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नेतृत्व संकट अहम मुद्दा

कांग्रेस की मजबूती के बिना आम चुनावों से पहले विपक्षी दलों की लामबंदी की कल्पना सार्थक नहीं
रणदीप सुरजेवाला और ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ राहुल गांधी

उत्तर प्रदेश उपचुनावों के नतीजे और उससे पहले टीडीपी के एनडीए गठबंधन से अलग होने जैसी घटनाओं ने राजनीतिक गलियारों में हलचल पैदा करने का काम किया है। खासकर गोरखपुर की सीट, जहां वर्षों से भाजपा और महंतों का वर्चस्व रहा है, वहां समाजवादी पार्टी के काबिज होने से सत्तासीन भाजपा की चिंताएं बढ़ना स्वाभाविक है। इसी दरम्‍यान बसपा और सपा के गठबंधनात्मक प्रयोग के परिणाम से विपक्ष में ऊर्जा का संचार भी हुआ है लेकिन दो सीटों के उपचुनावों के परिणाम से 2019 के आम चुनाव की ‌िदशा तय करना जल्दबाजी होगी।

इन घटनाक्रमों के बाद जहां शासक दल में समीक्षा की पहल की जा रही है तो वहीं कई मोर्चों पर विपक्षी एकता की कवायद भी तेज हुई है। हाल ही में सोनिया गांधी के रात्रि भोज में विभिन्न राजनीतिक दलों का शामिल होना निःसंदेह विपक्षी एकजुटता का आह्वान है। यद्यपि इस भोज में कई ऐसे दल भी शामिल हुए हैं जिनके पास न तो कोई सांसद या विधायक हैं और न ही राजनीतिक धरातल। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.सी. राव और ममता बनर्जी की मुलाकात के अलावा शरद पवार की सक्रियता ने भी चुनावी कुंड में घी डालने का काम किया है। राव गैर भाजपा, गैर कांग्रेसी मोर्चे की वकालत कर रहे हैं। ममता के हालिया बयान में भी कांग्रेस के साथ जाने की स्पष्टता नहीं है।

इसी बीच सीपीएम नेता सीताराम येचुरी द्वारा 1996 जैसी स्थिति पैदा होने की आशंका ने मौजूदा परिस्थितियों को उलझाने का काम भी किया है। उस आम चुनाव में भाजपा को 161 सीटें मिलीं थीं तो कांग्रेस को 140 और जनता दल को 46 सीटों पर जीत मिली थी। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के महज 13 दिनों में धाराशायी होने के बाद कांग्रेस के बाहरी समर्थन से एचडी देवगौड़ा के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनी थी। लेकिन आज के परिपेक्ष्य में महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस बाहर से समर्थन देने की आदी नहीं रही है। आज कांग्रेस को अपनी सरकार चाहिए।

इतिहास गवाह है कि कांग्रेस के बाहरी समर्थन से बनी सरकार की मियाद एक वर्ष से अधिक नहीं रही है। चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर, गुजराल और देवगौड़ा सभी की सरकारें कांग्रेस की चालबाजी की शिकार रही हैं। जहां तक वर्तमान परिदृश्य का सवाल है, आज भी बीजेडी, टीआरएस, टीडीपी, सीपीआइ आदि दल कांग्रेस के साथ गठबंधन की स्थिति में नहीं हैं। हालिया उदाहरण के तौर पर यूपी के उपचुनाव में सपा-बसपा गठबंधन से कांग्रेस का बाहर रहना 2019 की सुगमता नहीं है। इस चुनाव में कांग्रेस 10 हजार वोट भी नहीं जुटा पाई जबकि दोनों ही सीटों पर सपा और भाजपा के उम्मीदवारों को तकरीबन लाख से ऊपर वोट मिले हैं। इस चुनाव में भी बसपा-सपा को समर्थन देकर कांग्रेस सकारात्मक संदेश दे सकती थी। कांग्रेस ने 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव सपा और पश्चिम बंगाल के उपचुनाव सीपीएम के साथ मिलकर लड़ा था। लेकिन परास्त होने के बाद इन दलों के साथ उसकी खाई और चौड़ी हो गई। ऐसे में 2019 से पहले विपक्षी दलों की लामबंदी समय की मांग हो सकती है, लेकिन स्वयं कांग्रेस की मजबूती के बगैर इसकी कल्पना सार्थक नहीं है।

कटु सत्य है कि पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस एक के बाद एक राज्य चुनाव हारती गई और उन सभी राज्यों पर भाजपा का कब्जा होता गया। हाल के उत्तर-पूर्व के चुनावी नतीजों से जहां एनडीए गठबंधन का हौसला बुलंद हुआ है तो वहीं कांग्रेस अपनी पक्की जमीन भी खो चुकी है। हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, असम, छत्तीसगढ़, गोवा, गुजरात, उत्तर प्रदेश, हिमाचल, उत्तराखंड जैसे 15 राज्यों में भाजपा के मुख्यमंत्री हैं और पांच राज्यों में उसके सहयोगी दलों की सरकार है। केरल में एलडीएफ के हाथों पिछले वर्ष कांग्रेस मात खा चुकी है। पश्चिम बंगाल में सीपीआइ(एम) और तृणमूल कांग्रेस के मुकाबले कांग्रेस का धरातल कमजोर है। बिहार में उसकी सहयोगी राजद भ्रष्टाचार में डूबी पार्टी है। इन घटनाक्रमों से स्पष्ट है कि पिछले चार वर्षों के दौरान भाजपा जितनी तेजी से मजबूत हुई कांग्रेस उतनी ही तेजी से फिसलती चली गई है। आज यह पार्टी पंजाब, मिजोरम, कर्नाटक और पुद्दुचेरी तक सिमटी हुई है। इस दृश्य में आम चुनाव से पहले होने वाले कर्नाटक, मिजोरम, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे 2019 की दिशा तय करने वाले होंगे।

इन तमाम प्रसंगों के बीच महत्वपूर्ण यह भी है कि 2019 में एनडीए उम्मीदवार और वर्तमान प्रधानमंत्री के समक्ष यूपीए की ओर से प्रधानमंत्री का उम्मीदवार कौन होगा? जहां तक कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नाम पर सहमति बनने का सवाल है, फिलहाल आसान नहीं दिख रहा है। हालांकि एनडीए के समक्ष भी चुनौतियां हैं कि उसके घटक दल एक के बाद एक साथ छोड़ने के संकेत दे रहे हैं। इससे इतर कांग्रेस के लिए चुनौती यह है कि उसकी विचारधारा वाले दल तीसरे मोर्चे की आवाज बुलंद कर रहे हैं।

इन हालात में नेतृत्व संकट एक अहम मुद्दा होगा और इसमें दो राय नहीं कि नरेंद्र मोदी के मुकाबले विपक्ष में कोई चेहरा यूपीए में उत्साह पैदा करने में सक्षम होगा। इसके अलावा उत्तर भारत में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता भी यूपीए की राह का बड़ा रोड़ा बनी हुई है। तमाम आंकड़ों और तस्वीरों से स्पष्ट है कि एनडीए गठबंधन का पलड़ा फिलहाल भारी है तो वहीं कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए का रास्ता आसान नहीं है।

एनडीए के लिए राहत की बात यह भी है कि अब तक के उसके शासन के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर नहीं बनी है और बचे हुए कार्यकाल के कार्यों के जरिए वह 2019 का आम चुनाव फतह करने में कामयाब हो सकता है। इसके अलावा भाजपा के मजबूत संगठन की तुलना में कांग्रेस की सुस्त संगठनात्मक क्षमता भी चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकती है। 

 (लेखक जदयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं)

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