दोपहर, शाम और देर रात चलने वाली बैठकें, रणनीति की बारीकियों पर लंबी चर्चाएं, पोस्टर और सोशल मीडिया पर संदेश के जरिए किसानों को गोलबंद करने के कार्यक्रम, मार्च के लिए रास्तों और उसकी व्यवस्था को अंतिम रूप देने पर विचार-विमर्श, हर एक बारीकी पर विस्तार से चर्चा, हर घर से चावल, दाल, तेल, बर्तन और अन्य सामान इकट्ठा करने की मुहिम, ताकि रास्ते में सभी के लिए खाना बनाया जा सके। लाल टोपी और झंडे की व्यवस्था, फिर लोगों को लाठीचार्ज जैसी पुलिसिया कार्रवाई, यहां तक कि गिरफ्तारी के लिए भी तैयार करना, और भी न जाने कितनी तैयारियां...
सब कुछ चाक-चौबंद और बड़ी संजीदगी और खूबसूरती से अंजाम दिया गया था। लिहाजा, महाराष्ट्र का किसान मार्च या लॉन्ग मार्च यकीनन व्यापक असर छोड़ गया। उसके अनुशासन ने भी ऐसा समां बांधा कि देश ही नहीं, दुनिया भर में लोग हैरान रह गए। उन हलकों में भी किसानों के दुख-दर्द और मुद्दों-मसलों पर सहानुभूति उभर आई, जो अपनी शहराती आभिजात्य जिंदगी में ही मशगूल रहते हैं और इन मोर्चों पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं। नासिक से करीब 200 किलोमीटर पैरों से नापकर जब हजारों की तादाद में किसान 12 मार्च को मुंबई पहुंचे तो कुछ घंटे के भीतर यह आंदोलन ऐतिहासिक सफलता में बदल गया, कम से कम अपने असर के लिहाज से। इस आंदोलन को सफल बनाने के लिए भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के किसान संगठन अखिल भारतीय किसान सभा (एआइकेएस)के कार्यकर्ता और नेता कई महीनों से किसानों को संगठित करने में जुटे थे। महाराष्ट्र में वामपंथी दलों का व्यापक जनाधार भले न हो लेकिन किसान, मजदूर और आदिवासियों के मुद्दे पर जमीन स्तर पर सक्रिय किसान सभा की जड़ें पूरे राज्य में फैली हैं।
ऑल इंडिया किसान सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. अशोक धावले इस महामार्च के मुख्य रणनीतिकार और नेता हैं। उन्होंने आउटलुक को बताया, “लोगों को इकट्ठा करना ज्यादा मुश्किल नहीं था। मार्च और अक्टूबर 2016, फिर पिछले साल जून में प्रदर्शन के दौरान भाजपा सरकार के झूठे वादों से किसानों में गुस्सा और नाराजगी थी। कर्जमाफी से लेकर फसलों के खराब होने पर वित्तीय मदद और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों से लेकर आदिवासियों के लिए भूमि अधिकार जैसे मुद्दों पर कुछ नहीं किया गया। पूरे राज्य में ग्रामीणों के बीच भारी नाराजगी थी। हमने उनसे बस यही कहा कि आपको अपने अधिकारों के लिए पूरी ताकत से कम से कम एक बार और लड़ना चाहिए।”
डॉ. धावले और उनकी टीम ने छह मार्च को 25 हजार किसानों के साथ नासिक से 200 किलोमीटर की पदयात्रा शुरू की। 20 हजार से अधिक किसान रास्ते में जुड़ते चले गए। शहरी लोगों ने जब चिलचिलाती धूप में खून लगे पैरों और टूटे चप्पल पहने गरीब किसानों को मुंबई की तरफ मार्च करते देखा तो उनका भी दिल पसीज गया।
मुंबई के लोगों ने अन्नदाता की तरफ मदद का हाथ बढ़ाया। यह अभूतपूर्व नजारा था। मुंबई पड़ाव के आखिरी दौर में किसानों ने 11 मार्च की रात को मुंबई में प्रवेश करने का फैसला किया, ताकि आम लोगों को परेशानी का सामना नहीं करना पड़े। इस तरह की सूझबूझ और सावधानियों ने प्रदर्शनकारियों के प्रति लोगों में सहानुभूति पैदा की।
डॉ. धावले कहते हैं, “11 मार्च को कड़ी धूप में 40 किलोमीटर से अधिक चलने के बाद किसान बहुत थक चुके थे और घाटकोपर के सोमैया मैदान में पहुंचे ही थे कि पता चला अगले दिन छात्रों की बोर्ड परीक्षा है। परीक्षा देने वाले छात्रों को परेशानी न हो इसके लिए हमने आधी रात को ही आजाद मैदान की ओर मार्च करने का फैसला किया, ताकि सुबह होने से पहले वहां पहुंचा जा सके। रात के एक बजे फिर सारे किसान 20 किलोमीटर और चलने के लिए खड़े हो गए।” इस फैसले ने पूरे देश को प्रदर्शनकारी किसानों का कायल बना दिया। जिन शहरी लोगों के लिए महंगाई के अलावा कृषि से जुड़े बाकी मसले खास मायने नहीं रखते उन्होंने भी आंदोलन को गंभीरता से लिया, क्योंकि इसने उनकी दिनचर्या को बाधित नहीं किया। छात्र बगैर किसी परेशानी के परीक्षा देने पहुंच गए। किसान सभा के नेता डॉ. अजित नवले कहते हैं, “हमारी सफलता में मीडिया और सोशल मीडिया ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।”
जब ट्विटर पर किसानलॉन्गमार्च हैशटैग ट्रेंड करने लगा तो अपनी छवि को लेकर अधिक सतर्क रहने वाली फड़नवीस की अगुआई वाली भाजपा सरकार ने उनकी अधिकांश मांगें मान ली। लिखित में तय समयसीमा के साथ आश्वासन दिया। कुछ मागों के लिए समिति गठित करने का वादा किया गया। उसके अगले दिन किसानों को दिए आश्वासनों को विधानसभा के पटल पर रखा गया।
किसानों की क्या है मांग
महाराष्ट्र के प्रदर्शनकारी किसान चाहते हैं कि कर्जमाफी योजना को सही तरीके से लागू किया जाए, फसल खराब होने की स्थिति में पर्याप्त मुआवजा मिले, विभिन्न योजनाओं के लिए जबरन भू-अधिग्रहण पर रोक लगे, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों (लागत का डेढ़ गुना समर्थन मूल्य) को लागू किया जाए। इसके अलावा आदिवासियों के भू-अधिकार और वंचित किसानों को दो हजार रुपये प्रतिमाह पेंशन की मांग भी प्रमुख मुद्दे हैं। आदिवासी किसान इस आंदोलन के अगुआ थे। वे जिस जमीन पर पीढ़ियों से खेती कर रहे हैं, उस पर अपने अधिकार की मांग कर रहे हैं। वन अधिकार अधिनियम-2006 उन्हें यह अधिकार देता है कि जिस जमीन पर लंबे अरसे से वे खेती कर रहे उस पर (10 एकड़ तक) उनका अधिकार होगा।
हालांकि, राज्य में करीब एक लाख आदिवासियों को यह अधिकार मिल चुका है। लेकिन, 2.5 लाख से भी अधिक आवेदन अभी लंबित हैं। एआइकेएस का आरोप है कि कई जगहों से प्रशासन द्वारा आदिवासियों को उनके अधिकारों से वंचित कर वन भूमि से हटाया जा रहा है।
किसानों के असंतोष की वजह
किसानों को लगातार कई तरह की चुनौतियों और जोखिमों से जूझना पड़ता है। पहला जोखिम मौसम है। महाराष्ट्र में 80 फीसदी से अधिक किसान सिंचाई के लिए बारिश पर निर्भर रहते हैं। कमजोर मॉनसून या मॉनसून में देरी के साथ-साथ ओलावृष्टि, बाढ़ और सूखे की वजह से उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है।
दूसरा जोखिम कीट हैं। इस साल पिंक वर्म हमले से कपास का उत्पादन करने वाले जिलों में फसलों की भारी तबाही हुई। हालांकि, सरकारी अनुमान के मुताबिक विभिन्न जिलों में 30 से 70 फीसदी के बीच फसलों को नुकसान पहुंचा है। महाराष्ट्र के लिए फसलों की यह तबाही बहुत मायने रखती है, क्योंकि यह देश का सबसे बड़ा कपास उत्पादक राज्य है। राज्य की एक तिहाई कृषि योग्य जमीन पर कपास की खेती होती है। लगभग 95 फीसदी किसान महाराष्ट्र में कई वर्षों से तथाकथित कीट मुक्त बीटी-कॉटन बीज का इस्तेमाल करते हैं। बीटी कॉटन को “कीट मुक्त” माना जाता है। जबकि वास्तव में अधिकांश कपास किसान कीटनाशक का इस्तेमाल कर रहे हैं। इनके अंधाधुंध और असुरक्षित प्रयोग से पिछले साल यवतमाल जिले में 18 किसानों की मौत हो चुकी है। किसानों का कहना है कि बहुराष्ट्रीय बीज कंपनी की साख दांव पर है इसलिए सरकार ने चुप्पी साध ली है।
तीसरा जोखिम कीमत का है। जितनी अच्छी फसल होती है, उसकी कीमत उतनी ही कम होती है। ऐसा माना जाता है कि सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खाद्यान्नों की खरीद से किसानों की रक्षा होगी। लेकिन, इसका फायदा बड़े कारोबारियों को होता है। 2015 में गठित की गई शांता कुमार समिति की रिपोर्ट से भी पता चलता है कि गांवों में 94 फीसदी से अधिक किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से भी कम कीमत पर फसलों को बेचते हैं। एमएसपी भी सिर्फ 26 फसलों पर ही लागू है। इनमें भी सरकार आमतौर पर चावल और गेहूं की खरीदारी करती है।
जोत की जमीन कम होने से भी कृषि गैर-लाभकारी पेशा बनता जा रहा है। महाराष्ट्र और बाकी देश में कृषि क्षेत्र ढांचागत समस्याओं से भी जूझ रहा है। महाराष्ट्र के 2017-18 के आर्थिक सर्वे के मुताबिक, राज्य के 80 फीसदी से अधिक लगभग 1.2 करोड़ लघु और सीमांत किसान हैं और इनके पास एक हेक्टेयर से भी कम भूमि है। जोत की जमीन का औसत 1971 के 4.28 हेक्टेयर से घटकर अब 1.44 हेक्टेयर हो चुका है। ऐसा हर पीढ़ी में जमीन के बंटवारे की वजह से हुआ। कृषि के जानकारों का कहना है कि इतनी छोटी जमीन पर खेती से पूरे परिवार का पालन-पोषण नहीं हो सकता है।
नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के आंकड़ों के मुताबिक, भारतीय खेतिहर किसान की औसत मासिक कमाई 6,426 रुपये है। इसमें कृषि से आमदनी का योगदान महज तीन हजार रुपये प्रतिमाह ही है। एनएसएसओ के आंकड़े के अनुसार, एक किसान परिवार को अपनी मासिक जरूरतों को पूरा करने के लिए कम-से-कम एक हेक्टेयर जमीन की जरूरत है। देश के अधिकांश किसानों के पास इससे कम जमीन है। महाराष्ट्र के तो 80 फीसदी किसानों के पास एक हेक्टेयर से कम भूमि है।
लघु और सीमांत किसानों के पास जमीन खरीदने या लीज पर लेने या खेती में निवेश करने के लिए पैसे की कमी होती है। उन्हें बच्चों की शिक्षा, बेटियों की शादी और स्वास्थ्य आदि पर खर्च के लिए भी पैसों की जरूरत होती है, जिसे वे महाजन या सूदखोर से लेते हैं। कर्ज नहीं चुका पाने की स्थिति में गरीबी के कुचक्र में फंस जाते हैं।
एमएसपी में मामूली बढ़ोतरी
किसानों की मांग अधिकांशत: कर्जमाफी और लागत से 50 फीसदी अधिक एमएसपी के इर्द-गिर्द ही रहती है। एक्टिविस्ट्स का कहना है कि कर्जमाफी की मांग अक्सर मान ली जाती है, लेकिन कृषि संकट के पीछे की मूल समस्या को सरकार हल नहीं करती।
कृषि संबंधी नीतियों के विश्लेषक देविंदर शर्मा कहते हैं, “1970 से 2015 तक गेहूं का एमएसपी 76 रुपये प्रति क्विंटल से बढ़कर 1,450 रुपये प्रति क्विंटल ही हुआ, जो 19 गुना है। इसी अवधि में सरकारी कर्मचारियों और शिक्षकों के वेतन में 120 से 150 और 280 से 320 गुना की बढ़ोतरी हुई। यह किसानों की दुर्दशा और किसानों की आत्महत्या में वृद्धि की कहानी बयां करता है।”
देविंदर शर्मा दावा करते हैं कि महंगाई को काबू में रखने के लिए जानबूझकर एमएसपी को कम रखा गया और किसानों को खेती छोड़कर शहरों की तरफ पलायन के लिए मजबूर किया गया। वह आगे कहते हैं, “ग्राणीण क्षेत्रों से शहरों में पलायन से निजी क्षेत्र को उसकी मर्जी के मुताबिक सस्ता श्रम मिलता है। कॉरपोरेट खेती के बारे में होने वाली चर्चाएं इसी डिजाइन का हिस्सा हैं।”
पिछले कुछ वित्त वर्षों में ग्रामीण और कृषि अर्थव्यवस्था सिमटी है। आर्थिक सर्वे के मुताबिक, अच्छे मॉनसून और अच्छी पैदावार की वजह से 2016-17 में महाराष्ट्र का कृषि क्षेत्र 22.5 फीसदी के हिसाब से बढ़ा और इसकी कुल विकास दर 10 फीसदी रही। ऐसा सूखे और नोटबंदी के बावजूद हुआ। हालांकि, 2017-18 में कमजोर मॉनसून और बढ़ते दबाव के कारण कृषि अर्थव्यवस्था 8.3 फीसदी पर पहुंच गई और पूरे राज्य की अर्थिक विकास दर 7.3 प्रतिशत हो गई।
मीडिया के दबाव में किया वादा
मुंबई में किसानों के आंदोलन के बाद महाराष्ट्र सरकार ने उनकी अधिकांश मांगों को मान तो लिया है। लेकिन इन पर अमल कब होगा, यह बड़ा सवाल है। इस मुद्दे पर महाराष्ट्र सरकार के सहकारिता विभाग के मंत्री सुभाष देशमुख से सवाल-जवाब...
सॉफ्टवेयर और डेटाबेस की समस्या से कर्जमाफी के आधे से अधिक मामले अब भी लंबित हैं। पिछले साल जून में घोषित की गई कर्जमाफी योजना को पूरा करने में और कितना समय लगेगा?
हम लंबित मामलों के जल्द से जल्द निपटारे के लिए सूची की जांच कर रहे हैं। इस बीच, कर्जमाफी के लिए आवेदन की समयसीमा 31 मार्च तक बढ़ा दी गई है। उसके बाद सभी ऑनलाइन फॉर्म की जांच की जाएगी। अगर किसी में समस्या होगी तो उसे तालुका स्तर की समिति के पास भेजा जाएगा। हर प्रक्रिया में समय लगता है। इसलिए हम अभी कोई तय समयसीमा नहीं दे सकते हैं।
किसानों के मार्च के बाद सरकार ने 2001-2009 के बीच दिए गए कर्जमाफी की भी घोषणा की है। राज्य पर पहले से ही चार लाख करोड़ का कर्ज है। इस वादे को पूरा करने के लिए कितने पैसे की जरूरत होगी और वह कहां से आएगा?
सरकार को यह वादा करना पड़ा, क्योंकि मीडिया की तरफ से बहुत दबाव बनाया गया था। 2001-2009 के बीच कर्जमाफी से कितना असर पड़ेगा, उसे समझने के लिए कुछ वक्त तो लगेगा। यह मामला अभी कैबिनेट में आना बाकी है।
आपने स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों खासतौर पर एमएसपी को लेकर भी वादा किया है? आप उसे कैसे पूरा करेंगे?
हमने कृषि मूल्य आयोग का गठन किया है। आयोग इस मुद्दों पर चर्चा के लिए एक समिति का गठन करेगा। हालांकि, राज्य सरकार उनके सुझावों की सिर्फ सिफारिश ही कर सकती है। केवल केंद्र सरकार ही एमएसपी पर फैसला ले सकती है।
वन-अधिकार कानून के तहत भू-अधिकार मामलों का निपटारा बिलकुल नहीं हुआ या अधिकांश जिलों में बहुत कम हुआ। नक्सल प्रभावित गढ़चिरौली में 75 फीसदी मामले को ही निपटाया गया। ऐसा क्यों?
हाथ की सभी अंगुलियां एक-समान नहीं होती हैं। अब हम यह सुनिश्चित करेंगे कि सभी जिला प्रशासन लंबित मामलों को जल्द निपटाएं।
किसानों ने विभिन्न कॉरिडोर के लिए भूमि-अधिग्रहण का सख्ती से विरोध किया। इसका हल कैसे निकलेगा?
जबरन किसी तरह का भूमि-अधिग्रहण नहीं होगा। नियमों के मुताबिक, अगर 75 फीसदी ग्रामीण प्रस्ताव पर सहमत होते हैं तो भूमि का अधिग्रहण किया जा सकता है।
प्रो-कॉरपोरेट हैं सभी सरकारें
किसानों की समस्याओं और आंदोलन के कारणों पर अखिल भारतीय किसान सभा और माकपा के नेता डॉ. अजित नवले से बातचीत...
कृषि संकट की मुख्य वजहें क्या हैं?
खेती को व्यवसाय नहीं समझा जा रहा है। खाद्यान्नों को मुफ्त या मामूली कीमत पर खरीदना बिलकुल सही माना जाता है। लोग रेडीमेड, प्रोसेस्ड भोजन और महंगे ब्रांड के कपड़ों पर भारी भरकम राशि खर्च करते हैं, लेकिन जब प्याज, दाल, चीनी या कपास की कीमतें बढ़ती हैं तो चिंतित हो जाते हैं। मूल्यों को काबू में रखने के लिए निर्यात पर रोक जैसी सरकारी हस्तक्षेप भी किसान विरोधी कदम हैं। किसानों के विशुद्ध लाभ को लेकर कौन चिंतित है?
आखिर सरकारों से कहां गलतियां हुईं?
अधिकांश सरकारें खुद को “किसानों का हितैषी” होने का दावा करती हैं। सच्चाई यह है कि सभी उद्योगपतियों की हितैषी हैं। किसानों की उनकी परिभाषा ही स्पष्ट नहीं है। नीतियां और कृषि बजट कॉरपोरेट के लिए होते हैं, जिनके पास प्रोसेसिंग यूनिट्स हैं। इसके अलावा, सत्ता में आने के बाद से भाजपा सरकार ने जितने वादे किए, उन सब पर किसानों को धोखा ही दिया।
हकीकत में आपकी सारी मांगें नहीं मानी गईं, फिर भी आपने अपने आंदोलन को वापस क्यों ले लिया?
हमारी सभी सातों मागें या तो मान ली गईं या विचार के लिए उन्हें विभिन्न समितियों के पास भेजा गया है। हम सरकार की मजबूरियों को भी समझते हैं। अगर वे तय समयसीमा के मुताबिक, वादों को पूरा नहीं करते हैं तो हम फिर से आंदोलन शुरू कर सकते हैं।
शुरू में महाराष्ट्र में वामपंथी आंदोलन की अच्छी पकड़ थी, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह पकड़ काफी कमजोर पड़ी है। आपको लगता है कि किसान आंदोलन की सफलता से पार्टी को अगले विधानसभा चुनाव में मदद मिलेगी?
अखिल भारतीय किसान सभा के बैनर तले हुए इस प्रदर्शन का कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं था। यह विशुद्ध रूप से किसानों का आंदोलन था।