बसंत पंचमी से लेकर होली तक का समय मदनोत्सव का समय है। यदि वसंत ऋतुराज है तो शृंगार रसराज माना जाता है क्योंकि इसी समय अशरीरी कामदेव के पंचशरों की नोक सर्वाधिक तीक्ष्ण होती है। कुमारसंभवम् में शिव के तीसरे नेत्र के खुलने से भस्म हुए कामदेव की राख के पास विलाप करती हुई रति वसंत को अपने पति का सखा बताती है। चराचर सृष्टि अपने पुनर्नवीकरण के लिए इसी समय सबसे अधिक लालायित रहती है। लेकिन क्या वास्तव में शृंगार रसराज है? क्या वह सभी रसों में सर्वश्रेष्ठ है? क्या हमारा मन देश-देशांतर और विषय-विषयांतर में भ्रमण करने के पश्चात इसी रस में अपना आश्रय पाता है या हम केवल लोक और काव्य की रूढ़ि का पालन करने के लिए ऐसा मानते हैं? यदि शृंगार ही रसराज है तो फिर भवभूति उत्तररामचरितम् में “एको रसः करुण” यानी “करुण ही एकमात्र रस है” की उद्घोषणा क्यों करते हैं? जब सिद्धार्थ ने बोधि प्राप्ति के बाद बुद्ध के रूप में उपदेश दिया कि दुख ही जीवन का मूल है, तब क्या वे जीवन में करुण की ही प्रतिष्ठा नहीं कर रहे थे? क्या उन्हें ‘महाभिषग’ अर्थात महान चिकित्सक इसलिए नहीं कहा जाता क्योंकि वे प्राणिमात्र के दुख का इलाज सुझाते हैं? ईशु को मसीहा इसीलिए तो कहा गया क्योंकि वे दीन-दुखियों के कष्टों का निवारण करते थे और ईसाई धर्म की मान्यता के अनुसार मुर्दों में भी जान फूंक देते थे। गालिब ने जब कहा, “कोई मरियम का बेटा हो तो हुआ करे, पर उन्हें तो अपने दुख की दवा करने वाला चाहिए।” तब क्या वे इसी शाश्वत सत्य की ओर इशारा नहीं कर रहे थे? ऐसा क्यों था कि “मैं हूं वसंत का अग्रदूत” की आत्मविश्वास भरी घोषणा करने और ‘‘अभी न होगा मेरा अंत, अभी-अभी ही तो आया है मेरे वन में मृदुल वसंत’’ की आश्वस्ति देने वाले ‘निराला’ जैसे महाकवि को भी “दुःख ही जीवन की कथा रही” कहना पड़ा और महादेवी को अपना परिचय “नीर भरी दुख की बदली” के रूप में देना ही सर्वाधिक उपयुक्त लगा? यह एक सच है कि दुख की दवा कभी शृंगार-भाव नहीं रहा। वह तो आनंद का स्रोत है लेकिन मानव जीवन में सदा-सर्वदा बहने वाली दुख की अंतःसलिला का प्रत्युत्तर नहीं।
अस्तित्ववादी दर्शन दुख की इस अंतःसलिला का स्रोत ढूंढ़ने की कोशिश करता है। बौद्ध दर्शन की तरह ही अस्तित्ववाद भी मानवीय अस्तित्व की स्थाई दशा दुख को ही मानता है। इसी के साथ निर्णय लेने की स्वतंत्रता और उसके परिणामों की जिम्मेदारी भी जुड़ी है। गालिब की तरह ही ‘‘डुबोया मुझको होने ने’’ की तर्ज पर अस्तित्ववादी दार्शनिक भी यही कहता है कि होना ही दुख का कारण है। उसके अनुसार मानव जीवन में दुःख का दूसरा कारण भी है और वह है अंतर्वैयक्तिक संबंधों यानी दो व्यक्तियों के बीच के संबंधों में संप्रेषणीयता का अभाव, संवाद की असंभाव्यता और अपनी बात, अनुभव और भावनाओं को दूसरे तक संप्रेषित न कर सकने का दंश। दुख का यह भी एक बड़ा कारण है। हजारी प्रसाद द्विवेदी से संबंधित किसी संस्मरण में पढ़ा था कि जब एक बार उनसे पूछा गया कि जीवन में सबसे बड़ा दुख क्या है, तो उन्होंने कहा, “न समझा जाना।” यही दुख मीर तकी ‘मीर’ जैसे महान कवि को भी था। उन्हें उम्र भर यह पीड़ा बनी रही और इसे उन्होंने इस शेर में व्यक्त किया, “किस-किस अदा से रेख्ते मैंने कहे वले, समझा न कोई मेरी जुबां इस दयार में।”
भारतीय दृष्टि मूलतः अद्वैतवादी है, भले ही वह विचार के स्तर तक ही सीमित रही हो। आम आदमी भी ‘कण-कण में भगवान’ की सत्ता को स्वीकार करता है, दूसरे धर्मों के पूजास्थलों के सामने से गुजरते हुए उन्हें प्रणाम करता है, रास्ते में किसी भी धर्म के मानने वाले की शवयात्रा जाती मिले, अदब के साथ एक ओर हट कर खड़ा हो जाता है। मानता है कि “ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम’’ और किसी भी धर्म का अनादर नहीं करता। सभी धर्म उसी एक परम सत्ता तक ले जाने वाले रास्ते हैं, यह धारणा उसके भीतर जमी हुई है। इससे भटकाव तभी होता है जब निहित राजनीतिक स्वार्थ उसे इसके खिलाफ भड़काते हैं। यही अद्वैत दृष्टि शृंगार और करुण रसों को एक-दूसरे के साथ मिलाती है और परंपरा में इसके अनेक साक्ष्य देखे जा सकते हैं।
काव्यरसिक जानते हैं कि संयोग शृंगार की तुलना में वियोग शृंगार हृदय को अधिक छूता है। कालिदास का मेघदूत विरह की पीड़ा का यक्षगान है। विरही यक्ष मेघ को अपनी प्रिया के सौंदर्य के बारे में बताते हुए न जाने अतीत की कितनी मधुर स्मृतियों का दंश झेलता है। उसकी प्रिया ब्रह्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है और उसके मन में बसा उसका सौंदर्य मानो सौंदर्य का प्रतिमान है। लेकिन वह भी तो अलकापुरी में यक्ष का विरह झेल रही है। यक्ष कल्पना करता है कि वह पाले से मारी गई कमलिनी की तरह मुरझा गई है। वह प्रिया जो उसका प्राण है, ‘जीवितं मे द्वितीयम्।’
कुमारसंभवम् में रति का विलाप हो या रघुवंशम् में इंदुमती की मृत्यु पर अज का विलाप, दोनों में ही कामकेलि आदि का उल्लेख आता है। पहले-पहल पढ़ने पर तो यह अटपटा लग सकता है लेकिन यह शृंगार और करुण रसों की अद्भुत युति और ‘विरुद्धों की एकता’ संबंधी अद्वैतवादी दृष्टि का अप्रतिम उदाहरण है। वसंतोत्सव हो या होली का मदनोत्सव, शृंगार के पुष्पों की माला करुण रस के धागे में ही पिरोई जाती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)