अरुण जेटली- वेतन आयोग का जिक्र हजारों बार किया गया ताकि मतदाताओं के पास भगवा ब्रिगेड के अलावा किसी और को वोट देने का कारण ही न रह जाए।” साहा की राय है कि सरकारी कर्मचारियों का कम से कम 60 फीसदी वोट भाजपा को गया है। “प्रच्छन्न रूप से देखें तो माकपा की यह हार उसके लिए लाभप्रद साबित होगी। हर बार जीतने के साथ ही पार्टी और ज्यादा तानाशाह होती जा रही थी। इसने अपनी गलतियों को स्वीकार करना बंद कर दिया था। भाजपा ने त्रिपुरा के लोगों को वाम का विकल्प दिया और जनता आंख मूंद कर भाजपा की गोद में जा बैठी।”
पुनश्च, राजनीतिक जानकारों का मानना है कि भाजपा को त्रिपुरा में कमान संभालने के बाद सत्ता चलाने में सावधानी बरतनी होगी। इंडीजीनियस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा इतना आसान सहयोगी नहीं है लिहाजा मतभेद और दरार की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा इस उग्र और विभाजनकारी समूह के साथ कैसे निपटती है। इससे कहीं ज्यादा जिज्ञासा इस बात की रहेगी कि भाजपा के समर्थक चुनाव के बाद त्रिपुरा में हिंदुत्व का जोखिम भरा खेल कैसे खेलेंगे।