राजनीति के भी रंग निराले हैं। अभी त्रिपुरा जैसे पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में भाजपा की जीत इतनी बड़ी लग रही थी कि विपक्ष सन्न रह गया था। लेकिन बिहार-यूपी की तीन लोकसभा सीटों के उपचुनाव की हार उस पर ऐसी भारी पड़ी कि कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों को जैसे नई संजीवनी मिल गई। वे 2019 के आम चुनाव के लिए नए सिरे से मजबूत मोर्चेबंदी में जुट गईं। अब भाजपा के सामने अपनी अपराजेय छवि को बचाने की चुनौती आन खड़ी है।
उत्तर प्रदेश और बिहार के उपचुनावों में भाजपा के लिए अप्रत्याशित बुरे नतीजों ने एक बार फिर लोकसभा चुनाव की बाजी खोली दी है। इससे ये भी शुरू हो गई हैं कि आम चुनाव अपने तय समय अप्रैल-मई 2019 में होंगे या छह-सात महीने पहले यानी इस साल अक्टूबर-नवंबर में ही मिजोरम, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ विधानसभाओं के चुनाव के साथ करा लिए जाएंगे। बेशक, हाल के नतीजों ने भाजपा नेतृत्व पर दबाव बढ़ा दिया है। भाजपा में यह चर्चाएं भी छिड़ गई हैं कि अगर राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम और मध्य प्रदेश विधानसभाओं के चुनावी नतीजे पक्ष में नहीं रहे तो लोकसभा चुनाव को संभालना मुश्किल हो जाएगा, इसलिए एक साथ ही चुनाव करा लेना ही श्रेयस्कर होगा। हालांकि कुछ की राय पहले कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों का इंतजार करने के पक्ष में है।
हालांकि अगले आम चुनाव जब भी हों, राजनीतिक दलों के बीच उसकी मोर्चेबंदी शुरू हो गई है। नई दिल्ली में संपन्न कांग्रेस के ताजा (84वें) महाधिवेशन में समान विचार वाले राजनीतिक दलों के साथ गठबंधन को स्वीकृति मिलने के बाद यूपीए को नए सिरे से खड़े करने की जोड़तोड़ शुरू हो गई है। उधर, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री, तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी और तेलंगाना के मुख्यमंत्री, टीआरएस के नेता के. चंद्रशेखर राव क्षेत्रीय दलों को जोड़कर तीसरे मोर्चे के गठन की कवायद में जुटते नजर आ रहे हैं। दूसरी तरफ, केंद्र और तकरीबन 21 राज्यों में सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में बिखराव दिखने लगा है। ये राजनीतिक घटनाक्रम भाजपा और उसके पितृ संगठन आरएसएस को भी अचरज में डाल रहे हैं।
दो सप्ताह पहले तक देश का राजनीतिक परिदृश्य कुछ अलग तरह का दिख रहा था। त्रिपुरा में भाजपा की ऐतिहासिक जीत, मेघालय और नगालैंड में भी जोड़-तोड़कर सरकार बना लेने में सफल रहे पार्टी अध्यक्ष अमित शाह उत्साह में कह रहे थे कि पूर्वोंत्तर की जीत 2019 के लोकसभा आम चुनाव का ट्रेलर है और अब कर्नाटक में भी उनकी पार्टी की जीत पक्की है। लेकिन भारतीय राजनीति के आधुनिक चाणक्य कहे जाने वाले शाह की इस गर्वोक्ति के दो सप्ताह बाद ही उत्तर प्रदेश और बिहार के उपचुनावों के नतीजों और उसके आगे-पीछे के इन राजनीतिक घटनाक्रमों ने न सिर्फ शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बल्कि आरएसएस के नेतृत्व की पेशानी पर भी बल ला दिया है। कहने के लिए तो अभी एनडीए के साथ तकरीबन 40 छोटे बड़े राजनीतिक दल हैं लेकिन इनमें से अधिकतर लोकसभा में एक से शून्य उपस्थिति वाले दल ही हैं। जो बड़े हैं, वे या तो एनडीए से अलग हो चुके हैं या फिर भाजपा की ओर आंखें तरेरते हुए उससे राजनीतिक सौदेबाजी में लगे हैं। घटक दल एनडीए का कोई संगठनात्मक ढांचा नहीं बन पाने और कभी भी महत्वपूर्ण मसलों, राजनीतिक नियुक्तियों और फैसलों पर उनकी राय नहीं लिए जाने को लेकर नाराज हो रहे हैं।
लेकिन भाजपा नेतृत्व अभी तक इस उधेड़बुन में लगा है कि उत्तर प्रदेश में जहां साल भर पहले ही विधानसभा के चुनाव में 400 सीटों में 325 पर कब्जा जमाने में सफल रहे मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के राजनीतिक गढ़ गोरखपुर और फूलपुर में उनके द्वारा खाली की गई लोकसभा सीटें उनके हाथ से निकल कैसे गईं। फूलपुर में तो 1952 के बाद पहली बार 2014 में ही भाजपा के केशव मौर्य चुनाव जीत सके थे लेकिन गोरखपुर संसदीय क्षेत्र तो पिछले तीन दशकों से भाजपा और हिंदुत्व की राजनीति करते रहे गोरखनाथ पीठ के महंत अवैद्यनाथ और उनके उत्तराधिकारी आदित्यनाथ की झोली में ही रहा है। वैसे, गोरखपुर और फूलपुर में संभावित हार को टालने के लिए क्या कुछ नहीं किया गया। मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री बनने के ठीक छह महीने पूरा होने पर सांसदी छोड़ी गई। चुनाव आयोग ने भी उनके त्यागपत्र के ठीक छह महीने बाद उपचुनाव कराया। गरज यह कि उपचुनावों और आम चुनाव में महज साल भर का अंतर रह जाने से लोग और खासतौर से विपक्ष इन उपचुनावों के प्रति उदासीन हो जाए। दूसरी तरफ, मुस्लिम मतों में विभाजन की गरज से जेल में बंद माफिया छवि के उसी क्षेत्र से सांसद रह चुके अतीक अहमद को फूलपुर से चुनाव लड़ने के लिए ‘प्रेरित’ कराया। लेकिन केंद्र और राज्य सरकार के क्रियाकलापों के प्रति जनता के बीच बढ़ रही नाराजगी कहें या मायावती और अखिलेश यादव की एकजुटता से बदले राजनीतिक और सामाजिक समीकरण ने बाजी पलट दी।
बिहार में भी सीमांचल के अररिया संसदीय और जहानाबाद विधानसभा के उपचुनावों में भाजपा और इसके दोबारा संगी बने नीतीश कुमार के जनता दल (यू) को मतदाताओं ने जबरदस्त झटका दिया। अररिया से राजद के पूर्व सांसद दिवंगत मोहम्मद तस्लीमुद्दीन के बेटे सरफराज आलम ने, जो उपचुनाव से पहले तक जद (यू) के विधायक थे, राजद उम्मीदवार के रूप में भाजपा के प्रदीप सिंह को पटखनी दी जबकि जहानाबाद में राजद के पूर्व विधायक दिवंगत मुंद्रिकासिंह यादव के पुत्र सुदय यादव ने जद (यू) के अभिराम शर्मा को पराजित किया। एक और विधानसभा उपचुनाव में भाजपा की रिंकी पांडेय ने अपने पति के निधन से खाली हुई भभुआ सीट पर कांग्रेस के शंभु पटेल को शिकस्त दी। बिहार के तीनों उपचुनाव नीतीश कुमार के राजद, जद (यू) और कांग्रेस के महागठबंधन से अलग होने और भाजपा के साथ एक बार फिर सरकार साझा करने के बाद हुए थे। तीनों उपचुनावों में न सिर्फ भाजपा बल्कि नीतीश कुमार की राजनीतिक प्रतिष्ठा भी दांव पर थी, उन्हें यह साबित करना था कि बिहार विधानसभा का पिछला चुनाव उन्होंने लालू प्रसाद और कांग्रेस के सहारे नहीं बल्कि खुद अपने बूते जीता था। लेकिन वह विफल रहे।
सोनिया की सक्रियता
इन उपचुनावों के नतीजों और उसके आगे-पीछे के राजनीतिक घटनाक्रम तेजी से हुए हैं। यूपीए की चेयरपर्सन तथा कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के निवास पर दिए गए रात्रिभोज में छोटे-बड़े 21 विपक्षी दलों के नेताओं या उनके प्रतिनिधियों के जमावड़ा जुटा। उससे पहले एनसीपी नेता शरद पवार के यहां विपक्ष के नेताओं की बैठक हुई। संसद के दोनों सदनों में विपक्ष लामबंद दिखा। यूपी में कभी एक-दूसरे को फूटी आंख भी नहीं सुहाने वाले अखिलेश यादव और मायावती के बीच गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनावों के दौरान और नतीजों के बाद भी राजनीतिक रिश्तों की केमिस्ट्री गाढ़ी हो रही है। एनडीए में भाजपा के बाद सबसे बड़ी और पुरानी सहयोगी शिवसेना के अगला चुनाव एनडीए से अलग होकर अपने बूते लड़ने की घोषणा के बाद दूसरे सबसे बड़े घटक तेलुगु देशम पार्टी के केंद्र और राज्य में भाजपा और एनडीए से भी नाता तोड़ लिया। बिहार में महादलितों के नेता जीतनराम मांझी के ‘हम’ के एनडीए से नाता तोड़ने के बाद राम विलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा और उत्तर प्रदेश में सुहेलदेव भासपा नेता ओम प्रकाश राजभर के भी सुर बदलने लगे। संसद भवन परिसर में आंध्र प्रदेश के लिए विशेष राज्य का दर्जा या फिर विशेष आर्थिक पैकेज की मांग कर रहे टीडीपी के सांसदों के साथ मंच साझा कर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि सत्ता में आने पर वे सबसे पहले आंध्र प्रदेश को विशेष आर्थिक पैकेज देंगे। आंध्र प्रदेश में टीडीपी के साथ ही राज्य में दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत वाइएसआर कांग्रेस भी मोदी सरकार के विरुद्ध लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पेश करने पर आमादा है। इसके अलावा तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव द्वारा गैर भाजपा और गैर कांग्रेसी तीसरे मोर्चे के गठन की पहल और इस इरादे से ममता बनर्जी से मुलाकात, भाजपा के भीतर नेताओं-सांसदों के असंतुष्ट स्वरों में लगातार वृद्धि, महाराष्ट्र के तकरीबन 50 हजार अनुशासित किसानों के माकपा के लाल झंडों के साथ राज्य के विभिन्न इलाकों से पैदल चलते हुए मुंबई में पहुंचकर धरना देने, देश के अन्य कई हिस्सों में किसानों के आंदोलित होने और दिल्ली में कर्मचारी चयन आयोग की परीक्षाओं में धांधली के विरोध में बेरोजगार छात्र-युवाओं के आंदोलन, को भाजपा के रणनीतिकार आने वाले दिनों में अपने लिए अशुभ का संकेत ही मान रहे हैं।
भाजपा के बहुमत पर बढ़ा संशय
भाजपा के रणनीतिकार पहले से यह मानते रहे हैं कि 2014 के आम चुनाव में उत्तर भारत और हिंदी पट्टी के राज्यों के साथ ही गुजरात, गोवा और महाराष्ट्र जैसे पश्चिमी भारत के राज्यों में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को मिले प्रचंड समर्थन की पुनरावृत्ति अगले आम चुनाव में संभव नहीं है। 2014 के आम चुनाव में गुजरात, राजस्थान, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड और झारखंड जैसे कुछ राज्यों में तो तकरीबन सभी सीटें भाजपा-एनडीए के खाते में ही गई थीं। हाल के चुनाव और उपचुनावों के नतीजों के मद्देनजर शिवसेना के मुखपत्र ‘सामना’ का मानना है कि इन राज्यों में भाजपा को तकरीबन 110 सीटों का नुकसान हो सकता है। इस नुकसान की भरपाई भाजपा और संघ की रणनीति पूर्वी भारत के पश्चिम बंगाल और ओडिशा, उत्तर-पूर्व और दक्षिण भारत के राज्यों से करने की रही है। उत्तर-पूर्व में तो इस रणनीति के तहत इसे मिजोरम को छोड़कर तकरीबन सभी राज्यों में एनडीए की सरकारें बनाने में कामयाबी भी मिल गई है लेकिन मुश्किल यह है कि उत्तर-पूर्व में लोकसभा की कुल 25 में से तकरीबन आधी सीटें ही अभी भाजपा-एनडीए के पास हैं। ओडिशा और पश्चिम बंगाल में हाल में जितने चुनाव-उपचुनाव हुए उनमें भाजपा दूसरे स्थान पर उभरती हुई तो नजर आ रही है लेकिन अभी इन राज्यों में केवल तीन सीटों वाली भाजपा इतनी ताकतवर नहीं हो सकी है कि लोकसभा की कुल 63 में से अधिकतम सीटें अपनी झोली में भर सके।
दक्षिण के दलों से दूरी बढ़ी
दक्षिण भारत की कुल 130 में से 37 सीटें अभी भाजपा-एनडीए के पास हैं। दक्षिण में भी वाम दलों और कांग्रेस के गढ़ कहे जाने वाले केरल में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के सहारे वह अपने विस्तार में जुटी है। लेकिन क्या वह त्रिपुरा जैसा राजनीतिक करिश्मा केरल में भी दिखा पाएगी? तमिलनाडु में जहां एक तरफ भाजपा की कोशिश तमिल मेगा स्टार रजनीकांत को अपने पाले में लाने की है, वहीं इसकी कोशिश वहां द्रमुक अथवा सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक के किसी धड़े के साथ चुनावी गठबंधन की भी है। लेकिन भाजपा की परेशानी आंध्र और तेलंगाना को लेकर बढ़ गई है। आंध्र प्रदेश में वह इस उम्मीद में थी कि टीडीपी और वाइएसआर (कांग्रेस) में से किसी एक के साथ वह अपनी शर्तों पर तालमेल कर ज्यादा से ज्यादा लोकसभा सीटों पर लड़ सकेगी। लेकिन अभी दोनों क्षेत्रीय दल इससे दूरी बना रहे हैं। दोनों ने आंध्र प्रदेश के आर्थिक हितों के साथ भेदभाव का आरोप लगाते हुए मोदी सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पेश किया है। बदले राजनीतिक परिदृश्य में टीडीपी के तीसरे मोर्चे और वाइएसआर कांग्रेस के अपने पुराने खोल कांग्रेस की ओर लौटने की अटकलें लग रही हैं। हालांकि, वाइएसआर कांग्रेस के नेता जगनमोहन रेड्डी पर भ्रष्टाचार से जुड़े मुकदमों की लटकती तलवार का इस्तेमाल भाजपा उन्हें अपनी ओर झुकाने के लिए कर सकती है। अभी तक कमोबेस भाजपा के साथ ही रहे तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव अब ममता बनर्जी तथा कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर तीसरे मोर्चे को खड़ा करने में जुटे हैं। भाजपा की नजर उन पर भी है।
कर्नाटक बताएगा हवा का रुख
कर्नाटक में पहले से ही भाजपा का खासा जनाधार है। वैसे, राज्य का रुख विधानसभा के आसन्न चुनावी नतीजों से ही पता चलेगा। जाहिर-सी बात है कि कर्नाटक विधानसभा के चुनावी नतीजे ही इस बार 2019 के मध्य में या उससे पहले 2018 के अंत में होने वाले लोकसभा के चुनाव के ट्रेलर साबित हो सकते हैं। भाजपा और कांग्रेस भी, दक्षिण भारत के किसी राज्य में भाजपा को पहला मुख्यमंत्री देने वाले कर्नाटक को जीतने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ने वाले।
हालांकि, भाजपा के रणनीतिकार मानते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री मोदी अभी भी सबसे लोकप्रिय नेता हैं जिनसे इस देश को और खासतौर से युवाओं को अब भी बहुत उम्मीदें हैं। अंतर्विरोधों से ग्रस्त विपक्ष में मोदी का कोई दमदार और भरोसेमंद विकल्प भी नहीं है। लेकिन तेजी से बदल रहे राजनीतिक घटनाक्रम इसके पक्ष में गवाही नहीं देते। यह सही है कि अभी अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी को गंभीर चुनौती देने वाला विपक्ष के पास कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। लेकिन गुजरात विधानसभा के चुनाव, राजस्थान और मध्य प्रदेश में संसदीय और विधानसभाई उपचुनाव जीतने से कांग्रेस का मनोबल बढ़ा है। कांग्रेस और राहुल गांधी चाहें तो अगले आम चुनाव और उससे पहले भी भाजपा-एनडीए विरोधी राजनीतिक दलों का महागठबंधन बनाकर मजबूत चुनौती पेश कर सकते हैं। इसकी पहल सोनिया गांधी ने अपने निवास पर 21 विपक्षी दलों के नेताओं और उनके प्रतिनिधियों को रात्रिभोज पर बुलाकर कर दी है। उन्होंने संसद में बीजू जनता दल के नेता भर्तृहरि मेहताब से बात की और पूछा कि क्या उनकी पार्टी ओडिशा में अकेले भाजपा को चुनौती देने की स्थिति में है। शायद इसका भी असर है कि ओडिशा के मुख्यमंत्री और बीजद के नेता नवीन पटनायक ने हाल के उपचुनावों के नतीजों के बाद कहा, “भाजपा बहुत तेजी से रसातल की ओर जा रही है। भविष्य में हमारे किसी विपक्षी मोर्चे में शामिल होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।”
कांग्रेस की कमजोरियां
लेकिन विपक्षी दलों का ताना-बाना बुनने और उसका नेतृत्व करने की इच्छा रखने वाली कांग्रेस को खुद की राजनीतिक ताकत के बारे में जमीनी सच से रूबरू होना बहुत जरूरी है। उसे यह समझना होगा कि वह अब केवल चार राज्यों-पंजाब, कर्नाटक, मिजोरम और पुदुच्चेरी में ही सत्तारूढ़ रह गई है। इनमें से मिजोरम और केंद्रशासित पुदुच्चेरी बहुत छोटे एक-एक सांसदों वाले राज्य हैं जबकि कर्नाटक में अभी विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं। जिन राज्यों में कांग्रेस की सीधी लड़ाई भाजपा के साथ है वहां तो वह भाजपा को चुनौती दे पाने में सफल हो पा रही है लेकिन जहां कोई गैर भाजपा और गैर कांग्रेसी मजबूत क्षेत्रीय दल मौजूद हैं, वहां उसकी हालत बेहद खराब है। अभी भी हिंदी पट्टी के दो सबसे बड़े राज्यों-उत्तर प्रदेश और बिहार के साथ ही पूर्वी भारत के पश्चिम बंगाल और ओडिशा जैसे राज्यों में उसकी हालत खस्ता है। पश्चिम बंगाल के हाल के संसदीय और विधानसभा के उपचुनावों और ओडिशा में विधानसभा के उपचुनाव में अपने कब्जेवाली सीटों पर भी नगण्य मत पाने वाली कांग्रेस के उम्मीदवारों की उत्तर प्रदेश में फूलपुर और गोरखपुर के संसदीय उपचुनावों में भी भारी दुर्गति हुई। कांग्रेस के उम्मीदवारों को वहां 20 हजार से भी कम मत मिले और जमानतें जब्त हो गईं।
राहुल को दिखाना होगा लचीलापन
कांग्रेस के महाधिवेशन के बाद और अधिक ताकतवर, परिपक्व और आक्रामक नेता के रूप में उभरे राहुल गांधी के सामने सबसे बड़ी चुनौती उत्तर प्रदेश में मिलने वाली है जहां उसका जनाधार तेजी से खिसका है जबकि वहां उसके बड़बोले नेताओं की भरमार है। उसे अगर राष्ट्रीय राजनीति में मजबूत विकल्प के रूप में उभरना है तो वहां दिल बड़ाकर सपा, बसपा और राष्ट्रीय लोकदल सहित कुछ और छोटे दलों को साथ लेकर महागठबंधन बनाना होगा। बिहार में तो वह पहले से ही महागठबंधन का हिस्सा है। महाराष्ट्र में शरद पवार की एनसीपी और कांग्रेस मिलकर लड़ने पर सहमत हो चुके हैं। उन्हें ‘मोदी मुक्त भारत’ का आह्वान करने वाले राज ठाकरे की मनसे का परोक्ष सहयोग और समर्थन भी मिल सकता है। एनडीए के भीतर रहे या बाहर, शिवसेना की कोशिश भाजपा को कमजोर करने की ही रहेगी। महाराष्ट्र में किसानों को एकजुट कर भाजपा के करीब लाने में अहम भूमिका निभाने वाले स्वाभिमानी शेतकारी संगठन के प्रमुख और सांसद राजू शेट्टी भी कांग्रेस के करीब आ रहे हैं। उनकी पार्टी किसानों के मुद्दे पर एनडीए को छोड़ने वाली पहली पार्टी थी। पश्चिमी महाराष्ट्र के किसानों में असर रखने वाले शेट्टी ने 19 मार्च को राहुल गांधी के साथ मुलाकात की जो संकेत है कि आगामी चुनावों में वे कांग्रेस के साथ तालमेल कर सकते हैं। कांग्रेस कश्मीर में अब्दुल्ला परिवार की नेशनल कान्फ्रेंस और झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ मिलकर चुनाव लड़ेगी।
तालमेल बनाना बड़ी चुनौती
उत्तर-पूर्व जहां कभी कांग्रेस का वर्चस्व होता था, भाजपा उसे वहां से बेदखल करती नजर आ रही है। इन राज्यों में भी कांग्रेस को अपनी ताकत सहेजने-समेटने के साथ ही नए-पुराने सहयोगी दलों के साथ किसी तरह का गठबंधन बनाना होगा। असम में सांसद बदरुद्दीन अजमल की एआइयूडीएफ, त्रिपुरा में माकपा या तृणमूल कांग्रेस और नगालैंड में नगा पीपुल्स फ्रंट के साथ वह तालमेल की संभावनाएं तलाश कर सकती है। इसी तरह से दक्षिण भारत में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्य अब भी कांग्रेस के लिए चिंता का कारण बने हुए हैं। आंध्र प्रदेश में इसे तय करना है कि एनडीए से अलग होने की स्थिति में टीडीपी या वाइएसआर कांग्रेस के साथ किस तरह का रिश्ता रखना है। सरकार बनने पर आंध्र प्रदेश के लिए विशेष आर्थिक पैकेज देने की बात कह कर राहुल गांधी ने वहां कांग्रेस के प्रति राज्य विभाजन के दौर में पैदा हुई नफरत को कम करने में सफलता पाई है। कांग्रेस को तेलंगाना में टीआरएस के नेता के. चंद्रशेखर राव के साथ भी किसी तरह का कामकाजी रिश्ता बनाना होगा। तमिलनाडु में द्रमुक अभी कांग्रेस-यूपीए के साथ है लेकिन भाजपा की नजर द्रमुक पर भी है।
तीसरे मोर्च में फिर पीएम का पेच
लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में यूपीए को नए सिरे से खड़ा और सक्रिय करने के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा क्षेत्रीय दलों में प्रधानमंत्री बनने के सपने संजोए नेता बन सकते हैं। ऐसे नेताओं में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, शरद पवार, मायावती और सर्वानुमति बनाने के नाम पर शरद यादव भी हो सकते हैं। तीसरे मोर्चे को लेकर उत्साहित ममता बनर्जी ने यह कह कर अपने इरादे साफ कर दिए हैं कि अगला प्रधानमंत्री उसे ही बनना चाहिए जिसे किसी राज्य का मुख्यमंत्री या केंद्रीय मंत्री होने का अनुभव हो। स्पष्ट है कि अगर कांग्रेस भाजपा विरोधी क्षेत्रीय दलों को साथ जोड़ने में विफल रही तो वह सपा, बसपा, टीडीपी, झाविमो, टीआरएस, बीजेडी, जनता दल (एस), चौटाला परिवार के इनेलो, रालोद, अजीत जोगी और कुछ अन्य छोटे-बड़े क्षेत्रीय दलों को जोड़कर तीसरा मोर्चा बनाने की कवायद कर सकती हैं।
इस लिहाज से देखें तो लोकसभा के अगले आम चुनाव के मद्देनजर भाजपा के साथ ही कांग्रेस के लिए भी कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणाम निर्णायक साबित हो सकते हैं। अगर कर्नाटक में कांग्रेस अपने करिश्माई मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के नेतृत्व में दोबारा सरकार बनाने में सफल रही तो मोदी और भाजपा विरोधी राजनीतिक ताकतें इसके इर्द-गिर्द जमा होने लगेंगी। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस का बेहतर प्रदर्शन राष्ट्रीय स्तर पर उसे और राहुल गांधी को भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध मजबूत विकल्प के रूप में उभरने से रोक पाना किसी के भी बूते की बात नहीं रह जाएगी। लेकिन कर्नाटक के नतीजे उलट हुए तो कांग्रेस को राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ और मिजोरम का सेमी फाइनल भी खेलना पड़ सकता है।