ग्लैमर की चमक-दमक के पीछे हम यह तथ्य आसानी से भुला देते हैं कि स्टारडम क्षणभंगुर है। हिंदी सिनेमा में भी कई सितारों का अस्थायी शोहरत से साबका पड़ा है लेकिन श्रीदेवी का मामला बिलकुल अलग है। उनकी प्रतिभा और करिश्मे ने उन्हें महान सितारों के समूह में स्थायी स्थान दिला दिया। न सिर्फ हिंदी सिनेमा में बल्कि दक्षिण भारतीय फिल्मों में भी। 54 साल की इस अदाकारा के शानदार कॅरिअर का दुखद अंत उनके साथ काम करने वालों, प्रशंसकों के लिए झटके की तरह था। हाल ही में दुबई के एक होटल के बाथटब में ‘दुर्घटनावश डूबने’ के कारण श्रीदेवी की मृत्यु हो गई, जिसने कई तरह की अटकलों को जन्म दिया।
उनके निधन के बाद उपजे अशोभनीय वाद-विवाद भी इस चमक को फीका नहीं कर सके कि वह बॉलीवुड और हर जगह मौजूद थीं। उनके फिल्मी कॅरिअर को देखें और करीब से जानें तो उनकी कुछ ही फिल्में होंगी जो अविस्मरणीय हैं। अगर कोई सदमा (1983), मि. इंडिया (1987), लम्हे (1991), खुदा गवाह (1992) को देखे तो ये उनकी कुछ बॉलीवुड फिल्में हैं जो व्यावसायिक सिनेमा की दृष्टि से साधारण से लेकर कामचलाऊ हैं। इनमें सौंदर्य का थोड़ा-सा पुट है लेकिन कंटेंट खराब है और निर्माण रद्दी। लेकिन इस सब के साथ कुछ चुनिंदा हिट के बावजूद उन्होंने शीर्ष स्थान कैसे हासिल कर लिया?
ठीक-ठीक किस बात ने श्रीदेवी को टाइमलेस स्टार बना दिया और अब उन्हें ‘भारत की पहली महिला सुपरस्टार’ के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, यह बहस फिर कभी। अभी तो सिर्फ इतना कि देविका रानी, नर्गिस, मधुबाला या हेमा मालिनी इस सूची में छूट गईं जो अपने वक्त में चमकते हुए सितारे थे। लेकिन शिवकाशी में जन्मी इस स्टार के बारे में जो बात अटूट है वह है उनका एक्सट्राऑर्डिनरी होना जो उनकी पहले की पीढ़ी में कुछ ही लोगों में थी। स्क्रीन पर उनकी उपस्थिति जबर्दस्त थी। उन फिल्मों में भी जिनको तवज्जो देना भी जरूरी न हो।
उनकी फिल्मोग्राफी की झलक बताती है कि उनके पास मुश्किल से ऐसी फिल्में होंगी जिनमें उनकी सशक्त भूमिकाएं थीं। उनके कॅरिअर की शुरुआत में सोलवां सावन (1979), सदमा (1983) और बाद में लम्हे (1979) में विषय वस्तु अच्छी थी लेकिन ये फिल्में बॉक्स ऑफिस पर नहीं चलीं। बॉक्स ऑफिस की विफलता ने यह सुनिश्चित किया कि वह बाद के वर्षों में व्यावसायिक बॉलीवुड फिल्मों से ही जुड़ी रहीं, जिनके ऑफर हिम्मतवाला (1983) की शानदार सफलता के बाद दर्जन के हिसाब से उनके पास आते रहे। जितेन्द्र, राजेश खन्ना, मिथुन चक्रवर्ती और हिम्मतवाला फेज के बाद फिल्म दर फिल्म उन पर दबाव रहा कि वह ग्लैमर गुड़िया के रूप में ही दिखाई दें। पर्याप्त अच्छे रोल होने के बावजूद वह समुचित रूप से अपनी प्रतिभा नहीं दिखा पाईं। लेकिन मवाली (1983), मकसद (1984) और तोहफा (1984) जैसी फिल्मों में भी उनके शोख व्यवहार ने सभी को प्रभावित किया। इसके विपरीत 1980 के दौर में जब शबाना आजमी, स्मिता पाटिल और रेखा समानांतर सिनेमा में सशक्त चरित्र वाली भूमिकाएं निभा रही थीं तब भी श्रीदेवी मसाला फिल्मों से मनोरंजन कर रही थीं, जिनमें ग्लैमरस छवि अभिनय से ऊपर थी। इसका सारा श्रेय सिर्फ उन्हीं को जाना चाहिए कि वह घटिया और नीरस परिस्थितियों से निकल कर वास्तविक अर्थवाली अभिनेत्री बनीं। जिसे सिर्फ ‘मोटी जांघों’ वाली कह कर खारिज नहीं किया जा सकता। एक शख्सियत जिस पर उस वक्त गॉसिप होती थी लेकिन जिसे समय ने तराश दिया।
नगीना (1986), मि. इंडिया (1987), चालबाज (1998), चांदनी (1989) और लाडला (1994) ये सभी फिल्में मेनस्ट्रीम की एकदम व्यावसायिक फिल्में थीं। उनके कमजोर हिंदी ज्ञान के बावजूद इन फिल्मों ने उन्हें हर वर्ग की चहेती बना दिया था। नगीना में तो उनकी अदायगी इतनी असरदार थी कि इसके निर्माताओं को सन्नी देओल के साथ इसका सीक्वेल निगाहें (1989) बनाने के लिए प्रेरित किया। तब बॉलीवुड में सीक्वेल जैसे विचार के बारे में किसी ने नहीं सुना था। यहां तक कि बॉक्स ऑफिस पर अपनी व्यावसायिक यात्रा में अपने अच्छे दौर में पत्थर के इंसान (1990), नाका बंदी (1990) और फरिश्ते (1991) के साथ और भी कई फिल्मों में वह स्क्रीन पर महज एक चमकती उपस्थिति भर थीं।
सच्चाई तो यह है कि दक्षिण में उनके जोड़ीदारों की तरह बॉलीवुड फिल्म निर्माता उनकी प्रतिभा को बमुश्किल ही इस्तेमाल कर पाए। अगर इस पर विचार करेंगे तो पता चलेगा कि हिंदी सिनेमा ने जब उन्हें नोटिस लिया उससे पहले ही वह तमिल, तेलुगु और मलयालम की मूंद्रु मुडिच्चू (1976), सिग-अप्पू रोजक्कल (1978) मीनदम कोकिला (1982) जैसी शानदार फिल्में कर चुकी थीं।
इसी कारण आलोचकों को लगा कि श्रीदेवी हिंदी सिनेमा में तब आईं जब सिनेमा फार्मूला फिल्मों में ही अटका हुआ था और उनके जैसी ग्लैमरस स्टार के लिए कमर्शियल सिनेमा से बाहर सारगर्भित भूमिका खोजना कठिन था। फिल्म लेखक विनोद अनुपम कहते हैं, “लोग अक्सर श्रीदेवी की सुंदरता की बात करते हैं लेकिन कई तारिकाएं थीं जो उस वक्त उनसे ज्यादा अच्छी दिखती थीं। उस दौर में ऐसी कई अभिनेत्रियां आईं और गईं। लेकिन उन्हें कोई याद नहीं करता।”
वह आगे कहते हैं, “हम श्रीदेवी और उनकी फिल्मों को भूल नहीं सकते क्योंकि उनकी त्वरित अभिनय शैली के कारण वह दर्शकों के अवचेतन में आज भी बसी हुई हैं।” राष्ट्रीय अवॉर्ड विजेता अनुपम कहते हैं कि यह हिंदी सिनेमा की विफलता है कि वह उनके लिए अच्छी भूमिकाएं नहीं तलाश सका। लेकिन जो भी भूमिकाएं उन्हें मिलीं उन्होंने उसमें ही अपना श्रेष्ठ दिया। इसलिए हिम्मतवाला से लेकर चालबाज तक हर फिल्म आज भी ‘श्रीदेवी’ की फिल्म के रूप में याद की जाती है न कि उनके साथ काम करने वाले अभिनेताओं की। ऐसी उपलब्धि सिर्फ अच्छा दिखने से संभव नहीं।”
ट्रेड एनालिस्ट और कंपलीट सिनेमा के संपादक अतुल मोहन कहते हैं, “हो सकता है, उन दिनों कमर्शियल सिनेमा के आरामदायक घेरे से निकल कर श्रीदेवी ने प्रयोग करना पसंद न किया हो। लेकिन उन्होंने इंग्लिश विंग्लिश (2012) और मॉम (2017) में काम कर शानदार वापसी की थी। जबकि ट्रेंड बदल चुका था।” शुरुआत में परदे पर दोबारा वापसी को लेकर वह सशंकित थीं। पहली पारी की उनकी आखिरी फिल्म जुदाई (1997) 15 साल पहले आई थी। उन्हें लग गया था कि 1980 से लेकर इन सालों में दर्शकों की रुचि में बदलाव आ गया है और अब वे उनको अलग-अलग तरह की भूमिकाओं में देखने को तैयार हैं जो उनकी उम्र और छवि पर फबे।
सिनेमा-राजनीति का तारा
श्रीदेवी के घर शिवकाशी में भी है राजनैतिक घराना
जी. सी. शेखर
तमिलनाडु में यदि आप अभिनेता हैं तो राजनीति बहुत दूर नहीं है। श्रीदेवी का भी अपना राजनीतिक इतिहास था। वह खम्मा नायडु के कांग्रेस परिवार से आती थीं जो बाद में रामनाथपुरम जिले के शिवकाशी-कोविलपट्टी में बस गए।
उनकी बुआ वी. जयलक्ष्मी शिवकाशी से तीन बार कांग्रेस की विधायक रही थीं। उनके पिता के बड़े भाई एम. रामास्वामी आपातकाल के बाद जनता पार्टी के उन चुनिंदा विधायकों में से थे जो 1977 में निर्वाचित हुए थे। यहां तक कि श्रीदेवी के पिता एम. अयप्पन, जो चेन्नै में क्रिमिनल लॉयर थे उनको भी चुनावी कीड़े ने काटा था। 1989 में एमजीआर के निधन के बाद जब डीएमके और एआइएडीएमके गुटबाजी से जूझ रही थी, कांग्रेस अपने बलबूते विधानसभा चुनाव लड़ रही थी तब अयप्पन ने शिवकाशी से फॉर्म भरा था।
अयप्पन के सामने डीएमके के कड़े उम्मीदवार, भूतपूर्व स्पीकर पी. श्रीनिवासन (जिन्होंने 1967 में के. कामराज को हरा दिया था) थे। तब अयप्पन ने अपनी स्टार बेटी को अपने प्रचार के लिए बुलाया था। श्रीदेवी के रिश्तेदार और डीएमके के प्रवक्ता के.एस. राधाकृष्णन याद करते हुए कहते हैं, “तब निर्विवाद रूप से वह तमिल सिनेमा की नंबर वन हीरोइन थीं। उन्होंने दो दिन अपने पिता के लिए प्रचार किया और भारी भीड़ जुटाई। लेकिन स्टार प्रचारक हमेशा चुनाव नहीं जिताते। डीएमके उम्मीदवार ने अपनी जीत पक्की कर ली क्योंकि एंटी डीएमके वोट बंट गए थे।” उस वक्त के जस्टिस वी. रामास्वामी (हाइकोर्ट जज जिन्हें 1991 में लोकसभा में महाभियोग का सामना करना पड़ा था) श्रीदेवी की बहन श्रीलता के ससुर हैं। उन्होंने एआइएडीएमके के उम्मीदवार के रूप में 1999 में शिवकाशी से लोकसभा चुनाव लड़ा था। वह एमडीएमके के नेता वाइको से हार गए थे लेकिन 1991 में रामास्वामी के बेटे संजय कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा का चुनाव जीत गए थे।
राजनीतिज्ञों से भरे परिवार के साथ श्रीदेवी को देखें तो वह तमिलनाडु की अभिनेता से नेता में तब्दील हुई सूची में सहज रूप से अगला नाम हो सकती थीं। लेकिन उन्होंने बॉलीवुड के उस खुले मैदान में देश की अग्रणी फीमेल सुपर स्टार होना चुना। उन्हें जानने वाले फिल्म निर्माता कलाइपुली धनु कहते हैं, ‘‘राजनीति में जाने के लिहाज से वह बेहद शर्मीली थीं। राजनीति में निशान छोड़ने के लिए आत्मविश्वास और वक्ता होने की जरूरत होती है। स्टार हो जाने के बाद भी श्रीदेवी शांति से अपनी ही दुनिया में रहना पसंद करती थीं। वह सिर्फ कैमरे के आगे ही बोलती-बतियाती थीं।
कुछ के लिए वह एमजीआर, जयललिता और शिवाजी गणेशन के साथ काम करने वाली बाल कलाकार थीं। ये सभी बाद में राजनेता बने। रजनीकांत और कमल हासन, जिनके साथ श्रीदेवी ने ज्यादातर तमिल फिल्मों में काम किया, को देखने के लिए अब वह नहीं हैं कि उनके ये सहअभिनेता किस तरह के राजनेता बनेंगे।