सरकार की जिम्मेदारी नागरिकों से सही समय पर सही जानकारी साझा करना भी है। साथ ही जरूरी हो तो सरकार को लोगों की शंकाओं का निवारण भी करना चाहिए। लेकिन पिछले कई घटनाक्रम दर्शाते हैं कि अगर कोई मामला सरकार को असहज करता है तो वह उसे नजरअंदाज करने का रुख अपनाती है। हो सकता है कई बार सरकार के पास इन मसलों पर पुख्ता जानकारी या सही तथ्य न हो और वह सही समय का इंतजार करना चाहती हो। लेकिन आज सूचना क्रांति के दौर में लोगों के पास कई स्रोतों से जानकारी पहुंचती है जो कई बार आधी-अधूरी ही नहीं गलत भी होती है। ऐसे में सरकार का जिम्मा बढ़ जाता है कि लोगों को सही तथ्यों के साथ सही समय पर जानकारी मिले। इसमें कई बार राजनीतिक नफा-नुकसान भी जुड़ा होता है।
मसलन, विश्व बैंक ने जब भारत की ईज आफ डूइंग बिजनेस की रैंकिंग में 30 अंकों के सुधार की रिपोर्ट पेश की तो उसे हर मंच पर इस्तेमाल किया गया। राजनीतिक मंचों से लेकर निवेशकों को आकर्षित करने तक सभी जगह इसका उपयोग किया गया। लेकिन जब इसी बैंक ने हाल ही में कहा कि माल एवं सेवा कर (जीएसटी) दुनिया के सबसे कॉम्प्लेक्स यानी जटिल कर सिस्टम में से एक है तो सरकार ने इस बयान को नजरअंदाज करना ही ठीक समझा। अब अगर हम समस्या को समझने के लिए ही तैयार नहीं होंगे तो उसका हल कैसे करेंगे। जबकि यह बात तमाम कारोबारी, उद्यमी और अर्थविद मान रहे हैं कि जीएसटी बहुत ही जटिल कर-व्यवस्था है और उसका कई मामलों में प्रतिकूल असर पड़ रहा है। वैसे, इसकी जटिलता को कम करने के लिए सरकार और जीएसटी काउंसिल लगातार काम कर रही है लेकिन शुरू में ही इसे गुड ऐंड सिंपल टैक्स की धारणा के अनुसार लागू किया जाता तो सभी के लिए ठीक रहता।
दूसरा मसला है बेरोजगारी का। यह एक बड़ी समस्या है और जिस तरह से बेरोजगार युवक सड़कों पर आ रहे हैं वह अच्छा संकेत नहीं है। नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री पॉल क्रुगमैन ने हाल ही में एक टिप्पणी कर चेतावनी दी है कि भारत को बेरोजगारी की समस्या को हल करने की दिशा में काम करने की सख्त जरूरत है नहीं तो यह उसके लिए एक बड़ा संकट बन सकती है। यह बात तब है जब हम सरकार के मुताबिक ताजा जीडीपी आंकड़ों में दुनिया की सबसे तेज अर्थव्यवस्था बन गए हैं। लेकिन यह भी सच है जब वैश्विक अर्थव्यवस्था एक दशक के सबसे तेज गति से विकास करने के दौर में है, हम उसका फायदा उठाने में कामयाब नहीं हो रहे हैं। इसकी वजह मैन्यूफैक्चरिंग और निर्यात के मोर्चे पर सुस्त रफ्तार को माना जा रहा है और यही वह दो क्षेत्र हैं जो संगठित क्षेत्र में सबसे अधिक रोजगार के अवसर पैदा करते हैं। लेकिन इसके उलट सरकार इकोनॉमिक सर्वे में जीएसटी रिटर्न के आधार पर संगठित क्षेत्र में रोजगार का नया आंकड़ा ले आई।
कुछ इसी तरह की दिक्कत बजट में फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के लागत से डेढ़ गुना होने के दावे में हुई। वित्त मंत्री ने बजट भाषण में इसका दावा कर दिया। लेकिन स्थिति अभी तक साफ नहीं हुई क्योंकि किसानों ने इसे वास्तविकता से परे बताया और आंदोलन की धमकी देने लगे। इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री मोदी ने स्थिति को कुछ साफ करने का प्रयास किया है लेकिन जब तक आधिकारिक घोषणा नहीं होती तब तक कुछ भी कहना मुश्किल है।
इन सबके अलावा ताजा मामला इराक के मोसुल में मारे गए 39 भारतीयों को लेकर सरकार द्वारा दी गई जानकारी का है। यह मामला विवादित हो गया है। चार साल पहले इन लोगों को आइएसआइएस ने अगवा किया था और उसी समय से आशंका जताई जा रही थी कि उनकी हत्या कर दी गई है। एक व्यक्ति जो मृतकों के साथ अगवा होने का दावा कर रहा है, वह 2014 में आइएसआइएस द्वारा उनकी हत्या किए जाने का बयान देता रहा है। लेकिन विदेश मंत्री कई मौकों पर कह चुकी थीं कि हमें इन लोगों के सुरक्षित होने की जानकारी मिल रही है। इसी बीच मीडिया में कुछ खबरें भी आ रही थीं कि इन लोगों की मौत हो चुकी है। इराकी सेना ने मोसुल को कई माह पहले आइएसआइएस के कब्जे से मुक्त भी करा लिया था। लेकिन हमारी सरकार अब कह रही है कि यह लोग मारे जा चुके हैं और उनकी डीएनए रिपोर्ट के आधार पर पुष्टि की गई है।
अब सवाल है कि क्या हमारे डिप्लोमेटिक सूत्र और सूचना का तंत्र इतना लचर है कि चार साल से इन लोगों के परिवार वालों को हम झूठी दिलासा में रखे रहे और अब एक झटके में उनको यह जानकारी दी गई। इस सूचना को सार्वजनिक करने या इराक से जुटाने में इतनी देरी क्यों हुई। ऐसे सवालों का जवाब तो सरकार को देना होगा क्योंकि यह देश के नागरिकों का हक भी है। सवाल उठता है कि भले ही कोई सूचना या घटना कितनी भी असहज हो, उसका सार्वजनिक होना और उस पर सरकार का रुख लोगों के सामने जितना जल्दी आए बेहतर है क्योंकि पारदर्शिता सरकार और नागरिकों के हित में है।