भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) का एक विशिष्ट लक्षण यह है कि उसके पास ऐसे किसी भी मुद्दे पर आत्ममंथन करने और चर्चा करने की संस्थागत क्षमता मौजूद है जो उसे परेशान कर रहा हो। यह बात अलहदा है कि उस चर्चा का परिणाम क्या निकलेगा और उससे पार्टी की कार्यप्रणाली और प्रदर्शन पर कोई फर्क पड़ेगा या नहीं। इसीलिए हर चुनाव के बाद पार्टी का नेतृत्व किसी धार्मिक कर्मकांड के बतौर अपनी हार के कारणों की तलाश करने के लिए टीम गठित कर देता है। इस टीम की बनाई रिपोर्ट को फिर पार्टी से जुड़े हर सक्षम मंच के साथ साझा किया जाता है और उसका नीर-क्षीर विश्लेषण होता है। अंतत: रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। फिर एक और हार होती है और फिर वही कवायद।
पतन की राह
कम्युनिस्ट पार्टियां लगातार पतनोन्मुख हैं और अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता खोती जा रही हैं। माकपा, जो कभी एक ताकत हुआ करती थी आज भारतीय राजनीति में हाशिए की खिलाड़ी बनकर रह गई है। भारत में पचास और साठ के दशक में कम्युनिस्ट क्रांति की बातें हुआ करती थीं। माकपा 1967 में बंगाल और केरल में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और उससे साझा मोर्चा की सरकारें दोनों राज्यों की सत्ता में आईं। त्रिपुरा में भी यही हुआ।
फिर संसद में भी माकपा मुख्य विपक्षी समूह के तौर पर उभरी। 1967 के आम चुनाव में पार्टी को 62 लाख वोट मिले यानी राष्ट्रीय स्तर पर सारे वोटों का कुल 4.28 फीसदी। 1971 में पार्टी ने अपनी स्थिति को सुधारते हुए 5.12 फीसदी वोट हासिल किए। 1977 के बाद से त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में पार्टी लगातार सत्ता में बनी रही जबकि केरल में वह रह-रह कर जीतती रही। राजनीतिक सत्ता के मुकाबले कहीं ज्यादा पार्टी की सत्ता अकादमिक, सामाजिक और शैक्षणिक संस्थानों में कायम हुई जो पूरी तरह वाम बौद्धिकों के नियंत्रण में आ चुके थे।
कुल 34 साल सत्ता में रहने के बाद पश्चिम बंगाल में माकपा की अगुआई वाला वाम मोर्चा तृणमूल कांग्रेस के हाथों अपनी सत्ता गंवा बैठा। इस चुनाव में तृणमूल गठबंधन को 226 सीटें मिलीं जबकि वाम मोर्चा 62 पर सिमट गया। माकपा की राष्ट्रीय स्तर पर वोटों में हिस्सेदारी 2009 के 5.33 फीसदी से घटकर 2014 में 3.28 फीसदी पर आ गई। दूसरी ओर नरेंद्र मोदी की सरकार केंद्र में आने के बाद से शैक्षणिक और अकादमिक स्पेस से भी वामपंथियों का सफाया होता जा रहा है।
त्रिपुरा के नतीजों की अहमियत
त्रिपुरा में वाम मोर्चा की सरकार जाने के बाद अब कम्युनिस्टों का केवल एक गढ़ बचा है केरल। वहां भी माकपा की अगुआई वाले वाम जनतांत्रिक गठबंधन को भाजपा से कड़ी टक्कर मिल रही है।
वाम मोर्चे की त्रिपुरा में हार के कारण बहुत अबूझ नहीं हैं। यहां 24 साल के राज ने पार्टी को अलहदी और बेपरवाह बना डाला था। पार्टी का काडर लंपट हो चुका था। इस सरकार ने गरीबों, आदिवासियों और औरतों के लिए इतना मामूली काम किया था कि उसके खिलाफ असंतोष चरम पर पहुंच चुका था, लेकिन पार्टी को इसका कोई अंदाजा नहीं था। यहां पर भी दूसरे सूबों की तरह कम्युनिस्ट विकास-विरोधी रहे। उन्होंने बीते 24 साल में औद्योगीकरण को बढ़ावा देने या रोजगार सृजन की दिशा में कुछ भी नहीं किया। आशिक देबबर्मा नाम के एक एनजीओ कार्यकर्ता कहते हैं कि त्रिपुरा के आदिवासी इलाकों में जब मलेरिया फैलता है तो लोग मक्खियों की तरह मर जाते हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य अधिरचना भी भीतरी इलाकों में खस्ताहाल है।
समूचे राज्य में इकलौता विकास कार्य राजमार्गों के विस्तारीकरण के रूप में देखा जा सकता है। हर काम के लिए यहां पार्टी के पास जाना पड़ता है। उत्तर-पूर्व में भाजपा के रणनीतिकार हेमंत बिस्वा सरमा ने कहा था कि माकपा को उसके गुंडों ने हराया है क्योंकि लोग इन लंपट तत्वों से आजिज आ चुके थे। इस बयान में आंशिक सच है। भाजपा ने सुनियोजित प्रचार अभियान के सहारे इसी असंतोष में सेंध लगाई। आदिवासियों और अन्य वंचित समूहों की खराब जीवन स्थितियों के आलोक में भाजपा का यह आरोप सही जान पड़ता है कि राज्य का बहुप्रचारित उच्च मानव विकास सूचकांक कहीं फर्जी न हो। यह कहना गलत नहीं होगा कि वाम के अबाध राज में अगर कोई इकलौती संस्था लगातार मजबूत हुई है तो वह माकपा का पार्टी तंत्र है जो कि पिछले चुनावों तक पार्टी की जीत को सुनिश्चित करता रहा था। आखिर में स्थिति यह आ गई के पार्टी के पास दिखाने को कुछ नहीं रहा जबकि भाजपा ने एक सपने को बेच डाला।
त्रिपुरा में भाजपा के संगठन मंत्री और पार्टी की जीत के शिल्पकार सुनील देवधर के अनुसार भाजपा ने सभी बूथों पर कमेटी गठित कर दी थी और पन्ना प्रमुख नियुक्त किए थे। देवधर ने पार्टी में जीत का मारक जज्बा पैदा किया है। भाजपा ने शिक्षित युवाओं को घर-घर जाकर विकास का संदेश पहुंचाने के काम पर लगाया था। बूथ स्तर से नीचे की गतिविधियों के लिए पार्टी ने कोई 42 हजार पन्ना प्रमुख तैनात किए। इस सूची में और नाम जोड़े जा रहे हैं। देवधर का कहना था कि इस कवायद से उन्होंने मतदाता सूचियों में से 35 हजार फर्जी वोटरों को छांट दिया। मतदान पर इसका जबरदस्त असर पड़ा।
भाजपा ने माकपा को एक दिन चैन से नहीं रहने दिया। तमाम किस्म के भ्रष्टाचार, घोटालों के आरोप समेत माकपा के नेताओं की रोज़ वैली चिटफंड घोटाले में संलिप्तता ने भाजपा को मानिक सरकार की ईमानदार छवि में सेंध लगाने में मदद की। भाजपा ने आरटीआइ के इस्तेमाल से यह काम किया। इसके अलावा कांग्रेस और तृणमूल के वोटों को खत्म कर के उसने माकपा विरोधी वोटों को भी अपनी झोली में डाल लिया। मनरेगा में सृजित परिसंपत्तियों के लिए जियो-टैगिंग को अनिवार्य बनाए जाने के चलते केंद्रीय अनुदानों में हेर-फेर के बड़े घोटाले का पर्दाफाश हुआ। इसके अलावा बढ़ती बेरोजगारी और अविकास के सहारे भाजपा ने माकपा को निर्णायक रूप से सत्ता से बाहर कर डाला। पार्टी ने विकासपुरुष के बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि का भी जमकर इस्तेमाल किया। उनकी रैलियों में भारी भीड़ जमा होती रही जो त्रिपुरा के इतिहास में अभूतपूर्व था।
विचारधारा का रोड़ा
त्रिपुरा में वाम मोर्चे के पतन को राष्ट्रीय परिदृश्य में वामपंथ के समग्र पतन के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना होगा। लेनिनवाद और मार्क्सवाद से अनुप्राणित माकपा की राह में सबसे बड़े रोड़े में एक है उसकी विचारधारा। यह राजनीति में व्यावहारिक प्रयोगों के लिए बहुत कम गुंजाइश छोड़ती है और पार्टी के मर्यादाक्रम में इस हद तक आत्मसमर्पण की मांग करती है कि माकपा के संविधान के मुताबिक कोई सदस्य पार्टी से खुद इस्तीफा भी नहीं दे सकता- केवल पार्टी ही उसे निष्कासित कर सकती है। भारतीय साम्यवाद के बुजुर्ग प्रहरी और लंबे समय तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रह चुके ज्योति बसु को 1996 में ही देश का प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला था लेकिन पार्टी ने इसके उलट निर्णय दे दिया, जिसे बाद में ऐतिहासिक गलती कहा गया। कम्युनिस्ट पार्टियां नई पीढ़ी को आकर्षित नहीं कर पा रही हैं। तमाम किस्म की आजादी का आनंद लेने वाले भारत के महत्वाकांक्षी युवा को देने के लिए पार्टी के पास सिवाय कुछ घिसे-पिटे नारों और सेकुलरवाद पर खोखले उपदेशों के कुछ भी नहीं है।
सर्वहारा और मजदूर वर्ग के सशक्तिकरण पर भारी-भरकम बातों के बावजूद कम्युनिस्ट भारत की जमीनी हकीकत को समझ पाने में नाकाम रहे हैं। जैसे कि अर्थशास्त्री मेघनाद देसाई कहते हैं, “ये कभी भी भारतीय समाज और जाति की खासियत को नहीं समझ पाए।” कम्युनिस्टों के लिए धार्मिक आचार हमेशा सांप्रदायिकता और बहुसंख्यकवाद की अभिव्यक्ति ही रहा। आरएसएस के जे नंदकुमार कहते हैं, “राष्ट्रवाद के मसले पर भी इनका नजरिया अलहदा है। ये हमेशा राष्ट्रीय हितों के खिलाफ खड़े रहे। इसीलिए जब चीन ने भारत पर हमला किया, तो इन्होंने चीन का समर्थन कर दिया।” दशकों तक माकपा अपने दिमाग में यही साफ नहीं कर पाई कि उसका असली दुश्मन कौन है- भाजपा या कांग्रेस। अब जबकि उसने भाजपा को मुख्य दुश्मन मान लिया है तो पार्टी के भीतर बहस चल रही है कि भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस के साथ गठजोड़ किया जाए या नहीं। पार्टी अब तक इस पर निर्णय नहीं ले सकी है क्योंकि उसकी सारी दृष्टि दो राज्यों को जीतने तक सीमित रही- केरल और बंगाल। कोई भी फैसला पार्टी को दो धड़ों में तोड़ देता।
माकपा की केरल इकाई द्वारा समर्थित प्रकाश करात कांग्रेस के साथ किसी भी गठजोड़ के सख्त खिलाफ हैं क्योंकि उन्हें लगता है यह उनके हितों के विरुद्ध जाएगा। इसके उलट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी और पश्चिम बंगाल की इकाई कांग्रेस के साथ गठजोड़ चाहती है क्योंकि राज्य में पार्टी के वजूद पर खतरा मंडरा रहा है। सीपीएम की जगह बीजेपी ने वहां ले ली है। लिहाजा पार्टी के लिए बड़ी ऊहापोह वाली स्थिति है। वाम के साथ एक और दिक्कत यह है कि यहां वह चीन के माओ या वियतनाम के हो ची मिन्ह के कद का कोई करिश्माई नेता नहीं पैदा कर पाया है। प्रेरणा और दिशानिर्देश के लिए भारत का वाम लगातार चीन और रूस की तरफ देखता रहा है। चीन में कम्युनिस्ट क्रांति के बाद कहा जा रहा था कि अब बारी भारत की है लेकिन स्टालिन का मानना था कि भारत में क्रांति की अनुकूल स्थितियां अभी पैदा नहीं हुई हैं। इससे निराश होकर भारत के कम्युनिस्ट लोकतंत्र के खेल में जुट गए।
केरल में कमजोर होती पकड़
केरल की जनता भले एक के बाद एक माकपा के नेतृत्व वाले वाम मोर्चा और कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ को चुनती रही हो और वाम दलों को आज भी यहां पर्याप्त समर्थन मौजूद हो लेकिन भाजपा उसके मजबूत गढ़ में सेंध लगाने की लगातार कोशिश में है। केरल में सीपीएम सबसे बड़ी हिंदू पार्टी है चूंकि उसके वोटों का 75 फीसदी हिंदुओं से आता है। ईएमएस नंबूदरीपाद का मानना था कि बहुसंख्यक की सांप्रदायिकता अल्पसंख्यक की सांप्रदायिकता से ज्यादा खतरनाक होती है। इस सूत्र के मुताबिक मुसलमानों को रिझाने और उनके लिए एक अलग जिला मलप्पुरम बनाने के चलते सीपीएम ने भाजपा के भूतपूर्व संस्करण जनसंघ को पहले ही वहां जड़ें जमाने की जगह दे डाली थी।
यह सच है कि दो मजबूत गठबंधनों के खिलाफ चुनाव लड़कर भाजपा केरल की असेंबली में पर्याप्त सीटें नहीं ला सकी लेकिन पिछले असेंबली चुनाव में पार्टी अपने दम पर 16 फीसदी वोट लाने में सक्षम रही और उसने अपना खाता खोल दिया। हिंदुओं को संगठित करने की भाजपा की रणनीति का यहां ज्यादा असर नहीं हुआ। अगर नई रणनीतियों और कार्यक्रमों से भाजपा इस काम में जुटी रही तो वाम मोर्चे के लिए समस्या खड़ी हो जाएगी।
केरल में वाम के समक्ष विश्वसनीयता का भी खतरा है। पहले पार्टी के पास कुछ लोकप्रिय नेता हुआ करते थे, जैसे नंबूदरीपाद, अच्युता मेनन और एके गोपालन। आज के शीर्ष नेता पिनरायी विजयन और कोडियरी बालाकृष्णन वैसी अखंडता का दावा नहीं कर सकते। बालाकृष्णन का बेटा दुबई में भ्रष्टाचार के किसी मामले में कथित रूप से लिप्त पाया गया जबकि दोनों नेता कथित रूप से हत्या के मामलों में शामिल हैं। माकपा भले ही खुद को अल्पसंख्यकों के मसीहा के रूप में आक्रामक तरीके से पेश कर रही हो लेकिन हाल ही में माकपा और भाकपा द्वारा मुस्लिम युवाओं की हत्याओं ने समुदाय में आक्रोश पैदा कर दिया है। हाल ही में एक भूखे आदिवासी युवक की हत्या ने भी वाम को यहां कठघरे में ला खड़ा किया है। केरल का सामाजिक ढांचा बदल रहा है। निचले तबके के लिए जगह कम होती जा रही है जिसके चलते मध्यवर्ग विस्तारित हो रहा है, जिसका श्रेय खाड़ी से आए पैसे को जाता है। गरीब जनता को संबोधित पुराने नारे अब काम नहीं आ रहे। फैलते हुए मध्यवर्ग को लक्षित कर के पार्टी ने अब तक कोई रणनीति नहीं बनाई है।
केरल में अब भी माकपा का जनता पर नियंत्रण है तो उसकी एक बड़ी वजह यहां की सहकारी संस्थाएं हैं। अधिकतर क्षेत्रों में माकपा का ही सहकारी संस्थाओं पर कब्जा है।