उत्तर पूर्वी राज्यों में विशेषकर त्रिपुरा, मेघालय, नगालैंड में भाजपा और उसके नियंत्रक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सहित अन्य संगठन जिस प्रकार की विजयगाथा बता रहे हैं, वह सच्चाई के विपरीत है। यह सच है कि त्रिपुरा में उनकी सरकार अपने और सहयोगियों के बलबूते बन गई है। यह गौर करने की बात है कि आरएसएस और भाजपा जिस ट्राइबल फ्रंट को विदेशी पैसों से चलने वाले और देश तोड़क कहते थे, उन्हीं के साथ चुनाव में हाथ मिला लिया। ट्राइबल फ्रंट खुलकर यह कहता रहा है कि वह अलग देश बनाना चाहता है। भाजपा के नेता लोकसभा और राज्यसभा में कम्युनिस्टों पर यह आरोप लगाते रहे कि मानिक सरकार की सरकार ट्राइबल फ्रंट पर कोई असरदार कानूनी कदम नहीं उठा रही, लेकिन जिन्हें वह देशद्रोही कहते नहीं थकते थे, उन्हीं के साथ सरकार बनाकर उनके सीने पर राष्ट्रवाद का तमगा लटका रहे हैं और खुद भी गौरवान्वित हो रहे हैं। एक छोटे से राज्य पर, जिसके मुख्यमंत्री की सादगी और प्रशासनिक क्षमता की लोग सराहना करते हों, उसके विरुद्ध धनबल और सत्ता बल का प्रयोग कर पराजित करने की अनैतिक मुहिम भाजपा ने एक-डेढ़ वर्ष से चला रखी थी।
प्रधानमंत्री सहित केंद्रीय मंत्रियों ने राष्ट्रीय मुद्दों की चर्चा त्रिपुरा और उत्तरपूर्वी राज्यों में नगण्य-सी की और झूठे वादों का अंबार लगा दिया। हद तो यह हो गई कि कोहिमा तक एक साल में ट्रेन पहुंचाने का वादा भी कर डाला। यह प्रधानमंत्री नरेंद्र का ऐसा ही वादा था, जैसे 2014 के चुनाव अभियान में उन्होंने सभी का जनधन खाता खुलवाकर, विदेशों से कालाधन लाकर, 15-15 लाख रुपये हर खाते में जमा करने, प्रतिवर्ष दो करोड़ युवकों को रोजगार देने और किसानों की फसलों का समर्थन मूल्य लागत से डेढ़ गुना दाम देने का झूठा वादा कर वोट बटोर लिए थे। धार्मिक उन्माद पैदा कर वोटों का ध्रुवीकरण भी कराया। त्रिपुरा में भी धार्मिक और जाति उन्माद भाजपा और संघ का प्रमुख चुनावी बिंदु था। एक दिन त्रिपुरा में 30 केंद्रीय मंत्री और दो राज्यों के मुख्यमंत्री चुनाव प्रचार कर रहे थे।
पूर्वोत्तर के शांत क्षेत्र अगरतला में पिछले 40 वर्षों में इतने विमानों की आवाजाही जनता ने पहले कभी नहीं देखी थी, जो चुनाव के दौरान भाजपा की तरफ से दिखाई गई। 236 करोड़ रुपये इस चुनाव में भाजपा ने संगठन की तरफ से खर्च किए। आठ महीने पहले से ही 48 हजार पृष्ठों की मतदाता सूची के प्रत्येक पृष्ठ पर एक-एक पृष्ठ प्रमुख की नियुक्ति की गई। इनकी जिम्मेदारी पृष्ठ पर छपे 60 वोटरों के रखरखाव की थी। इन पृष्ठ प्रमुखों को 15-20 हजार रुपये महीने दिए गए। संघ के 1500 स्वयंसेवक मोटरसाइकिलों पर बैठकर धार्मिक और जाति ध्रुवीकरण की जड़ी-बूटी लेकर पूरे त्रिपुरा को रौंदते रहे। झूठ और फरेब से भरे आश्वासनों ने बेहतर जीवन की अपेक्षा और तात्कालिक आर्थिक लाभ के चलते मतदाताओं को लुभाया।
नगालैंड में एनएससीएन (आइएम) से केंद्र सरकार का क्या समझौता हुआ है, इसे न तो संसद और न ही जनता को बताया गया। ग्रेटर नगालैंड की अवधारणा को हवा देकर यहां भी भाजपा ने देश विरोधी रणनीति चलाई। नगालैंड फ्रेमवर्क को सार्वजनिक न किए जाने के कारण नगालैंड की कई प्रमुख पार्टियों ने चुनाव में हिस्सा नहीं लिया।
इस मतदान में त्रिपुरा में भाजपा लगभग 6000 वोट से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से आगे थी। भाकपा और माकपा के मतों को मिला दिया जाए तो त्रिपुरा में भाजपा से 19000 ज्यादा वोट इन्हें प्राप्त हुए हैं। त्रिपुरा में चुनाव के दिन 11 प्रतिशत ईवीएम मतदान के लिए बेकार साबित हुईं और उनके स्थान पर जो ईवीएम लाए गए, वह संदेह के घेरे में हैं। कुछ अधिकारियों और विशेषज्ञों का कहना है कि वह ईवीएम पूर्व निर्धारित निर्देशों के साथ मतदान केंद्र पहुंचाई गईं। एक तथ्य यह भी है कि देश के कॉरपोरेट घराने आज कम्युनिस्टों और प्रामाणिक सोशलिस्टों को देश की राजनीति और संसदीय राजनीति से पराजित करना चाहते हैं। इसीलिए उनके द्वारा नियंत्रित इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया में उन्हें (कम्युनिस्ट) दिखाया और छापा नहीं जाता है।
कम्युनिस्टों के विरोध को समाप्त करने की संपूर्ण राजनीति और उसकी चालों के बीच में त्रिपुरा में वाम मोर्चे की सरकार की हार और नरेंद्र मोदी (भाजपा) की जीत देखा जाना चहिए। एक सवाल यह भी है कि बदलते तकनीक के दौर में टीवी, अखबार, सोशल मीडिया के चमत्कारिक प्रभाव के दौर में कम्युनिस्टों को इनसे दूर रह कर अपनी पारंपरिक कार्यविधि से आने वाले दिनों में ईमानदारी के साथ चलते हुए संसदीय लोकतंत्र में सांप्रदायिक और जातिगत अभियान चलाने वाली पार्टी की बढ़त के बीच वामपंथी कैसे मुकाबला करेंगे। हम कम्युनिस्ट और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इस पर 25-29 अप्रैल 2018 को केरल के कोलम में होने वाले 23वें महाधिवेशन में चर्चा कर रणनीति बनाएंगे।
2019 के लोकसभा चुनाव और उससे पूर्व कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए वामपंथी धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील, गरीबों, पिछड़ों, किसानों, नौजवानों, अल्पसंख्यकों के आर्थिक हितों की रक्षा करने के लिए एक वैकल्पिक कार्यक्रम पर आधारित विकल्प जो देश में उभर रहे सांप्रदायिक मनोवृत्ति का मुकाबला कर सकेगा, उसके गठन की दिशा में आगे बढ़ेंगे। विभिन्न दलों का अपना अहंकार और सत्तारूढ़ भाजपा के पास कॉरपोरेट घरानों का विशाल समर्थन और परदेसी पूंजी के आशीर्वाद से टक्कर लेना कम्युनिस्ट और अन्य लोगों के लिए आसान नहीं होगा। इस लक्ष्य को हासिल करने और भारत को आगे बढ़ाने के लिए गैर भाजपा दलों में राजनीतिक ईमानदारी एक प्रमुख अवयव होगा। यह इसलिए भी आवश्यक और महत्वपूर्ण है, क्योंकि त्रिपुरा के 2013 के चुनाव में कांग्रेस को 37 फीसदी से अधिक वोट मिले थे, लेकिन 2018 में अनमनेपन से चुनाव लड़ने के कारण उसे मात्र तीन फीसदी वोट ही मिले और उसके समर्थक 35 फीसदी वोट नरेंद्र मोदी के झूठे वादों और चुनाव प्रणाली की विसंगतियों के हवाले हो गए।
(लेखक भाकपा के राष्ट्रीय सचिव हैं)