निरा खाली मंच मगर भारी गहमागहमी और एकजुटता का एहसास! राहुल की जबान से पांडवों-कौरवों की महाभारत जैसा मुहावरा! यह आम कांग्रेसियों के लिए ही नहीं, बाकी लोगों को भी चौंकाने के लिए काफी था। दिल्ली के इंदिरा गांधी स्टेडियम में 17 मार्च को 84वें कांग्रेस महाधिवेशन में अखिल भारतीय कांग्रेस के करीब 1500 और प्रदेश कांग्रेस कमेटियों के 12 हजार प्रतिनिधियों को भी बहुत कुछ बदला-बदला-सा लग रहा था। वे नेताओं से खाली मंच को देखकर दंग रह गए। मंच पर सिर्फ वक्ता के लिए जगह थी। सबके जेहन में एक ही सवाल थाः क्या यह खाली मंच राहुल गांधी की अगुआई में युवाओं को आकर्षित करने का कोई संकेत है या दूसरे सहमना दलों और मुद्दों-मसलों की इंद्रधनुषी छतरी कायम करने के लक्ष्य का कोई संकेत, जिसकी आज कांग्रेस को बेतहाशा दरकार है?
राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस का यह पहला महाधिवेशन था, जिस पर उनकी छाप संकेतों से लेकर सभी कुछ में खूब दिखाई दी। अपने भाषण में राहुल गांधी ने पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच की दीवार तोड़ने पर जोर दिया। खाली मंच की ओर इशारा करते हुए कहा कि यह मंच देश के प्रतिभाशाली युवाओं के लिए है। राजनैतिक प्रस्ताव में 2003 में शिमला अधिवेशन की तर्ज पर सहमना दलों का एक समावेशी गठजोड़ कायम करने के लिए व्यावहारिक नजरिया और एक साझा कारगर कार्यक्रम अपनाने पर जोर दिया गया।
यही नहीं, आर्थिक प्रस्ताव में सूट-बूट वाली सरकार (मोदी सरकार के लिए राहुल का विशेषण) के बरक्स आम आदमी का राज कायम करने के लिए एक फीसदी अमीरों पर पांच फीसदी अतिरिक्त सेस लगाने की बात है। किसानी का संकट दूर करने के कार्यक्रमों पर भी जोर है। नफरत की राजनीति से जूझने का संकल्प है, लेकिन मौजूदा सत्तारूढ़ दल भाजपा और संघ परिवार के एजेंडे की काट के लिए किसी कार्ययोजना का अभाव खल रहा था।
राजस्थान प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष सचिन पायलट कहते हैं कि यह अधिवेशन पूरी तरह कार्यकर्ताओं को समर्पित था। राहुल गांधी पार्टी को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं, उनकी सोच क्या है, इसकी झलक यहां साफ दिखाई दी। एक संदेश बिलकुल साफ था कि कार्यकर्ताओं से जुड़ना है और युवाओं को पार्टी से जोड़ना है। सिर्फ राहुल गांधी के भाषण में ही नहीं, बल्कि दो दिन चले अधिवेशन में भी कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच दीवार टूटती दिखाई दी। जिस गर्मजोशी के साथ पार्टी के वरिष्ठ नेता देश के दूर-दराज इलाकों से आए पदाधिकारियों से घुले-मिले उसकी छाप ट्विटर जैसे सोशल मीडिया मंचों पर दो दिन तक दिखाई पड़ती रही। 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के सामने धराशायी होने के बाद कांग्रेस ने कई मोर्चों पर अपनी खामियों को स्वीकार किया है। यूपीए के दूसरे कार्यकाल में पार्टी के जनता से दूर होने और घमंड में आने की बात राहुल गांधी कई बार मान चुके हैं। हालांकि, सोशल मीडिया की जिम्मेदारी दिव्या स्पंदना उर्फ राम्या को मिलने के बाद यह कमजोरी भी काफी हद तक दूर हो रही है। फिर भी नरेंद्र मोदी और भाजपा का विकल्प पेश करना राहुल गांधी और कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती है। भाजपा की नाकामियों और आर्थिक मोर्चे पर पैदा हो रहे हालात को अपने पक्ष में मोड़ने की सीख कांग्रेस को गुजरात के विधानसभा चुनाव से मिली है। इसलिए आजकल कांग्रेस के छोटे-बड़े, नए-पुराने नेता सोशल मीडिया पर खूब आक्रामकता से अपनी बात रखने लगे हैं। खुद राहुल गांधी भी अपने नाम से ट्विटर के मैदान में ताल ठोक चुके हैं।
गोरखपुर, फूलपुर और अररिया उपचुनाव में भाजपा की हार ने कांग्रेस के महाधिवेशन को मुफीद माहौल मुहैया कराया। हालांकि, गोरखपुर और फूलपुर में पार्टी के उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई लेकिन बसपा के समर्थन से सपा की जीत ने भावी गठबंधन की झलक दिखा दी है। गठबंधनों को लेकर कांग्रेस के मौजूदा नजरिए को स्पष्ट करते हुए सोनिया गांधी ने याद दिलाया कि 2003 के शिमला अधिवेशन में हमने समान विचारधारा वाले लोगों को साथ लेकर चलने का फैसला किया, जिसके बाद आम चुनावों में हमने वह सफलता हासिल की।
इस अधिवेशन को कांग्रेस के नेताओं ने मोदी सरकार और भाजपा पर तीखे हमले करने के अवसर में तब्दील कर दिया। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि भाजपा की सरकार ने लोगों से बड़े-बड़े वादे किए थे, जिन्हें निभाने में वह नाकाम रही है। मौजूदा हालात को देखते हुए किसानों की आमदनी दोगुनी करने की बात समझ से परे है। कश्मीर में भी स्थिति पूरी तरह बिगड़ चुकी है। पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने नोटबंदी को बड़ा झूठ करार देते हुए तंज कसा कि आरबीआइ नोट गिने जा रहा है, लेकिन कितना पैसा वापस आया यह बताने की स्थिति में नहीं है। मोटे तौर पर कांग्रेस ने इस महाधिवेशन के जरिए दो-तीन बड़े निशाने साधे हैं। पहला, राजनीतिक महत्व के इस राष्ट्रीय आयोजन के जरिए केंद्र की मोदी सरकार की नाकामियों पर जमकर हमला बोला। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने नोटबंदी, जीएसटी, बेरोजगारी, आर्थिक सुस्ती जैसे मुद्दे पर सरकार को खूब घेरा तो सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने नफरत और विभाजन की राजनीति के लिए भाजपा-संघ की विचारधारा पर सवाल उठाए। दूसरा, इस अधिवेशन के जरिए कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने और उन्हें एकजुट करने का प्रयास किया। तीसरी अहम बात यह कि कांग्रेस जिन उदार विचारों और लोकतांत्रिक मूल्यों में भरोसा करती है, उन पर जोर देते हुए अपने एजेंडे को सामने रखा।
लेकिन जो दो बयान इस दौरान सबसे ज्यादा चर्चित हुए वे राहुल गांधी और नवजोत सिंह सिद्धू के थे। राहुल गांधी ने भाजपा-आरएसएस की तुलना कौरवों से करते हुए कांग्रेस के पांडवों की तरह सच के लिए लड़ने का दावा किया। हालांकि, केंद्रीय रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस प्रकार की तुलना को हास्यास्पद करार दिया। लेकिन राहुल गांधी के भाषण पर भाजपा के नेताओं-मंत्रियों ने जिस तरह प्रतिक्रिया दी, उससे उनका महत्व बढ़ता ही है।
भाजपा से मोहभंग के बाद कांग्रेस में शामिल हुए और अब पंजाब सरकार में मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू ने अपनी चुटीली शैली में जोरदार भाषण तो दिया ही, मनमोहन सिंह को असरदार सरदार बताते हुए उनके मौन की तारीफों के पुल बांधे। पूरा स्टेडियम ठहाकों से गूंज गया। मनमोहन सिंह तब भी एकदम शांत रहे। पास बैठी सोनिया गांधी ने कुछ कहा तब थोड़ा मुस्कुराए। नाकामियों और गुटबाजी से कांग्रेस को उबारकर सत्ता में वापस लाने वाली सोनिया गांधी ने 40 साल पहले चिकमंगलूर में इंदिरा गांधी की जीत को याद करते हुए कर्नाटक से दोबारा ऐसे ही करिश्मे की उम्मीद जताई है।
अधिवेशन के दौरान मीडिया को लेकर आयोजित विशेष सत्र भी काफी चर्चित रहा, जिसमें प्रेस की आजादी के दमन और मीडिया पर दबाव को लेकर चिंता जाहिर की गई। इस दौरान सत्ता द्वारा मीडिया के दुरुपयोग का मुद्दा भी उठा। कपिल सिब्बल ने तो यहां तक सुझाव दिया कि कांग्रेस को सत्ता में आने पर फेक न्यूज को बढ़ावा देने वाले टीवी चैनलों के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। ईवीएम के बजाय मतपत्र से मतदान की मांग को भी कांग्रेस ने औपचारिक मंजूरी दी गई।
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है राहुल गांधी को अपनी मर्जी से कांग्रेस की नई कार्यसमिति के सदस्य चुनने का अधिकार मिलना। इससे राहुल गांधी को अपनी मर्जी की टीम तैयार करने में सहूलियत होगी, लेकिन यह फैसला पार्टी में लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देने के उनके दावों से मेल नहीं खाता। सिद्धांत और व्यावहारिकता का अंतर यहां साफ दिखता है।