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पहरुओं पर दारोमदार

आत्महत्या या उसकी कोशिश करने वालों में 60-70 फीसदी लोग अवसाद से ग्रसित
ज्यादातर लोग कीटनाशक या जहर पीकर जान देते हैं

जब भी कोई आत्महत्या करता है तो अमूमन हम उसके कारणों पर बात करते हैं। मौजूदा माहौल और तौर-तरीकों की आलोचना करते हुए इसके समाधान की चर्चा करते हैं। खुद ही अपनी मौत का कारण बनने की जो आत्मघाती प्रवृत्ति है जिसे हम आत्महत्या कहते हैं, वह न केवल आत्महत्या करने वालों बल्कि उसके परिवार, समुदाय और समाज पर भी असर डालती है।

एक आंकड़े के मुताबिक, हर साल दुनिया भर में करीब आठ लाख लोग आत्महत्या करते हैं। साल 2020 तक यह संख्या बढ़कर 15 लाख तक पहुंचने का अनुमान है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दक्षिण एशिया में दो लाख 58 हजार मौतों का कारण आत्महत्या है जहां हर 40 सेकेंड में एक शख्स आत्महत्या कर रहा है।

पिछले तीन दशक में भारत में आत्महत्या की दर 43 फीसदी बढ़ी है। सवा लाख से ज्यादा लोग हर साल आत्महत्या कर रहे हैं। वहीं, इसकी कोशिश इससे दस गुना ज्यादा लोग करते हैं। पूरी दुनिया में 15–29 साल की युवा आबादी के बीच मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण आत्महत्या है। भारत में भी आत्महत्या करने वालों में बड़ी तादाद 30 साल से कम के लोगों की होती है। भारत में आत्महत्या करने वालों में 71 फीसदी 44 साल से कम आयु के होते हैं। वयस्क आबादी की ये आत्महत्याएं समाज पर भावनात्मक और आर्थिक बोझ डालती हैं।

किशोरों और युवाओं में आत्महत्याएं ज्यादा होने का कारण कई जैविक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारणों से पैदा होने वाला तनाव है। माता-पिता और शिक्षकों की अपेक्षाओं, साथियों के दबाव, पारिवारिक समस्याओं, शैक्षणिक तनाव, भविष्य की चिंता और घर का माहौल इस तनाव को बढ़ा सकता है। इससे उत्पन्न निराशा, अकेलापन, चिंता और अवसाद जैसी मानसिक परेशानियां आत्महत्या तक ले जा सकती हैं।

लोग कई तरीकों से आत्महत्याएं करते हैं। भारत में कीटनाशक या जहर पीकर मरना सबसे प्रचलित तरीका है। वास्तव में, विश्व की 30 फीसदी आत्महत्याएं कीटनाशक की वजह से होती हैं। फांसी लगाना या आत्मदाह अन्य प्रमुख तरीके हैं। भारत में बड़ी तादाद में लोग नशे की हालत में खुदकशी या ऐसा करने का प्रयास करते हैं।

परंपरागत तौर पर आत्महत्या को मानसिक समस्याओं से जोड़कर देखा जाता है। इन समस्याओं का इलाज संभव है। मसलन, अवसाद का उपचार आत्महत्याएं रोक सकता है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि आत्महत्या या ऐसी कोशिश करने वाले 60-70 फीसदी लोग अवसाद से ग्रसित होते हैं। हालांकि, कम और मध्य आय वाले देशों में मानसिक परेशानी आत्महत्या का उतना बड़ा कारण नहीं है जितना उच्च आय वाले देशों में है।

इसमें दो राय नहीं कि आत्महत्या स्वास्थ्य से जुड़ा मसला है। उपचार के साथ-साथ सामाजिक और जन-स्वास्थ्य कार्यक्रमों के जरिए इस समस्या से निपटना चाहिए। जन-स्वास्थ्य पर जोर देने का कारण यह भी है कि आत्महत्या के लिए सामाजिक कारणों की स्वीकार्यता मानसिक कारणों के मुकाबले अधिक है। और फिर भारत में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े काबिल पेशेवरों की संख्या भी कम है। वैसे, हैरानी की बात है कि हाल के दशकों में मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों की संख्या बढ़ने के बावजूद आत्महत्या की दर घटने के बजाय बढ़ गई है।

हाल तक भारत में खुदकशी के प्रयास को अपराध माना जाता था। लेकिन 2017 में बना मानसिक स्वास्थ्य कानून आत्महत्या को गैर-आपराधिक बनाता है। इससे खुदकशी की कोशिश के मामलों में पुलिस से डरे बिना इलाज मुहैया कराने में मदद मिलेगी। आत्महत्या से जुड़े सही आंकड़े जुटाने और योजनाएं बनाने में यह कानून मददगार साबित हो सकता है। मौजूदा मानसिक स्वास्थ्य कानून के तहत नीति-निर्माताओं को मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े पेशेवर लोगों के साथ मिलकर एक व्यापक राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम रणनीति तैयार करनी चाहिए। सरकार को इसके लिए पर्याप्त संसाधन भी मुहैया कराना चाहिए। समस्या की गंभीरता को देखते हुए एक चुस्त निगरानी और सूचना प्रणाली विकसित करने की जरूरत है ताकि खुदकशी के तरीकों, कारणों और भौगोलिक पैटर्न संबंधी सटीक जानकारियां समय से जुटाई जा सकें। खुदकशी की रोकथाम के लिए जो भी प्रयास किए जा रहे हैं उनकी निगरानी और असर को जानने के लिए भरोसेमंद आंकड़े जरूरी हैं। सरकार के डिजिटल इंडिया अभियान में यह मुश्किल काम नहीं है।

खुदकशी की रोकथाम के लिए समाज में पहरुए की भूमिका निभाने वाले शिक्षकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, युवा नेतृत्व, परिवार के सदस्यों, समाजसेवकों, पुलिस और धार्मिक नेताओं की भागीदारी भी जरूरी है। युवाओं और महिलाओं में आत्मघाती प्रवृत्तियां बढ़ने वाले खास मनोवैज्ञानिक और सामाजिक तनावों की पहचान भी जरूरी है। कीटनाशकों तक पहुंच और शराब के सेवन पर अंकुश के साथ-साथ समुदाय आधारित रोकथाम रणनीतियां अपनाने की जरूरत है जो आपसी टकराव को रोकने और व्यवहार को सुधारने में मददगार हों।

आत्महत्या की रिपोर्टिंग में मीडिया को भी अधिक जिम्मेदार भूमिका निभाने की जरूरत है। अनुचित रिपोर्टिंग आत्महत्या को सनसनीखेज बना सकती है जिससे आत्महत्या की नकल का खतरा बढ़ सकता है। युवाओं और किशोरों में सोशल मीडिया के बढ़ते इस्तेमाल और समाज में आधुनिक तकनीक और बदलाव के मद्देनजर खुदकशी की रोकथाम के लिए नए तरीके अपनाए जा सकते हैं। सोशल मीडिया पर किसी व्यक्ति के व्यवहार को देखते हुए उसकी आत्मघाती प्रवृत्ति को पहचाना जा सकता है।

(लेखक एम्स, नई दिल्ली के मनोरोग चिकित्सा विभाग में प्रोफेसर हैं)

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