“मेरे सचिवों को पूरा अधिकार है कि वह मुझसे असहमत होने पर अपनी राय लिखकर असहमति जताएं। मैंने कहा है कि यदि आप अपने विचार ईमानदारी से लिख नहीं सकते तो बेहतर होगा कि मेरे साथ काम करना छोड़ दें अन्यथा मैं आपके बदले दूसरा सचिव रख लूंगा।”
यह बात 21 अप्रैल 1947 को आइएएस प्रोबेशनर्स के पहले बैच को संबोधित करते हुए लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने कही थी। यह बात बहुत कम लोगों को पता होगी की अंतरिम सरकार के गृह मंत्री के तौर पर पटेल ने ही 21 अक्टूबर 1946 को आइसीएस को आइएएस में बदलने का निर्णय लिया था, जिसके कारण वे भारतीय प्रशासनिक सेवा के संस्थापक माने जाते हैं। पटेल का उपरोक्त कथन सिर्फ एक निर्देश ही नहीं बल्कि मंत्रियों, सचिवों और पूरी नौकरशाही के लिए मार्गदर्शी सिद्धांत था। इस पर अमल जारी रहता तो आज देश की नौकरशाही ही नहीं बल्कि राजनीति की सेहत भी बहुत अच्छी होती। इस बीच सामाजिक मूल्यों में आई गिरावट का असर स्वाभाविक रूप से शासन और प्रशासन पर पड़ा। इसके बावजूद 20 फरवरी 2018 की घटना सिर्फ अप्रत्याशित ही नहीं थी बल्कि स्थान, समय, किरदारों के कारण सदमा देने वाली थी। दिल्ली में मुख्यमंत्री निवास में, मुख्यमंत्री व विधायकों की मौजूदगी में मुख्य सचिव के साथ हाथापाई ने 20 फरवरी की साधारण रात को एक आशंकाओं भरी लंबी काली रात में बदल दिया।
भारत की संघीय व्यवस्था में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच अधिकारों और कर्तव्यों का स्पष्ट विभाजन है। कार्यपालिका के दो प्रमुख स्तंम्भों में से ‘पॉलिटिकल एक्जीक्यूटिव’ का काम नीति निर्धारण है और ‘परमानेंट एक्जीक्यूटिव’ का काम नीति निर्धारण में मदद करने के साथ ही क्रियान्वयन सुनिश्चित करना भी है। दोनों के काम को लेकर कोई टकराव नहीं हो ऐसी स्पष्ट व्यवस्था हमें विरासत में मिली है। इसके बावजूद कार्यपालिका और विधायिका के बीच से अनेक बार इस बात को लेकर विरोध के स्वर भी उठे कि उन्हें ‘ज्यूडिशियल एक्टिविज्म’ का शिकार होना पड़ा है लेकिन कार्यपालिका और विधायिका के बीच का टकराव पक्ष और विपक्ष के राजनीतिक दलों के टकराव तक सीमित रहा। इसके अतिरिक्त ‘डॉक्ट्रिन ऑफ मिनिस्टीरियल रिस्पॉन्सिबिलिटी’ के अनुसार नौकरशाही की जवाबदेही विधानसभा के प्रति हो, जो सरकारी काम-काज या अन्य मंचों पर मंत्रीगण के माध्यम से ही होती है। मोटे तौर पर शासन का मुखिया मुख्यमंत्री होता है तो प्रशासन का मुखिया मुख्य सचिव। इस तरह मुख्यमंत्री और मंत्रीगण अपने सचिवों के लिए रक्षक की भूमिका में होते हैं जबकि दिल्ली में तो रक्षक ही भक्षक बन गए। वास्तव में इन दोनों का आपसी तालमेल अंदरूनी मामला है, जिसमें उभरने वाले अंतर्विरोध का समाधान सरकार के भीतरीखानों में होना चाहिए।
अस्सी के दशक में इंग्लैंड में टेलीविजन पर एक कॉमेडी सीरियल चलता था ‘यस मिनिस्टर’, जिसमें मंत्री और सचिवों के बीच तनाव को काफी शालीन और सौम्य टकराहट के रूप में दिखाया गया था। बाद में शासन-प्रशासन के रिश्तों पर चुटीले सवाल उठाने वाला हिन्दी सीरियल बना ‘जी मंत्री जी’, लेकिन दिल्ली की घटना तो ‘टॉम एण्ड जेरी’ की याद दिलाती है। इतिहास गवाह है कि कम पढ़े-लिखे एवं शासन-प्रशासन की मूलभूत जानकारी नहीं रखने वाले राजनेताओं ने भी लोकतंत्र के प्रति अपनी दृढ़ निष्ठा और आस्था के कारण नियमों, कानूनों और परंपराओं को सीख लिया तथा सफल मुख्यमंत्री के रूप में अपना नाम दर्ज करा गए।
निश्चित तौर पर नवाचारी और जनहितकारी कार्यों की वजह से मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की सराहना हुई है लेकिन राजनीति के नए मिथक गढ़ने का मतलब अराजकता का चरमोत्कर्ष नहीं हो सकता, चाहे गुनहगार, अपने गुर्गों को खुली छूट देकर तमाशा देख रही आंखें हों या जनता के द्वारा निर्वाचित वे हाथ, जो प्रशासनिक मुखिया के ऊपर उठ रहे थे। यह मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि छोटी-छोटी घटनाएं संक्रामक रूप से फैलती हैं और बड़ी घटनाओं को जन्म देती हैं।
दिल्ली के साथ यह समस्या तो है कि इसे 1951 में पूर्ण राज्य का दर्जा मिला जो राष्ट्रीय राजधानी के कारण 1955 में छिन गया। 1993 में इसे अर्ध राज्य की स्थिति पर संतोष करना पड़ा। निःसंदेह दिल्ली की विचित्र स्थिति के कारण शासन-प्रशासन के बीच समन्वय करना किसी भी मुख्यमंत्री के लिए बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य है, खासकर जब केंद्र और राज्य में अलग-अलग दलों की सरकारें हों। वैसे भी अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली राज्य की मौजूदा स्थितियों में ही चुनाव लड़ा था और उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य के स्टेटस में कोई बदलाव नहीं हुआ है। लेकिन एक कुशल राजनेता के सामने ऐसी विपरीत परिस्थितियों की चुनौती होती है जिसमें उसे अपने सीमित दायरे में नौकरशाही को साधना पड़ता है और आवश्यकतानुसार अपने व्यक्तित्व और सोच को ढालते हुए प्रजातांत्रिक ढंग से काम का रास्ता अपनाना पड़ता है। दिल्ली हो या अन्य राज्य नौकरशाही के प्रति जनता की हताशा गुस्से में बदल रही है लेकिन ऐसे वातावरण में विश्वास की अलख जगाना भी कुशल राजनेता से अपेक्षित होता है। अतः किसी भी परिस्थिति में हताशा को हिंसक रूप देकर अवसरों की तलाश करना भी अनुचित ही कहलाएगा।
किसी राज्य को कुशलता और सफलतापूर्वक चलाने में मुख्यमंत्री का सौम्य और सद्भावी व्यक्तित्व बहुत मायने रखता है। शासन और प्रशासन के बीच गतिरोध जनता के लिए शामत लेकर आता है, जिसका लंबा चलना तकलीफदेह ही होता है। केजरीवाल से समाधानकारक पहल की अपेक्षा किसी व्यक्तिगत के रूप में नहीं की जाए तो भी लोकतांत्रिक सरकार के मुख्यमंत्री होने के नाते संविधान, संसदीय लोकतंत्र की परंपराओं के संरक्षण-संवर्धन की जवाबदारी तो है ही। कहा जाता है कि जब सवाल निजाम का हो तो शासन प्रमुख का चेहरा नहीं बल्कि उसका इकबाल दिखना चाहिए। दिल्ली में ‘शासन’ और ‘प्रशासन’ के बीच गतिरोध यदि शीघ्र समाप्त नहीं होता है तो केंद्र सरकार का हस्तक्षेप अपरिहार्य हो जाएगा।
(लेखक छत्तीसगढ़ राज्य में मुख्यमंत्री सहित विभिन्न विभागों के प्रमुख सचिव हैं। लेख में व्यक्त उनके विचार निजी हैं)