वैसा ही हुआ जैसा कई महीनों से कयास लग रहा था। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी और कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अशोक चौधरी ने आखिरकार पाला बदल लिया। कभी नीतीश कुमार से बगावत कर हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा यानी हम बनाने वाले मांझी एनडीए छोड़कर राजद के साथी बन गए हैं, तो चौधरी सहित कांग्रेस के चार विधानपार्षद जदयू के हमसफर।
ऐसी राजनीतिक चर्चा गरम है कि आने वाले वक्त में केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी भी एनडीए से अलग हो सकती है। हालांकि, मांझी के पास खोने को कुछ नहीं था और पाने की उम्मीद दिखी तो वे अलग हो गए। कुशवाहा अभी वक्त लेंगे, क्योंकि उनका राजनीतिक अतीत बताता है कि वे अपनी अलग पहचान चाहते हैं।
2015 में मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद मांझी एनडीए में आए थे। विधानसभा चुनाव में भाजपा ने उन्हें 20 सीटें दी। वे खुद दो सीटों पर चुनाव लड़े और एक पर ही जीत पाए। इकलौते विधायक वाली पार्टी का नेता और अध्यक्ष होने के बावजूद उम्मीद थी कि भाजपा दलित राजनीति के चेहरे के तौर पर उन्हें तरजीह देगी। राज्यसभा जाने की भी उन्होंने कोशिश की। लेकिन, यहां भी भाजपा से मायूसी हाथ लगी।
दूसरी ओर, दलित-महादलित वोटरों को लुभाने के लिए राजद को एक दलित चेहरे की दरकार थी। उसकी पहली पसंद मायावती थीं। लालू प्रसाद उन्हें राज्यसभा भोजना चाहते थे, लेकिन मायावती तैयार नहीं हुईं। उधेड़बुन में फंसे मांझी तैयार हो गए। कहा जा रहा है कि मांझी को राजद राज्यसभा भेजेगी। राजद को भी मालूम है कि मांझी को तुरंत लाभ नहीं मिला तो वे फिर से पाला बदल सकते हैं। यही कारण है कि जदयू प्रवक्ता संजय सिंह कहते हैं, “मांझी के आने से राजद को खुश नहीं निराश होना चाहिए। मांझी जयचंद साबित होंगे। जो मांझी नीतीश कुमार के नहीं हुए, वे राजद और लालू प्रसाद के क्या होंगे?”
हालांकि, नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव का कहना है, “मांझी का जिस तरह से अपमान एनडीए में हो रहा था, उसकी कीमत उसे चुकानी होगी। उपेंद्र कुशवाहा सहित कई लोग एनडीए की नीतियों से घुटन में हैं। ऐसे लोगों के साथ हम वैचारिक गठबंधन बनाने में लगे हैं।” वहीं, जदयू ने अशोक चौधरी को अपने पाले में करके महागठबंधन को झटका देने की कोशिश की है। राज्य में हाशिए पर पड़ी कांग्रेस उनके अध्यक्ष रहते ही चार से 27 विधायक और छह विधानपार्षदों वाली पार्टी बनी थी। चौधरी के साथ रामचंद्र भारती, तनवीर अख्तर और दिलीप चौधरी भी हैं। चौधरी की मानें तो कई और नेता आने वाले दिनों में कांग्रेस छोड़ सकते हैं। वे कहते हैं, “मुझ पर आरोप लग रहा था कि मैं कांग्रेस को भभुआ चुनाव में हरवाना चाहता हूं। इससे ज्यादा क्या अपमान होता, इसलिए वहां रहने का अब कोई कारण नहीं था।”
बिहार में 11 मार्च को अररिया संसदीय सीट और भभुआ, जहानाबाद विधानसभा सीट पर उपचुनाव होनेवाले हैं। राज्य में छह राज्यसभा सीटों और 11 विधानपरिषद सदस्यों के लिए भी चुनाव होने हैं। संभव है, पालाबदल का असर इन चुनावों में दिखे। लेकिन असल में सारी तैयारी 2019 के आम चुनाव और 2020 के विधानसभा चुनाव के लिए है।
राजद की तरह जदयू को भी दलित चेहरे की तलाश है। पूर्व विधानसभा अध्यक्ष उदयनारायण चौधरी पार्टी में किनारे हैं। वे कई मौकों पर नीतीश के खिलाफ बोल चुके हैं। क्योंकि उदयनारायण चौधरी और मांझी के बीच भी 36 का रिश्ता रहा है, इसलिए फिलहाल उनके महागठबंधन के साथ जाने की संभावना नहीं दिख रही। वहीं, भाजपा के साथ रामविलास पासवान हैं। वे अपनी जाति के एकमात्र सर्वमान्य नेता माने जाते हैं और वोट आसानी से ट्रांसफर करवा लेते हैं। कुल मिलाकर अतिपिछड़ों और दलितों के खेमे में अभी भी ऊहापोह है और हर दल इन दो समूहों को साधने में जुटा है।