अक्सर लिखने का निमंत्रण संकट का क्षण होता है। अचानक लगने लगता है कि कितने कालातीत और पुरातन हो चुके हैं। मुझसे जब प्रेम-संबंधों के बारे में लिखने को कहा गया तो मुझे महसूस हुआ कि मैं पुराना पड़ चुका हूं। मेरे समय के क्रांतिकारी विचार भी आज मेरे छात्रों की भाषा-बोली के आगे कुछ घिसे-पिटे-से लगते हैं, जो जानना चाहते थे कि क्या मुझे मालूम था कि छलावा क्या होता है। उनसे चिढ़ने के बजाय अचानक मुझे महसूस हुआ कि शब्द के पुरातत्व या उसके मूल को जानना जरूरी है। यह शब्द और उसके अर्थ संसार की रूपरेखा तैयार करने का एक मौका था।
मेरे समय में, प्रेम-संबंध प्रत्यक्ष मुलाकात का चमत्कार पैदा करता था। मार्टिन बुबेर और इमॅन्यूएल लेविनास जैसे दार्शनिक चमत्कार या दो व्यक्तियों (मैं और तुम) के रिश्ते से पैदा होने वाले पवित्र भाव को सांसारिक वस्तुओं से लगाव की तुच्छता का फर्क बताते हुए भावनाओं में बह जाते हैं। पहले संबंध में मनुष्य की संपूर्ण सत्ता प्रकट होती है जबकि दूसरा लगाव व्यावहारिकता और अवैयक्तिकता की ओर उसकी विकृति का संकेत देता है।
फिर भी संबंधों का विचार हमेशा ही क्षणभंगुर और नएपन की भावना लिए रहता था। ऐसा प्रतीत होता था कि संबंध भूमिकाओं और व्यक्तियों का मामला होता है और फिर भी संस्थागत स्वरूप और बंधनों से मुक्त रहता है। ‘क्या आप रिश्ते में हैं’ वाक्य वर्तमान की निरंतरता, किसी प्रतिज्ञा या स्थायी अनुबंध के बिना वर्तमान की तात्कालिकता का भाव पैदा करता है। हमारे समय में संबंध की कल्पना किंवदंतियों की तरह की जाती थी। उन दिनों जोड़े चर्चा में रहते थे। जैसे मां-बेटी, सास-बहू या समवयस्कों के बीच दोस्तों का जोड़ा। इसमें स्टीरियोटाइप हो जाने का भाव भी था, जो हंसी-मजाक और भाग्य को कोसने का भी विषय बना करता था। उन दिनों ज्यादातर चुटकुले इन्हीं संबंधों के इर्दगिर्द बुने जाते थे। इनसे आप सीखते थे कि स्टीरियोटाइप रिश्ते निभाए जाने योग्य और मजबूरी वाले दोनों हो सकते हैं। इसी विरोधाभास से बदलाव की कहानियां भी निकलती थीं।
आमने-सामने मुलाकात का विचार आम तौर पर सहजता, अंतरंगता, प्रामाणिकता, स्पर्श की तात्कालिक आवश्यकता और स्मृति की शक्ति के बारे में होता था। कोई भी इसका पूर्वानुमान लगा कर इसकी अहमियत घटा नहीं सकता था। लेकिन जैसे-जैसे शहरीकरण का जोर बढ़ा और समाज में व्यक्ति के दायरे अलग होने लगे, आमने-सामने मुलाकातों के लिए भी प्रबंधकीय गुण की दरकार पड़ने लगी। लोगों ने वह व्याकरण हासिल कर लिया है जिसे समाजशास्त्री इरिंग गॉफमैन ‘प्रभावी प्रबंधन’ कहते थे। गॉफमैन की बात संक्षेप में कहें तो रोजमर्रा की जिंदगी में खुद को पेश करना गजब की कलाकारी जैसा बन गया है, जिसमें व्यक्ति स्वयं एक कलावस्तु और तराशा हुआ बन जाता है। इससे डेल कार्नेगी की हाउ टू विन फ्रेंड्स ऐंड इन्फ्लुएंस पीपल्स जैसी गहरी उम्मीद जगाने वाली पुस्तकों के प्रकाशन का द्वार खुल गया जो ऐसी सनक को हवा देती हैं कि कुछ खास तरीकों और चालाकियों से दोस्ती गांठी जा सकती है। कार्नेगी की किताब उस एक अदद गृह विज्ञान की बाइबल सरीखी बन गई, जिसे अब व्यक्तित्व विकास कहा जाता है।
एक दौर वह भी था जब चरित्र निर्माण और नैतिकता पर जोर दिया जाता था। लेकिन अब हम व्यक्तित्व विकास के महत्व के बारे में सुनते हैं जो संबंधों के लिए व्यक्ति को ऊपर से आकर्षक दिखाने के नए सौंदर्य प्रसाधन की तरह है।
दरअसल, संबंधों को सहज बनाने के तौर-तरीकों की बातें लोक जीवन में, नीतिवचनों और मुहावरों के रूप में प्रचलित रही हैं। कार्नेगी ने इसी लोक ज्ञान को विज्ञान की तरह पेश किया। सो, एक पूरी पीढ़ी के लिए हाउ टु मेक ए फ्रेंड ऐंड इन्फ्लुएंस पीपुल बाइबल की तरह बन गई, जिसके नुस्खों से वे अपने रोजमर्रा के व्यवहार तय करने लगे। लिहाजा, कार्नेगी भी फ्रैंक गिलबर्थ और पीटर डकर जैसे प्रबंधन विशेषज्ञों की तरह प्रसिद्ध हो गए। इन सभी ने एक मायने में विज्ञान को लोक संस्कृति में ढालने का अध्यवसाय किया। इस तरह की किताबें प्रवासी समाजों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं जहां नवागंतुक को टेबल मैनर्स से लेकर संबंधों की नई रीति के खेल में माहिर होना चाहता है।
यहां संबंधों को मौखिक, आमने-सामने और तात्कालिक रूप में देखा गया था। प्रिंट के उदय ने पत्र लेखन के जरिए रोमांटिक होने का अतिरिक्त गुण जोड़ा था। इंटरनेट के इस युग में कुछ ही लोग पत्र लेखन को समझ सकते हैं। पत्र स्मृति को ताजा करता था, भाषा की बारीकियां याद दिलाता था, उसमें भावनाओं की दिल से स्वीकारोक्ति थी, निजता थी, गोपनीयता थी और वह उस समय की विभिन्न संस्कृतियों को समझने का जरिया था। इस अर्थ में प्रेम पत्र संबंधों के हर रोज के स्मारक थे, जहां नुकसान, अनुपस्थिति, साझा करने का उत्साह, अव्यक्त भावनाओं की स्थिति का संदेश था जो आज के टेलीग्राफिक वाक्य कभी नहीं कर सकते।
पत्र जिस तरह की भावनाएं पहुंचाते थे, सेल्फी तो सपने में भी नहीं सोच सकती कि उससे इस तरह की भावनाओं का आदान-प्रदान हो सकता है। ऊपर से सेल्फी की मियाद निश्चित होती है। पत्रों को दुलारा गया और वे भविष्य के लिए लिखे गए। पत्र उस अवधि की यादों को ले आते हैं जिसमें उस वक्त की गहराई, भेद, भावनाएं होती हैं। जिसे इंटरनेट की सतही दुनिया में हमने खो दिया है। आज प्रेम पत्र लगभग अतीतानुराग की बात हो गई है। चाहे वह आमने-सामने का नाटक था या पत्र लेखन का दस्तूर ही सही लेकिन इसमें शक्ति और यादों के छंद दोनों की ताकत थी जिसकी कमी आज हमें खलती है। यादें अपने आप में महाद्वीप हैं, एक दुनिया जो फ्रायड के विश्लेषण से आगे है और कहानी कहने के सुख की मांग करती है। बिना यादों के संबंध दीनता से भरा हुआ लगता है। यादें संबंधों को गहराई और लय देती हैं। यादें संबंधों को तह खोलने की इजाजत देती हैं। मुझे याद है एक बार मैंने आवेग में आकर कक्षा में अपने छात्रों से पूछा था, “अपनी दादी मां के चेहरे का वर्णन करो और मुझे उनके बारे में बताओ।” छात्र हिचकिचा गए। कुछ ने एक साथ कहा, “वो बहुत बूढ़ी हैं।” गोकि बहुत बूढ़ा होने से दादी के बारे में उनके विचार मिट गए हों। मैंने फिर पूछा, “कभी उनके चेहरे को छुआ है?” और इस सवाल से लगभग छात्र भावशून्य हो गए। मैंने फिर भी साहस नहीं छोड़ा और पूछा, “उनके अचार के बारे में बताओ” और अचानक भावनाओं के एक ज्वार ने उनके तटबंध खोल दिए। अचार के बहाने बूढ़ी महिला हमारे बीच आ कर खड़ी हो गईं।
असल में बुजुर्ग और बुढ़ापा ऐसे संबंध हैं जिनका हम सरलीकरण कर देते हैं। बच्चे एक ही कमरे में बैठ कर अपने कंप्यूटर में व्यस्त रहते हैं और दादा-दादी के प्रति वैसे ही उदासीन रहते हैं जैसे बुजुर्गों की रुद्राक्ष मालाएं जिन्हें वे निरुद्देश्य फेरते रहते हैं। समय के साथ बच्चे जब खेल कर लौटते हैं, तो दादी नानी वॉलपेपर या टीवी देखती हुई आकृतियों में तब्दील हो जाती हैं। कुछ रिश्तों की गुणवत्ता में गिरावट की तामीर हम बढ़ती उम्र में ही देख सकते हैं। बुढ़ापे में भूल जाने वाली आदत एक तरह से खुद बुलाई गई बीमारी है जो एक व्यक्ति को आपके पिता से कठिन मरीज में बदल देती है। कहीं-कहीं संयुक्त परिवारों की किंवदंती के बावजूद हमने वृद्ध लोगों के साथ संबंध का बोध खो दिया है। सभी बुजुर्गों के बजाय हमने संबंधों के मतलब को खो दिया है। पुराने लोग लगभग अप्रचलित और गैरजरूरी हैं। वृद्धावस्था संबंधों का वह रिक्त स्थान है जिस पर हम लोगों को फिर से सीखने और सोचने की जरूरत है। जब भी मैं वृद्ध लोगों को ट्रैफिक लाइट या बगीचों में खाली बैठे देखता हूं तो मैं संबंधों की उस अवस्था से दुखी हो जाता हूं जो जरावस्था से शुरू होती है। किसी जमाने में बुजुर्ग कहानी सुनाने वाले हुआ करते थे, जबकि आज खुद बुजुर्गों को नई पीढ़ी के साथ रोजमर्रा की बातचीत के बीच तालमेल बैठाना जरूरी हो गया है।
हालांकि, आजकल वॉट्सऐप फेमिली ग्रुप ने संयुक्त परिवार के तनाव और विभिन्न आयामों को अपने अधिकार में ले लिया है। वॉट्सऐप पितृसत्ता या दो पीढ़ियों के बीच मौजूद वैचारिक या कलात्मक भिन्नताओं के तनाव को दोबारा सामने ला रहा है। फिर भी आमने-सामने के संबंध का जादू ही काफी नहीं है, जो दादा जी के साथ गॉसिप और चुप्पी के साथ चलता है।
अपने आलेख को आगे बढ़ाने से पहले मुझे एक आत्मस्वीकृति करनी ही चाहिए। मेरे छात्र मुझे तकनीकी रूप से पिछड़ी बुद्धि का मानते हैं। टेलीफोन और कंप्यूटर को लेकर मेरा उत्साह रिश्तों को जस का तस बनाए रखने के तरीके के रूप में है। मैकलुहान के काल में जहां तकनीक अपनी पकड़ बनाए हुए है और रिश्तों को परिभाषित कर रही है, मैं खुद को बाहरी लेकिन जिज्ञासु महसूस करता हूं। मैं नई भाषा सीखने की कोशिश करता हूं। जैसे कोई दुनिया में देशी होने की जरूरत के चलते शॉर्टहैंड की शब्दावली सीखे। आज की तारीख में रणनीति प्रदर्शन की फेहरिस्त है जिसमें बेंचिंग, स्टेशिंग और हॉन्टिंग टू ब्रेडक्रंबलिंग जैसे शब्द मुझे आश्चर्य में डालते हैं कि ये भाषा के खेल या अभ्यास हैं या मानव या समाज की सहजवृत्ति।
इंटरनेट ने समुदाय का एक नया अर्थ बना दिया है जिसे लोग नेटवर्क कहते हैं। इसकी अपनी रीति-रिवाज और शब्दावली है। यह युवाओं को जिस ढंग से आकर्षित करती है उसे मैं सिर्फ मानवविज्ञानी के तौर पर ही समझ सकता हूं। युवा अलग तरह की जनजाति दिखाई पड़ते हैं और उन पर उनका खुद का ही दबाव दिखाई पड़ता है। वे दिखाई पड़ते रहें इसकी सुनिश्चितता के लिए उन्हें लाइक की दरकार होती है। एक टिंकर की हिस्ट्री यह साबित करने के लिए काफी है कि वे कितने लोकप्रिय हैं। इंस्टाग्राम ने वास्तविक जीवन से दूरी बढ़ा दी है।
इस समय की यह कठोर सच्चाई है कि रिश्तेदारी के किसी कार्यक्रम के उस वक्त को कैद करने के लिए सभी सेल्फी लेने की कतार में हैं, जहां संबंधों को चिन्हित करने की जरूरत है। स्मरणीय, रिकॉर्ड की मजबूरी जबकि वास्तविक मेमोरी (यानी चेतना) खाली पड़ी है। ऐसा लगता है कि संबंध अभिलेखों और अभिलेखों के अवलोकन में हैं। बिना दिखावे के संबंध अकल्पनीय हैं। लगता है जैसे इस दुनिया में मौन की कोई जगह नहीं है। यहां पर भीड़ का बोध, समर्थन, वाहवाही की जरूरत है जो एकदम कृत्रिम दिखाई पड़ता है।
लेकिन कुछ लोग हैं जो इस दुनिया के मूलवासी नहीं हैं और इस भाषा की बारीकियों के महारथी नहीं हैं। यहां तक कि वैज्ञानिकों को भी लगता है कि सही फार्मूले से संबंधों की दिक्कत को सुलझाया जा सकता है।
मैं स्वीकार करता हूं कि ऐसी दुनिया को अपने फ्रायड और प्राउस्ट की जरूरत है। मैं इस दुनिया और मेरे बीच घरेलू संवाद को देखने और सुनने की कड़ी हूं। मैं मानता हूं कि यह एक तरह का उत्साह है जिसे कोई दूसरा बेहतर ढंग से समझा सकता है। तकनीक द्वारा संबंधों की रूपरेखा निर्धारित है, उनके अलग मुहावरे हैं जो आज के दौर में अलग तरह के समाजशास्त्र का संदेश देते हैं। फिर भी मेरे लिए वह तकनीक नहीं है जो पीढ़ी को परिभाषित करती है बल्कि परिवार से आगे जाकर संबंधों की खोज है। मेरा विचार है कि दोस्ती के नए सौंदर्यशास्त्र को सीखना जो खासकर बराबरी और हमउम्रों के बीच होती है जरूरी है।
ऐसी दोस्ती जो परिवार की पारिस्थितिकी में कोमलता जोड़ सके। दोस्त और दोस्ती का विचार भावनात्मकता की नई रवायत है। दोस्ती की भावना स्मृति को दोबारा जिंदा करती है, रिश्तों को चुनौती देती है और परिवार के ढांचागत मांग न होने के बावजूद आमने-सामने होने का उत्सव मनाती है। मैंने नए शहरी समाज के आधार में दोस्ती को गोंद की तरह देखा है। दोस्ती में नुकसान और भाईचारा उपन्यासों की विषय वस्तु के रूप में नए किस्म के वर्णन का हिस्सा हो जाएंगे। जैसे-जैसे दोस्ती विशिष्टता में बदलती जाएगी वैसे-वैसे बारीकी, अतीतानुराग का आकर्षण बढ़ता जाएगा। किसी भी वॉट्सऐप या सेल्फी से ज्यादा। मुझे लगता है यह दोस्ती का नया नाटक है जो भविष्य में संबंधों की शक्ति के रूप में जारी रहेगा।
(लेखक जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल में प्रोफेसर और ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर द स्टडी नॉलेज सिस्टम के निदेशक हैं)