भाग-दौड़, गैर-बराबरी, रची जा रही गरीबी और बदलती जीवन शैली में जीवन के लिए सबसे बड़ा संकट है अवसाद और हिंसा। हाल ही में इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च, पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया, इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स ऐंड ईवेल्युएशन और भारत सरकार के स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग ने एक रिपोर्ट जारी की है। रिपोर्ट का नाम है-इंडिया: हेल्थ ऑफ नेशंस स्टेट्स। यह रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 1990 से 2016 के बीच हमारी औसत आयु 10 से 15 साल बढ़ गई है। यही रिपोर्ट बताती है कि 15 से 39 साल के आयु वर्ग में ज्यादातर राज्यों में मृत्यु का कारण हिंसा और आत्महत्याएं हैं। जी हां! युवाओं की मौत का सबसे बड़ा कारण हिंसा और आत्महत्याएं हैं। दुनिया के समान सामाजिक-जनसांख्यिकीय वर्गों के बीच आत्महत्या के कारण जितनी मौतें होती हैं, भारत में वह दर दो गुनी है।
क्या खुद को खत्म कर लेना आसान होता है? जिंदगी में कई कोने होते हैं, जहां हम अपने लिए जगह खोजते हैं। उम्मीदें हर यात्रा की शुरुआत होती हैं, बिना उम्मीद के अपना कोना नहीं खोजा जा सकता। किसान कभी यह सोच कर बीज नहीं बोता है कि उसकी फसल बर्बाद हो जाएगी! विद्यार्थी सोचता तो यही है कि वह उत्तीर्ण हो जाएगा! बीमार व्यक्ति को उम्मीद होती है कि वह ठीक हो जाएगा! बेरोजगार व्यक्ति की आंखों में उम्मीद होती है कि उसे काम मिलेगा! उम्मीद ही तो आधार है; पर हमारी सरकार अब केवल ‘आधार संख्या’ के भरोसे बैठ गई है। जीवन की हर बुनियादी जरूरत को पूरा करने के लिए अब लोगों के पास ‘आधार’ होना चाहिए। उम्मीद को ‘आधार कार्ड’ से लड़ा दिया गया है। व्यवस्था ‘आधार कार्ड’ के पक्ष में है। उम्मीद अब अकेली रह गई है।
लंबी, गंभीर या पीड़ादायक बीमारी व्यक्ति को कभी-कभी विषाद, पराभव और विषण्णता की ऐसी चरम स्थिति में ले जाती है, जब वह अपना अंत कर लेना चाहता है। हकीकत यह है कि व्यक्ति को हमेशा बीमारी ही मृत्यु तक नहीं ले जाती। कई मर्तबा बीमारी से पहले व्यक्ति खुद को मृत्यु तक ले जाता है और आत्महत्या कर लेता है। भारत में गरीबी, बेरोजगारी, कर्ज, पारिवारिक समस्याएं, प्रेम संबंधों की असफलताएं, परीक्षाओं में नाकामी, किसानों की फसल बर्बादी सरीखे कई कारण हैं, जिनके चलते लोग अपना जीवन खत्म कर लेते हैं। इनमें से बीमारी एक बड़ा कारण दिखाई देता है।
आंकड़े बताते हैं कि भारत में वर्ष 2015 में 1.34 लाख लोगों ने खुदकशी कर अपना जीवन खत्म कर लिया। आत्महत्याओं में दो सबसे बड़े ज्ञात कारण थे– पारिवारिक समस्याएं और बीमारियां। अब जरा स्वास्थ्य के नजरिए से इस व्यवहार को समझने की कोशिश करते हैं। अकेले वर्ष 2015 में भारत में 21 हजार से ज्यादा लोगों ने ‘बीमारियों के कारण’ आत्महत्या कर ली थी। यह सिर्फ एक साल की संख्या है। अब जरा लंबी अवधि में इसे देखने की कोशिश करते हैं।
राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो (एनसीआरबी) की सालाना रिपोर्टों का अध्ययन बताता है कि वर्ष 2001 से 2015 के बीच भारत में कुल 18.41 लाख लोगों ने आत्महत्या की। इनमें से 3.85 लाख लोगों (लगभग 21 प्रतिशत) ने विभिन्न ‘बीमारियों के कारण’ आत्महत्या की। मतलब, देश में हर घंटे चार लोग बीमारी से तंग आकार आत्महत्या करते हैं। हर पांच में एक आत्महत्या बीमारी के कारण होती है। इस मसले को स्वास्थ्य के अधिकार के नजरिए से देखने की जरूरत है।
15 वर्षों के दौरान बीमारियों के कारण आत्महत्या करने वाले 3.85 लाख लोगों में से 1.18 लाख लोगों ने मानसिक रोगों के प्रभाव में और 2.37 लाख लोगों ने लंबी बीमारियों से प्रभावित होकर आत्महत्या की थी। इनमें अवसाद, बायपोलर डिसऑर्डर, डिमेंशिया और सिजोफ्रेनियां जैसे मानसिक रोगों का असर सबसे ज्यादा दिखाई दिया। ये ऐसे रोग हैं, जिनसे पीड़ित व्यक्ति अपने व्यवहार को ही नियंत्रित नहीं कर पाता है। भारत में इन 15 सालों में बीमारी के कारण सबसे ज्यादा आत्महत्याएं महाराष्ट्र (63,013), आंध्रप्रदेश (48,376), तमिलनाडु (50,178), कर्नाटक (48,053) और केरल (37,465) में हुईं। इन पांच राज्यों में बीमारी के कारण हुई आत्महत्याओं के 64 फीसदी मामले दर्ज हुए।
गौर करने वाली बात है कि देश में पैरालिसिस (9,036), कैंसर (11,099), एचआइवी (9,415) के कारण भी आत्महत्याएं हुईं। वैश्विक अध्ययन बताते हैं कि सामाजिक और सांस्कृतिक कारक भी इस व्यवहार को प्रभावित करते हैं। जिन समुदायों या समूहों की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच सीमित रखी जाती है और जिन्हें स्वास्थ्य सेवाएं हासिल करने से हतोत्साहित किया जाता है; उनमें आत्महत्या की भावना ज्यादा गहरी होती है।
आम तौर पर माना जाता है कि निराशाजनक स्थितियों, भय की भावना, नाउम्मीदी और असुरक्षा की भावना के चलते व्यक्ति जीवन से दूर भागने की कोशिश करता है। भारत में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की लचर स्थितियां इन खतरों से उबरने में लोगों को असहाय बना देती हैं। व्यक्ति को अवसाद से उबारने में परिवार, रिश्ते-नाते और सामाजिक व्यवस्थाएं भारतीय समाज में अहम भूमिका निभाती हैं। लेकिन जैसे-जैसे हमने आर्थिक बदलाव की इस सोच को लागू करना शुरू किया कि व्यक्ति के हित समाज और परिवार से ऊपर होते हैं, इसका असर जीवन पर भी दिखाई देने लगा। बदलते सामाजिक ताने-बाने में ‘गंभीर बीमारियों से पीड़ित’ व्यक्ति को बोझ माना जाने लगा। जबकि बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति भी सजग और चेतनाशील होता है। जब वह देखता है कि परिवार उसके इलाज का खर्च उठाने में अक्षम है या फिर इससे परिवार कर्ज में दब जाएगा तो वह खुदकशी को बेहतर विकल्प मान लेता है। आत्महत्या की कोशिश के बावजूद जीवित बचे लोग बताते हैं कि वे वास्तव में मरना नहीं चाहते थे, बस अपनी तकलीफ को खत्म करने के लिए उन्होंने खुदकशी करनी चाही।
खुदकशी के बारे में कहा जाता है कि ऐसी कोशिश करने वाले सभी लोग मरना नहीं चाहते। इसी तरह मौत चाहने वाला हर व्यक्ति आत्महत्या का प्रयास नहीं करता। किन्हीं खास परिस्थितियों में शायद आत्महत्या का यह विचार मन पर हावी हो जाता होगा कि ऐसा करने से सभी तकलीफों से छुटकारा मिल जाएगा। इस एहसास को केवल इस उम्मीद से दूर किया जा सकता है कि अभी सब खत्म नहीं हुआ है। कल फिर सुबह होगी। परिवार, यार-दोस्त और प्रियजनों का साथ हमें यह आत्मबल हासिल करने में मदद करता है।
सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की लचर हालत और मनोविकारों की उपेक्षा से यह समस्या और विकराल हो जाती है। भारत में स्वास्थ्य पर होने वाले कुल व्यय में से लगभग 80 फीसदी हिस्सा लोगों की जेब से आता है। केवल 20 फीसदी व्यय ही सरकार के खाते से आता है। यह भी एक स्थापित तथ्य है कि हर साल लगभग चार फीसदी लोग तो केवल इसलिए गरीब हो जाते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी बीमारी के इलाज के लिए अपनी तरफ से ‘बहुत ज्यादा खर्च’ करना पड़ता है। भारत में एक करोड़ से ज्यादा लोग मानसिक विकारों की गिरफ्त में हैं, 10 करोड़ लोग गंभीर अवसाद के शिकार हैं, फिर भी हम अपने कुल स्वास्थ्य बजट का केवल 0.06 फीसदी हिस्सा ही मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं। भारत में दस लाख की जनसंख्या पर केवल तीन मनोचिकित्सक उपलब्ध हैं, जबकि मानकों के मुताबिक 56 मनोचिकित्सक होने चाहिए। भारत में 66 हजार से ज्यादा मनोचिकिसकों की जरूरत है। ऐसे में हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था ही लोगों को महंगी और बेलगाम निजी स्वास्थ्य व्यवस्था की शरण में जाने को मजबूर करती है। इसका परिणाम होता है और ज्यादा गरीबी।
किन स्थितियों में आत्महत्या के भाव ज्यादा सक्रिय होते हैं?
-मानसिक विकार (अवसाद, सिजोफ्रेनिया, बायपोलर डिसआर्डर आदि) – दो से 20 गुना ज्यादा
-शराब, नशीली दवाओं, दर्दनिवारक दवाओं पर निर्भरता होने पर – 50 से 70 फीसदी ज्यादा
-उन्माद (एंग्जायटी) – 22 फीसदी ज्यादा
- कैंसर, किडनी खराब होने, एचआइवी, रुमेटाइड आर्थराइटिस – आम लोगों की तुलना में ज्यादा सक्रिय मनोभाव, देखरेख और संवेगात्मक व्यवहार के अभाव में आत्महत्या की कोशिश ज्यादा
(लेखक विकास संवाद केंद्र के निदेशक, सामाजिक शोधकर्ता और अशोका फैलो हैं)