अप्रैल में बिहार में शराबबंदी के दो साल पूरे हो जाएंगे। उससे पहले एक हादसे ने शराबबंदी को बहस के केंद्र में ला दिया है। 24 फरवरी को मुजफ्फरपुर में सड़क पार कर रहे नौ स्कूली बच्चों को तेज रफ्तार बोलेरो ने रौंदकर मार डाला। कहा जा रहा है कि यह गाड़ी भाजपा के बिहार प्रदेश महामंत्री मनोज बैठा की थी, जिन्हें हादसे के बाद पार्टी ने निलंबित कर दिया। चश्मदीदों का दावा था कि बोलेरो चालक जो हादसे के बाद फरार हो गया, नशे में था। गाड़ी पर भाजपा नेता का नेमप्लेट लगा था, सो पटना से लेकर दिल्ली तक के सियासी गलियारे में इसकी गूंज सुनाई पड़ी। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ट्वीट कर सवाल पूछे और कहा कि बिहार में शराबबंदी के बहाने गरीबबंदी का अभियान चल रहा है।
बिहार के नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने कहा, “यह सरकार शराब माफियाओं और शराबियों को संरक्षण देनेवाली सरकार है।” यह पहला मौका नहीं है जब बिहार में शराबबंदी को लेकर इस तरह की बहस छिड़ी है। लेकिन सियासी नूराकुश्ती में हर बार असली सवाल छिप जाते हैं।
शराबबंदी के बाद से करीब-करीब हर रोज राज्य के किसी न किसी इलाके से शराब की भारी खेप पकड़े जाने की खबर आती रहती है। पुलिस और आबकारी विभाग अब तक दो लाख से अधिक छापेमारी कर चुकी है। 87 हजार से ज्यादा लोग गिरफ्तार किए गए हैं। शराबबंदी के सालभर के भीतर करीब 5.14 लाख लीटर विदेशी, 3.10 लाख लीटर देसी शराब और 11 हजार लीटर से ज्यादा बीयर जब्त की गई थी। ये आंकड़े बताते हैं कि शराबबंदी के बाद राज्य में शराब का अवैध कारोबार जोरों पर है। इससे जुड़े लोगों को कानून का कोई खौफ नहीं है। इसी साल मोतिहारी में छह फरवरी को शराब तस्करों ने सैप जवान की हत्या कर दी।
राज्य में शराब की ज्यादातर तस्करी झारखंड और उत्तरप्रदेश से होती है। छपरा, बक्सर, सिवान, गोपालगंज, भभुआ, औरंगाबाद, गया, नवादा जैसे इलाकों में अक्सर शराब पकड़ी जाती है। नेपाल की सीमा से सटे इलाकों में सबसे ज्यादा खेप फारबिसगंज और चंपारण के रक्सौल में पकड़ी जाती है। इन सबके बीच जहरीली शराब पीने से लोगों की मौत की भी कई घटनाएं हो चुकी हैं। शराबबंदी के तुरंत बाद अगस्त 2016 में ही गोपालगंज में 19 लोगों की मौत जहरीली शराब से हुई थी। शराबबंदी के बाद दूसरी तरह के नशे का भी राज्य में चलन बढ़ा है। गैर सरकारी संगठन नशा मुक्ति केंद्र की रिपोर्ट बताती है कि शराबबंदी से शराबखोरी की लत में 80 प्रतिशत की कमी आई है, लेकिन दूसरे किस्म के नशे में 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। लेकिन, सरकार के दावे इसके उलट हैं। 26 फरवरी को राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने अपने अभिभाषण में कहा कि राज्य में पूर्ण शराबबंदी के बाद अपराध में कमी आई है। खासकर फिरौती के लिए अपहरण और डकैती जैसे मामलों में 2015 की तुलना में 24 से 28 प्रतिशत तक की कमी दर्ज की गई है। बीते साल राज्य के समाज कल्याण विभाग ने एक सर्वे रिपोर्ट जारी किया था। इसमें दावा किया गया था कि राज्य की 99 फीसदी महिलाएं शराबबंदी के पक्ष में हैं और यह लागू होने के बाद से खुद को ज्यादा सुरक्षित महसूस कर रही हैं। साथ ही कहा गया था कि शराबबंदी के बाद लोगों ने भोजन पर 1,331 रुपये साप्ताहिक के हिसाब से खर्च किए, जो कि पहले 1,005 रुपये था। शराबबंदी के बाद 43 प्रतिशत पुरुष खेती में ज्यादा समय व्यतीत करते हैं और 84 प्रतिशत महिलाओं ने कहा कि अब पैसे की बचत ज्यादा हो रही है।
राज्य के उत्पाद व निषेध मंत्री बिजेंद्र प्रसाद यादव कहते हैं कि बिहार की शराबबंदी पूरे देश में मॉडल बन रही है। कर्नाटक, जहां सबसे ज्यादा राजस्व शराब से ही आता है, से कुछ लोग शराबबंदी का अध्ययन करने और रेवेन्यू मॉडल समझने के लिए हाल ही में बिहार आए थे। राज्य के वित्त मंत्री सुशील मोदी का कहना है कि शराबबंदी से राजस्व का नुकसान नहीं हुआ है। दूसरे स्रोतों से राजस्व में वृद्धि हुई है। 27 फरवरी को बजट पेश करते हुए उन्होंने बताया कि राज्य की सकल घरेलू विकास दर 2017-18 में 10.5 फीसदी रहने का अनुमान है, जो 2015-16 के दौरान 7.5 फीसदी थी। राज्य का कर राजस्व 2016-17 में 23 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा था, जो 2017-18 में बढ़कर 32 हजार करोड़ रुपये हो जाने का अनुमान है।
यह दूसरी बात है कि सालभर पहले यही मोदी जब विपक्ष में थे तो उन्होंने आक्रामक तरीके से सदन में शराबबंदी पर सरकार को घेरा था। उन्होंने उस समय सरकार से पूछा था कि शराबबंदी से यदि राजस्व का नुकसान नहीं हो रहा तो वाणिज्य कर में तीन हजार करोड़ रुपये की कमी कैसे आई? निबंधन राजस्व लक्ष्य से सात सौ करोड़ रुपये कम क्यों रह गया? मोदी ने जब ये सवाल पूछे थे उस समय तेजस्वी सरकार में शामिल थे। असल में यही वह वजह है जिसके कारण शराबबंदी को लेकर राजनीतिक बिरादरी मौजूं सवाल नहीं करती, क्योंकि नीतीश के इस अभियान में राजद, कांग्रेस से लेकर भाजपा तक सब कभी न कभी साझेदार रहे हैं। जैसा कि वरिष्ठ अधिवक्ता अनिल कुमार चौबे कहते हैं, “शराबबंदी पर पक्ष और विपक्ष, दोनों फ्रेंडली मैच खेल रहे हैं।” चौबे बताते हैं, “हर दिन शराब के कारण लोग जेल भेजे जा रहे हैं। एक तिहाई लोगों को ही जमानत मिल पा रही। इस कानून की आड़ में मानवाधिकार का जो हनन हो रहा है उसे कोई नहीं उठा रहा।”
राज्य की राजनीति की गहरी समझ रखने वाले महेंद्र सुमन कहते हैं कि यह देखने की जरूरत है कि शराबबंदी के बाद जो लोग पकड़े गए हैं उनमें ज्यादातर किस समुदाय से हैं। सबसे ज्यादा निशाने पर दलित-महादलित समुदाय के लोग हैं, लेकिन कोई इस पर बात नहीं कर रहा।
पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी जो खुलकर इस मसले पर नीतीश सरकार का विरोध करते रहे हैं वे अब राजद के महागठबंधन का हिस्सा बन चुके हैं। मांझी शराबबंदी को दलित-महादलित की पहचान पर हमला बताते रहे हैं। सो, तेजस्वी की कोशिश मांझी को साथ लेकर इस बहाने दलितों-महादलितों के बीच पैठ बनाने की है। पूर्व उपमुख्यमंत्री का कहना है कि सरकार बनने पर वे इस कानून में संशोधन करेंगे। वैसे, वे किस तरह का संशोधन चाहते हैं यह फिलहाल साफ नहीं है।
सियासी जानकारों का मानना है कि शराबबंदी के जरिए नीतीश अपने लिए एक नया आधार बनाने की कोशिश कर रहे हैं। वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक और समाजशास्त्री डॉ. एस. नारायण कहते हैं, “नीतीश कुमार लंबे समय से सत्ता में हैं। सत्ता में रहते हुए अपनी पार्टी को चार्ज रखने के लिए ऐसे आंदोलन चलाते रहना उनकी मजबूरी है। जब तक केंद्र में कांग्रेस थी वे राज्य को विशेष दर्जा देने का आंदोलन चला रहे थे। लेकिन अब केंद्र में भी उनकी सहयोगी पार्टी की सरकार है तो वे शराबबंदी, दहेजबंदी जैसे अभियान पर जोर दे रहे हैं, ताकि कार्यकर्ता सक्रिय रहें और समर्थकों का नया समूह तैयार किया जा सके।”
इसीलिए नीतीश इस कानून में किसी तरह के संशोधन को तैयार नहीं हैं। जब भी मौका मिलता है अपने इस एजेंडे को आगे बढ़ाने का वे कोई मौका भी नहीं छोड़ते। मुजफ्फरपुर हादसे के दो दिन बाद ही 26 फरवरी को झारखंड की राजधानी रांची में नीतीश ने जदयू कार्यकर्ताओं को शराबबंदी का पाठ पढ़ाया। साथ ही झारखंड सरकार को इसमें सहयोग करने की नसीहत भी दे डाली।