उत्तर-पूर्वांचल में राजनीतिक परिवर्तन हुआ है, महज चुनाव नहीं। नगालैंड और मेघालय में एनडीए सरकारें बनने से अधिक त्रिपुरा में कम्युनिस्ट शासन का अंत उतनी ही बड़ी खबर है जितनी 1957 में केरल में एम.एस. नंबूदिरीपाद के नेतृत्व में बनी विश्व की पहली लोकतांत्रिक पद्धति से बनी कम्युनिस्ट सरकार थी। 61 वर्ष में भारत का राजनीतिक कम्युनिस्ट आंदोलन वापस केरल तक सिकुड़ गया जहां अगले चुनाव में उसका अंत तय है। हां, माओवादी-नक्सली आतंकवाद के रूप में मार्क्सवाद–लेनिनवाद कुछ और जिंदा रहेगा, यह अलग बात है। सर्वहारा की क्रांति का नारा लेकर भारत में कम्युनिस्ट पार्टी 1925 में स्थापित हुई थी, जिस वर्ष नागपुर में डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। आज संघ से जो स्वयंसेवक राजनीति में गए उनका ध्वज अरुणाचल से गुजरात और उत्तर से दक्षिण तक अपने बल पर या साझा सरकारों के रूप में 29 में से 21 राज्यों में लहर रहा है। कम्युनिस्ट या तो जेएनयू में कुछ दिखते हैं या केरल में।
कम्युनिस्टों ने रूस में सेंट पीटर्सबर्ग को लेनिनग्राद का नाम दिया था। कुर्सियां हटाना-नाम बदलना-विरोधीपक्ष को स्मृति-शेष करना कम्युनिस्ट स्वभाव का अंग है। जैसे सोवियत संघ में लोकतंत्र की वापसी के साथ लेनिनग्राद का नाम पुनः सेंट पीटर्सबर्ग हुआ और आततायी बर्बर नरसंहारों के जनक लेनिन के पुतले सब जगह से हटे, वैसे ही त्रिपुरा की जनता ने लेनिन का पुतला ‘चलो पल्टाई’ के साथ हटा दिया। त्रिपुरा कम्युनिस्ट पार्टी ने किसी भारतीय कम्युनिस्ट को स्मरण योग्य नहीं माना- यदि वहां नंबूदिरीपाद का पुतला होता तो बात अलग होती, उसे कोई स्पर्श न करता। अभारतीय मानस, अभारतीय विचार, अभारतीय प्रेरणा स्त्रोत वाले कम्युनिस्ट भारत में स्वीकार्य नहीं हो सकते।
त्रिपुरा में 31 जनजातीय समाज हैं और सर्वाधिक गरीबी, बीमारियां, विद्रोह, बेरोजगारी वहीं है। दस किलो चावल के लिए अपने बच्चों को दे देने की दर्दनाक खबरें, जनजातीय बंगाली संघर्ष (1907 में ही 111 बंगाली त्रिपुरा नेशनल वालंटियर ने मार डाले थे), उद्योगविहीन राज्यों, हत्याओं और घृणा का माहौल था और चुनौती देने वाला विपक्ष नहीं। एक समय जब संतोष मोहन देब जैसे कद्दावर त्रिपुरा से दो बार लोकसभा में चुने गए, पर 72-77 और 1988-92 तक कांग्रेस का राज्य में शासन होने के बावजूद कम्युनिस्ट कमजोर नहीं हुए और नृपेन चकवर्ती (1978-88) के बाद मानिक सरकार (1990-2018) लगातार राज करते रहे। कांग्रेस ने त्रिपुरा पर चौदह वर्ष शासन किया पर विकास के नाम पर इतना भ्रष्टाचार हुआ कि कम्युनिस्टों को पांव जमाने का अवसर मिला।
इस बीच, गत पचास वर्षों में राष्ट्रीयता के विचार को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने लगातार काम किया। संघ के चार वरिष्ठ प्रचारक 1999 में त्रिपुरा से अपहृत कर मार डाले गए पर संघ का कार्य रुका नहीं। अप्रतिहत परिदृश्य, साधारण जनता के बीच काम, विरोध के बावजूद डटे रहना, घर-परिवार कॅरिअर की चिंता छोड़ वहां जुटे कार्यकर्ताओं ने हवा-पानी और वक्त का मिजाज बदल दिया। त्रिपुरा में जनजातीय, कम्युनिस्ट प्रभाव, प्रायः शून्य प्रतिशत राजनीतिक वोट प्रभाव, प्रांत से लेकर राष्ट्रीय मीडिया के सेकुलर पत्रकार भाजपा विरोधी- फिर भी भाजपा 43 प्रतिशत मत लेकर 35 सीटें ले आई तो यह रणनीति कम, परिश्रम और ‘मृत्यु को हराकर मिशन’ सफल करने की उद्यमता की सफलता है।
त्रिपुरा, नगालैंड, मेघालय में भाजपा ने स्थानीय को सम्मान दिया, साथ लिया-जिन्हें कांग्रेस हेयता से देखती थी। नरेंद्र मोदी की कठोर ईमानदारी, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय लोकप्रियता की छवि तो अमित शाह की अद्भुत, असाधारण जमीनी स्तर तक के कार्यकर्ता को काम में जुटाने की कुशलता, यदि मोदी का वाक्य है– न खाऊंगा, न खाने दूंगा तो अगरतला, कोहिमा और शिलांग में भाजपा कार्यकर्ताओं को अमित शाह-‘न सोऊंगा, न सोने दूंगा’ जैसे ध्येयवादी वाक्य बोलने लगे। ‘जीतना है’ और बूथ, ब्लॉक, गांव तक न केवल एक-एक मतदाता की पहचान, बल्कि वहां कार्यकर्ताओं की टीम खड़ी की गई- बूथ प्रमुख, पन्ना प्रमुख मोदी सरकार के भ्रष्टाचार विरोधी अभियानों के प्रचार ने माहौल बदला।
उत्तर-पूर्वांचल में स्थानीय दलों के साथ गठजोड़ और दोस्तों में नॉर्थ-ईस्ट स्टार हिमंत बिस्वा सरमा का कोई सानी नहीं। वह निश्चित रूप में राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हैं। हिमंत, राममाधव और सुनील देवधर की अद्भुत खड्ग समान तेज मिशन- भावना वाली टीम ने त्रिपुरा में जनजातीय मोर्चा इंडीजीनियस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा, मेघालय में नेशनल पीपुल्स पार्टी के कोनराड संगमा (पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पी.ए. संगमा के सबसे छोटे पुत्र) और नगालैंड में नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) को साथ में लेकर स्थानीय लोगों को अपने भी उतना ही स्थानीय होने का एहसास कराया।
गुजरात में जीतने के बाद अमित शाह ने एक दिन भी विश्राम न लेकर उत्तर-पूर्वांचल के अभियान में जुटे और बाद में कर्नाटक में तूफानी दौरे शुरू किए। गत दो वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रत्येक कैबिनेट मंत्री की हर पंद्रह दिन में एक बार उत्तर-पूर्वांचल की यात्रा अनिवार्य बना दी थी। कभी कहा जाता था कि भाजपा मध्यमवर्गीय ‘काऊबेल्ट’ पार्टी है। सेकुलर-कांग्रेस-कम्युनिस्ट अहं मानकर चलता था कि ईसाई बहुल राज्य भाजपा को स्वीकार नहीं करेंगे। लेकिन ‘राष्ट्र प्रथम, शेष भेद गौण’ सिद्धांत भाजपा को असंभव दिखते राज्यों में भी स्वीकार्य बना गया।
यह देश की एकता और समग्र भारतीय सरोकारों वाली राष्ट्रीय राजनीति के लिए शुभ संकेत है। अभी तक कांग्रेस-कम्युनिस्ट स्थानीय मतभेद और अलगाव की भावनाओं को भड़काकर सत्ता में आते रहे- पहली बार मोदी-शाह ने कश्मीर, राजस्थान, गुजरात को भी उत्तर-पूर्वांचल की धारा से जोड़ा तो उत्तर-पूर्वांचल भी राष्ट्रीय राजनीति की मुख्यधारा का अभिमानी हिस्सेदार बना। यह एक नई भारतीय राष्ट्रीय राजनीति का विस्तार है जो अब दक्षिण को भी केसरिया करेगा।
उत्तर-पूर्वांचल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा के लिए राष्ट्रीयता और भारत-रक्षा का कवच जैसा है-चुनाव का अखाड़ा नहीं। दो सरसंघचालक कुप.सी. सुदर्शन और मोहन भागवत उत्तर-पूर्व में स्वयं काम करते रहे हैं। विद्यालय, आरोग्य केंद्र, कांची शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती (दिवंगत) के सेवा कार्य चले तो नितिन गडकरी, जयंत सिन्हा, पीयूष गोयल के अभूतपूर्व विकास कार्यों ने वहां की जमीन-आसमान को नया रंग दिया। पहली बार उत्तर-पूर्व उत्तर प्रदेश जैसा महत्वपूर्ण बना।
(लेखक भाजपा के पूर्व सांसद और उत्तर पूर्व की जनजातियों में कार्य कर रहे हैं)