पहली-पहली बार इंटरनेट हमारे सामने सपनों का पुलिंदा लेकर आया था। तब हमसे कहा गया था कि दुनिया अब मुक्त होगी, सरहदें नहीं रह जाएंगी, ज्ञान का एक नया आदर्श विकसित होगा और दुनिया भर में लोकतंत्र एक स्थायी परिघटना बन जाएगा। ये तमाम वादे अपनी मुकम्मल शक्ल लेने से पहले ही रेत-से भुरभुरे साबित हुए। जो सामने आया, वह वास्तविक जगत की एक प्रतिच्छाया थी जो कानूनी फिसलन के गड्ढों से पटी हुई थी। जहां कोई मां-बाप अपने बच्चे को मौजूद देखे तो सिहर जाए। इसके बावजूद इंटरनेट अब पर्याप्त सार्वभौमिक चीज है, जहां हर कोई खिंचा चला आता है (2016 में एक औसत फेसबुक उपयोगकर्ता रोजाना 50 मिनट उस पर बिता रहा था)।
इंटरनेट के इस दौर में 2016 की बात बहुत पुरानी हो चली है। यहां एक दशक एक सदी के बराबर होता है। इस दशक के आरंभ में एक किशोर ऑर्कुट पर अपने दोस्त के लिए गवाही लिखने के तरीके खोजता-फिरता था। आज दो साल का बच्चा अपने बाप के स्मार्टफोन पर पेपा पिग के कारनामों को देख ताली बजाता है और चहकता है। स्थिति हालांकि अब भयावह से भी आगे की कही जा सकती है, क्योंकि बच्चे सूचना के सुपर हाइवे के बिलकुल करीब खेल रहे हैं। कई देश इस मामले में कानून ला चुके हैं। अब भारत भी इस मसले को समझने की कोशिश कर रहा है कि आखिर वह क्या अवस्था हो, जब बच्चों को इस विशाल आभासी जगत में खुला छोड़ा जा सके।
ऐसे ही एक कानून का ढांचा तैयार करने के लिए गठित डेटा सुरक्षा पर श्रीकृष्णा कमेटी ने 2017 के अंत तक एक श्वेतपत्र जारी किया, जिसमें एक अध्याय का शीर्षक था ‘चाइल्ड्स कन्सेन्ट’ यानी बच्चे की सहमति। इसमें कमेटी ने इस पर विचार आमंत्रित किए थे कि आखिर यह कानून कैसा होना चाहिए, उपयुक्त अवस्था कैसे तय की जाए और सहमति को कैसे परिभाषित किया जाए। यहां ‘सहमति’ बुनियादी अवधारणा है। बच्चों के मामले में खासकर जब आप यौनिकता जैसे विषयों की बात करते हैं तो इस शब्द का कोई साफ मतलब नहीं रह जाता। श्वेतपत्र कहता है, ‘बच्चे एक अरक्षित समूह हैं, जिसकी निजी सूचनाओं की अगर ज्यादा सुरक्षा की जाए तो उससे उन्हें अधिक लाभ मिल सकता है।’
इस मामले में इकलौता कानून जो लागू हो सकता है वह 1872 का है। द इंडियन कॉन्ट्रैक्ट एक्ट कहता है कि कोई भी शख्स 18 साल की अवस्था के बाद एक अनुबंध पर दस्तखत कर सकता है-जाहिर तौर पर यह अप्रासंगिक है, क्योंकि इंटरनेट पर मौजूद हर तीन व्यक्ति में से एक 18 साल से नीचे का है। यहां तक कि युवा भी गूगल और एफबी के मामले में ‘कॉन्ट्रैक्ट’ को लेकर दिग्भ्रमित हैं।
सवाल है कि इंटरनेट पर बच्चे वास्तव में कितने असुरक्षित हैं? ‘स्माइल फाउंडेशन’ के सह-संस्थापक शांतनु मिश्रा ब्लूव्हेल का हवाला देते हैं और हाल में स्कूलों में हुई हत्याओं में आई तेजी का उदाहरण देकर बताते हैं कि हमारे इर्द-गिर्द का माहौल ‘अत्यंत खतरनाक’ है। वे कहते हैं, “उच्च तकनीक की लत ने माता-पिता के साथ बच्चों के संवाद की संस्कृति को खत्म कर डाला है।”
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, भारत में 2013 से 2015 के बीच ऑनलाइन बाल शोषण के 1,540 से ज्यादा मामले दर्ज किए गए। ‘सेव द चिल्ड्रेन’ के एक प्रवक्ता कहते हैं, “बढ़ती ऑनलाइन उपस्थिति के साथ सूचना के अभाव और निजता तय करने की प्रक्रियाओं की कमी से बच्चे शोषण और उत्पीड़न के प्रति अरक्षित होते हैं।’’ ‘चिल्ड्रेन फर्स्ट’ में क्लिनिकल मनोचिकित्सक स्वर्णिमा भार्गव कहती हैं, “अरक्षितता आंशिक रूप से स्क्रीन की लत के चलते बढ़ती जाती है।” डेटा प्राइवेसी पर काम करने वाले वकील अपर गुप्ता भी इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि कैसे बच्चों को आज छोटी उम्र से ही तमाम उपकरण मुहैया करवा दिए जा रहे हैं-न केवल शैक्षणिक औजार के रूप में बल्कि समाजीकरण के लिए भी। इससे उन पर खतरा और बढ़ जाता है।
कमेटी ने अपने श्वेतपत्र में पूछा है कि कौन-सी वेबसाइटों को बाल संरक्षण का अनुपालन करना चाहिए, अगर इसे लागू किया जाए। कुछ जानकारों को लगता है कि सभी वेबसाइटें इस दायरे में आनी चाहिए। कुछ इससे अलहदा राय रखते हैं, लेकिन मोटे तौर पर अधिकतर इससे सहमत हैं कि बच्चों को सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों से दूर रखा जाए। स्वर्णिमा कहती हैं, “सारे सोशल मीडिया को इसमें शामिल किया जाना चाहिए, साथ ही गूगल जैसे लोकप्रिय सर्च इंजन भी।” फेसबुक और ट्विटर ने साइनअप करने के लिए 13 साल की उम्र सीमा तय की हुई है, लेकिन बच्चे अपनी झूठी उम्र बताकर यहां खाता खोल लेते हैं। अपर गुप्ता का मानना है कि जो भी कानून बने, उसे ‘एक स्पष्ट कसौटी तैयार करनी होगी, जिसके अंतर्गत नियामक कार्रवाई करे। एक अहम कसौटी यह होनी चाहिए कि उक्त वेबसाइट बच्चों की ओर लक्षित है या फिर वह बच्चों को अपने आप ही अपनी सेवाओं का इस्तेमाल करने की छूट देती है।’ डेटा से भी खतरे हैं: किसी बच्चे का नाम महज गूगल में खोजने पर कई मामलों में वह उपयोगकर्ता को उस बच्चे के सहपाठियों तक ले जाता है। यहीं पर सारे खतरे शुरू होते हैं: अनैतिक कर्मों (जैसे लक्षित विज्ञापन) से लेकर बेहद अनैतिक चीजों (जैसे ट्रैकिंग और बाल यौन शोषकों द्वारा ग्रूमिंग) तक। कमेटी को लगता है कि बच्चों की सुरक्षा को तय करने के लिए स्कूलों और सरकारों को और ज्यादा काम करना चाहिए। स्कूल कहते हैं कि वे अपनी तरफ से बहुत ज्यादा कुछ नहीं कर सकते। नई दिल्ली के द इंडियन स्कूल की प्रिंसिपल तानिया जोशी कहती हैं, “अपनी ओर से तो हम नहीं चाहते कि किसी भी बच्चे का डेटा सार्वजनिक हो।”
विज्ञापन और ट्रैकिंग के उद्देश्य से किसी बच्चे के डेटा के इस्तेमाल पर ज्यादातर जानकारों की राय अस्पष्ट है। स्वर्णिमा कहती हैं, “बच्चों को लक्षित कर के उन्हें उपभोक्ता में तब्दील किए जाने के चलन को जहां तक रोका जा सके रोका जाना चाहिए।” शांतनु मिश्रा कहते हैं कि विशेष रूप से बच्चों से एकत्र डेटा का इस्तेमाल तो नहीं ही किया जाना चाहिए। गुप्ता इंटरनेट पर अल्गोरिथम की प्रकृति को लेकर चेताते हैं और कहते हैं कि ये ‘कई किस्म के भावनात्मक उद्वेलन पैदा करने में सक्षम हैं।’
सारा मामला हालांकि यहीं आकर टिकता है कि आखिर कौन-सी उम्र में बच्चों को अपने बल पर इंटरनेट के आकाश में खुला छोड़ना चाहिए। श्वेतपत्र इस मामले में दूसरे देशों के मानकों का जिक्र करता है। अमेरिका में ऑनलाइन बाल संरक्षण कानून कोप्पा में 13 वर्ष की अवस्था का प्रावधान है, जिसके तहत इससे कम उम्र के बच्चों की निजता को सुरक्षित रखने का उद्देश्य है। यूरोपीय संघ के जीपीआर में यह उम्र 16 साल रखी गई है। दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में यह उम्र 18 साल है। जिन जानकारों से हमारी बातचीत हुई है, उनका कहना है कि इंटरनेट साक्षरता बढ़ने के साथ ही मानक उम्र की सीमा कम की जा सकती है। संख्या के मामले में इनके बीच मतभेद हैं। अपर गुप्ता मानते हैं कि इसके बजाय बच्चों को किसी बाहरी गतिविधि में संलग्न किया जाना चाहिए, जैसे कहीं की यात्रा। वे कहते हैं, “मुझे लगता है कि ऑनलाइन सेवाओं के इस्तेमाल के लिए 18 साल की न्यूनतम उम्र ज्यादा है, हमें 13 या 15 साल का मानक अपनाना चाहिए।” ‘सेव द चिल्ड्रेन’ का मानना है कि कॉन्ट्रैक्ट एक्ट की तरह ही बच्चों के लिए 18 साल की अवस्था निर्धारित की जानी चाहिए। ‘स्माइल फाउंडेशन’ के मिश्रा का कहना है कि 14 से 16 साल की अवस्था के बीच बच्चों में ‘अच्छे और बुरे के फर्क का ज्ञान’ हो जाता है। फिर भी 18 साल की उम्र तक माता-पिता को बच्चों के मामले में निर्णय लेने की प्रक्रिया पर निगरानी रखनी चाहिए।
जहां तक अभिभावकों का सवाल है तो इस पर जानकार मानते हैं कि उन्हें बच्चों पर ज्यादा निगाह रखना ही सबसे बेहतर है। बेहतर हो कि वे सहमति की अवधारणा को समझने में थोड़ा वक्त लगाएं।
भार्गव कहती हैं, “उपभोक्ता ज्यादा जटिल फैसले लें, उससे पहले हम उम्मीद करते हैं कि उनमें उपभोग संबंधी साक्षरता को बढ़ावा देना जरूरी है।” जोशी बताती हैं कि उनका स्कूल कंप्यूटर साक्षरता क्लास लेने के लिए साइबर अपराध विशेषज्ञों को बुलवाता है। वे बताती हैं कि उपभोग का यह स्तर अब ‘नौवीं नहीं, बल्कि तीसरी कक्षा के विद्यार्थियों में पाया जा रहा है।’
गुप्ता के मुताबिक, जागरूकता और विशेषज्ञता समय के साथ विकसित होती है, जैसे किसी उत्पाद पर आइएसआइ का निशान। उनका कहना है कि नियामक संस्थाएं स्पष्ट नियम तय करें और वे ईयू के जीडीपीआर का हवाला देते हैं जो ‘यह मानता है कि सहमति कोई स्वतंत्र सिद्धांत नहीं है, बल्कि यह सीमित उद्देश्य के साथ आती है।’ इसका अर्थ यह हुआ कि आप जो करें न्यूनतम डेटा के इस्तेमाल से करें और अपनी निजता के संरक्षण को डिजाइन भी करें-जो प्रौद्योगिकी संबंधी सभी ऐप्स के भीतर मौजूद होता है। मसलन, इसका अर्थ यह हुआ कि नेटबैंकिंग का कोई एप्लिकेशन आपसे डिवाइस पर लगे माइक्रोफोन का इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं मांगेगा। वे कहते हैं कि बार कानून के भीतर उद्देश्य की सीमा, डेटा की जरूरत और अनुपात, उद्घाटन, डेटा संग्रहण और जवाबदेही समेत इन्हें स्वीकार न करने के प्रावधान डाल दिए जाएं तो उपभोक्ताओं की मांग यह तय कर देगी कि ‘ज्यादा ऐसे ही एप्लिकेशन आएंगे जो न सिर्फ नियमों का अनुपालन करते हों, बल्कि उपभोक्ता के हितों का भी ध्यान रखते हों।’
इतने के बावजूद इंटरनेट के संबंध में साक्षरता का सवाल अब भी बहुत चीजों को संबोधित नहीं कर सका है और अभिभावकों को यह समझना होगा कि उनके सामने कितना बड़ा खतरा मौजूद है। सत्ता में मौजूद लोग भले ही सभी के लिए डेटा सुरक्षा की कवायद में जुटे हुए हैं, लेकिन डिजिटल दौर में पैदा हुई पीढ़ी पर विशेष ध्यान देना होगा, क्योंकि वह इसी के बीच पैदा हुई है और उसका भविष्य इससे जुड़ा है।