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गठबंधनों के हाथ सत्ता की चाबी

उपचुनाव में दो सीटों पर हार से बैकफुट पर भाजपा, सपा-बसपा के अलावा कांग्रेस-आरएलडी भी राजनीतिक नतीजे में रखते हैं अहमियत
नए समीकरणः उत्तर प्रदेश में लोकसभा की दो सीटों पर उपचुनाव के नतीजों में देखे जाने लगे 2019 के संकेत

उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनाव में समाजवादी पार्टी की जीत से जहां विपक्ष की बांछें खिल गई हैं, वहीं भाजपा ने भी चूक स्वीकार कर रणनीति बदलने की तैयारी शुरू कर दी है। हालांकि, प्रदेश में एनडीए के अंग सुहेल देव भारतीय समाज पार्टी के मुखिया के तेवरों से भाजपा बैकफुट पर है। उधर, लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा और कांग्रेस के एक साथ आने की संभावना प्रबल है, लेकिन कोई दल पत्ते नहीं खोल रहा है। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव गठबंधन को लेकर 2017 से प्रयोग कर रहे थे। उन्होंने प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था, जो बहुत कारगर साबित नहीं हुआ। इसके बाद प्रदेश में हुए निकाय चुनाव को सभी दलों ने अपने सिंबल पर लड़ा, लेकिन 2014 से लगातार सीटों की संख्या में कमी सभी दलों के लिए चिंता का सबब बनने लगी। बसपा आमतौर पर उपचुनाव नहीं लड़ती है। इसलिए उसने सपा को समर्थन दे दिया। गोरखपुर और फूलपुर दोनों सीटों पर उपचुनाव भाजपा जीत जाती तो शायद सपा-बसपा गठबंधन आगे नहीं बढ़ पाता। उपचुनाव के नतीजे सपा के पक्ष में रहे तो अब बसपा के साथ कांग्रेस के भी लोकसभा चुनाव से पूर्व एक मंच पर आने की संभावना और मजबूत हो गई है। लखनऊ में सपा मुखिया अखिलेश यादव से जदयू के पूर्व नेता शरद यादव की मुलाकात से तीसरे मोर्चे की भी सुगबुगाहट तेज हो गई है।

उपचुनाव में करारी हार के बाद प्रदेश में भाजपा रणनीति बदलने की तैयारी कर रही है। हालांकि, अभी इसका खुलासा नहीं हुआ है। लेकिन विपक्षियों की गुटबंदी को देखते हुए फेरबदल की भी संभावना जताई जा रही है। भाजपा प्रदेश अध्यक्ष महेंद्रनाथ पांडेय का मानना है कि उपचुनावों के परिणाम हमारे लिए अप्रत्याशित हैं। हम मंथन और समीक्षा के बाद नई रणनीति पर काम करने को तैयार हैं।

गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव की हार के परिणाम दूरगामी होने के कारण पार्टी में हर स्तर पर चर्चा शुरू हो चुकी है और हर कोई अपने स्तर से समीक्षा कर रहा है। सरकार और संगठन में खामियों पर चर्चा हो रही है तो कार्यकर्ताओं को तरजीह देने की भी बात की जा रही है। यह भी माना जा रहा है कि सपा और बसपा के वोटों में सेंधमारी के लिए पार्टी में पिछड़े और दलित चेहरों को समायोजित किया जाएगा, ताकि भविष्य में आने वाली चुनौतियों से निपटा जा सके। सपा का यादव-मुस्लिम वोट बैंक मजबूत माना जाता है तो बसपा की जाटव वोट बैंक में अच्छी पकड़ है। लेकिन दलित वर्ग की अन्य जातियों और अन्य पिछड़ा वर्ग में भाजपा ने अच्छी खासी सेंध लगाई है। भले ही उपचुनावों में ऐसा नहीं देखने को मिला हो, लेकिन 2014 में यह साफ देखने को मिला था।

हार-जीत से इतर भी गोरखपुर और फूलपुर के नतीजे वोटबैंक के लिहाज से कई सियासी संकेत दे रहे हैं। 2014 के मुकाबले दोनों सीटों पर सपा-बसपा के वोटबैंक से 10 फीसदी ज्यादा मत सपा उम्मीदवारों को मिले हैं। गोरखपुर में 2014 के लोकसभा चुनाव में योगी आदित्यनाथ को 5.39 लाख वोट मिले थे, जो कुल पड़े मतों का करीब 52 फीसदी थे। लेकिन इस उपचुनाव में यहां भाजपा उम्मीदवार उपेंद्र शुक्ला को 4.34 लाख मत मिले हैं, जो पहले से 5.5 फीसदी कम हैं। वहीं, 2014 में गोरखपुर में सपा और बसपा को मिलाकर करीब 39 फीसदी थे। इस बार बसपा के समर्थन से सपा उम्मीदवार प्रवीण निषाद को 4.56 लाख वोट मिले, जो कुल पड़े मतों का 49 फीसदी हैं।

इसी तरह 2014 में फूलपुर में भाजपा उम्मीदवार केशव प्रसाद मौर्य को करीब 5.03 लाख वोट मिले, जो कुल पड़े मतों का 52 फीसदी थे। तब सपा को 20 फीसदी और बसपा को 17 फीसदी यानी दोनों को मिलाकर कुल 37 फीसदी वोट मिले थे। अब बसपा के समर्थन से यहां सपा उम्मीदवार नागेंद्र पटेल को करीब 47 फीसदी वोट मिले हैं। जबकि भाजपा के वोट पांच लाख से घटकर 2.83 लाख यानी 39 फीसदी रह गए। भाजपा को 13 फीसदी वोटों का नुकसान हुआ। भाजपा के नुकसान के पीछे मतदान में आई कमी भी वजह है। लेकिन यह स्पष्ट है क‌ि मुकाबला दोतरफा हो तो गैर-भाजपा मतों की एकजुटता उसे नुकसान पहुंचाता है।

उपचुनाव में वोट बैंक खिसकने के बाद भाजपा पार्टी की विचारधारा से मेल खाते अन्य दलों को भी साथ ला सकती है। साथ ही, दूसरे दलों के प्रमुख नेताओं को भी पार्टी में शामिल कराया जा सकता है। प्रदेश में भाजपा सरकार का एक साल पूरा होने पर सरकार के कामकाज की समीक्षा भी की जा रही है। इसी आधार पर कुछ मंत्रियों के कामकाज में भी फेरबदल की आशंका जताई जा रही है। हालांकि, प्रदेश में भाजपा की सहयोगी सुहेल देव भारतीय समाज पार्टी (भासपा) के मुखिया और कैबिनेट मंत्री ओम प्रकाश राजभर प्रदेश में हुए निकाय चुनावों और उपचुनावों में पार्टी को तरजीह नहीं देने से खफा हैं। उन्होंने खुले तौर पर कहा कि भाजपा ने गठबंधन धर्म नहीं निभाया है। उन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से भी यह बात कही कि अगर उनकी पार्टी की मदद गोरखपुर और फूलपुर में हुए उपचुनावों में ली जाती तो नतीजे कुछ और होते।

वह सरकार के एक साल पूरे होने पर आयोजित कार्यक्रम में भी शामिल नहीं हुए। उन्होंने कहा कि जब तक भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से उनकी मुलाकात नहीं हो जाती, वह सरकार के किसी कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लेंगे। लेकिन 20 मार्च को दिल्ली में अमित शाह से मुलाकात के बाद उन्होंने कहा कि वह संतुष्ट हैं और भाजपा के साथ हैं। लोकसभा चुनाव में अभी वक्त है, लेकिन भारतीय समाज पार्टी और अपना दल अभी भाजपा के साथ हैं।

भविष्य की चुनौतियों को देखते हुए अपना दल से अलग होकर नई पार्टी अपना दल (सोनेलाल) बनाने वाली केंद्रीय राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल संगठन को धार देने में लगी हैं। पार्टी की ओर से सपा-बसपा के गठबंधन को अस्तित्व का संकट बताया जा रहा है तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 2019 में जीत की पताका लहराने की भी बात की जा रही है। केंद्रीय राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल सपा-बसपा के गठबंधन को ज्यादा तवज्जो न देते हुए कहती हैं कि सपा-बसपा दोनों दल अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं। 2014 और 2017 में आए परिणामों से लोकसभा से लेकर विधानसभा में दोनों दलों के सदस्यों की संख्या लगातार कम हुई है। इसलिए मैं मानती हूं कि दोनों दलों के लिए 2019 बड़ी चुनौती है, क्योंकि इन्हें अपने अस्तित्व को साबित करना है।

ऐसा नहीं है कि गोरखपुर और फूलपुर के नतीजे पूरे प्रदेश का राजनीतिक मिजाज तय करते हैं। अभी कैराना लोकसभा और नूरपुर विधानसभा सीटों पर भी उपचुनाव होने हैं। इन सीटों पर चौधरी अजित सिंह के आरएलडी का अच्छा प्रभाव है। सपा-बसपा के गठजोड़ में अगर आरएलडी को जगह नहीं मिलती है तो नतीजे कुछ दूसरे हो सकते हैं। इसके अलावा उत्तरप्रदेश में सपा-बसपा के साथ-साथ आरएलडी और कांग्रेस का भी राजनीतिक नतीजों के लिहाज से अहम रोल है। इसलिए 2019 के महासमर में इन दोनों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।

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