कृषि के मोर्चे पर सरकार जितनी कोशिश करती है या कोशिश करती दिखती है, उतनी ही दिक्कतें बढ़ती जा रही हैं। यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली पूर्ववर्ती यूपीए सरकार भ्रष्टाचार के एक के बाद एक मामलों में सफाई देने की कोशिश में घिरती जा रही थी। उसमें कई बड़े दावे भी किए जा रहे थे जिन पर लोगों को यकीन नहीं हो रहा था और सरकार का राजनीतिक संकट बढ़ता ही गया। नतीजतन, यूपीए सत्ता से बाहर हो गया और वह भी बुरी तरह से। ऐसे ही करीब चार साल की एनडीए सरकार के दौर में देश में कृषि और किसानों का मुद्दा हल होने का नाम ही नहीं ले रहा है और वह 2019 के आगामी लोकसभा चुनावों में राजनीतिक रस्साकशी का केंद्र बनता दिख रहा है। सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद कोशिश कर रहे हैं कि किसानों को यह भरोसा दिलाया जाए कि केंद्र सरकार वाकई 2022 तक उनकी आमदनी दोगुनी कर देगी। लेकिन बात बिगड़ती ही जा रही है। किसानों को लुभाने के लिए 2014 में भारतीय जनता पार्टी और तब के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी का सबसे बड़ा वादा यही था कि उनकी सरकार किसानों के लिए उनकी फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य लागत का डेढ़ गुना तय करेगी। किसानों ने इस वादे को गंभीरता से लिया और मोदी को देश के प्रधानमंत्री पद तक पहुंचाने के लिए वोट दिया। लेकिन जब उनके नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के चार साल पूरे होने को हैं तो सरकारी आंकड़े कहते हैं कि देश में किसानों की आय और घट गई है। खाद्यान्न और दूसरी फसलों के रिकॉर्ड आंकड़ों के बावजूद कृषि और सहयोगी क्षेत्र की विकास दर दो फीसदी से थोड़ी ज्यादा ही रही है।
इस बीच सरकार ने एक बड़ा शिफ्ट किया है कि पैदावार की बजाय आमदनी को केंद्र में रखा जाए। यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट में एमएसपी को लागत का डेढ़ गुना नहीं कर पाने का हलफनामा देने के बावजूद प्रधानमंत्री ने 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने का लक्ष्य तय करने की हिम्मत की। हालांकि, अभी यह तय नहीं हो पाया है कि दोगुना करने की बेस लाइन क्या होगी। लेकिन इस पर कृषि मंत्रालय के एडिशनल सेक्रेटरी की अध्यक्षता में बाकायदा एक बड़ी कमेटी साल भर से ज्यादा समय से काम कर रही है। उसने फरवरी में दिल्ली में एक बड़ा आयोजन भी किया जिसमें इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए जरूरी कदमों पर करीब 350 एक्सपर्ट, अधिकारियों, वैज्ञानिकों, अर्थविदों, कॉरपोरेट जगत के लोगों और मंत्रियों ने मंथन किया। इस आयोजन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शरीक हुए।
यानी सरकार कोशिश तो जरूर कर रही है। मसलन, फसल बीमा योजना का दायरा बढ़ाया गया। उसका प्रीमियम कम किया गया और ज्यादा बजटीय आवंटन किया गया। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इसका ज्यादा फायदा किसानों के बजाय सरकारी और निजी बीमा कंपनियों को हुआ। उन्होंने जिस तरह से बहुत छोटा हिस्सा मुआवजे के रूप में देकर मोटा मुनाफा कमाया, उससे उनके लिए कमाई का एक बड़ा रास्ता खुल गया है। जहां तक किसानों की बात है तो उनमें एक बड़ी तादाद ऐसे लोगों की है जिनको मालूम ही नहीं है कि बैंक उनके कर्ज की रकम में से बीमा प्रीमियम का भुगतान कर रहे हैं।
सिंचाई के लिए प्रधानमंत्री सिंचाई योजना के तहत ‘हर खेत को पानी और हर बूंद अधिक उपज’ का स्लोगन दिया गया। बजट में आवंटन बढ़ाया गया और नाबार्ड के जरिए पचास हजार करोड़ रुपये जुटाकर सिंचाई परियोजनाओं को पूरा करने के लिए कार्यक्रम बनाया गया। लेकिन जिस तरह से गुजरात में नर्मदा का पानी नहर में तो है लेकिन किसानों के खेतों तक चैनल नहीं बनने से उनमें नहीं पहुंच रहा है। उससे इस तरह के दावों और स्लोगन की धार कम होती गई। यही नहीं, अब तो गुजरात के कई हिस्सों में सिंचाई के लिए सरदार सरोवर परियोजना का पानी देने से मना कर दिया गया है और किसानों को कहा गया है कि वह फसल ही न बोएं। यहां यह बताना महत्वपूर्ण है कि गुजरात में जब नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने कृषि क्षेत्र के लिए अलग पावर फीडर की योजना लागू की थी जिसे किसानों को बेहतर बिजली आपूर्ति की बड़ी पहल माना गया था।
भू-अभिलेखों यानी लैंड रिकाड्र्स को डिजिटल करने के लिए भी कार्यक्रम शुरू किए गए और कई राज्यों में यह काम काफी आगे बढ़ गया है। मसलन, तेलंगाना में तो रिकार्ड डिजिटल करने के बाद अब उनको आधार नंबर से जोड़ने का काम शुरू हो चुका है।
असल में नरेंद्र मोदी सरकार को किसानों की नाराजगी की पहली चोट सरकार के पहले साल में ही लग गई थी। जब सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून में किसानों के खिलाफ जाने वाले कई बड़े बदलाव किए थे। ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर जमीन अधिग्रहण को बेहद आसान बनाने की कोशिश की गई थी लेकिन किसान संगठनों के भारी विरोध और राजनीतिक बवाल के चलते संशोधन के लिए जारी किया गया अध्यादेश कई बार जारी करना पड़ा और संयुक्त संसदीय समिति बनानी पड़ी। नतीजा किसानों के भारी विरोध और तेज होते आंदोलनों के चलते सरकार ने चुपचाप इन बदलावों को ठंडे बस्ते में डाल दिया।
इसके बाद बात आती है बेहतर दाम के लिए मार्केटिंग सुधारों की। इसके लिए फूड प्रोसेसिंग से लेकर फूड मार्केटिंग तक में शत-प्रतिशत एफडीआइ की अनुमति दी गई। ई-नैम के नाम से कृषि उत्पादों के लिए ऑनलाइन प्लेटफार्म लॉन्च किया गया। लेकिन अभी यह प्रक्रिया बहुत शुरुआती स्तर पर ही है और राज्यों ने अभी इसे ठीक से नहीं अपनाया है। इसलिए किसानों के खेत तक मंडी ले जाने का दावा अभी सपना ही है।
दाम ही वह सबसे बड़ा मुद्दा है जो हल नहीं हो पा रहा है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2018-19 के बजट में दावा कर दिया कि सरकार ने रबी सीजन के लिए तय एमएसपी में किसानों को लागत का डेढ़ गुना दाम दे दिया है और आगामी खरीफ सीजन में भी वह डेढ़ गुना दाम देगी। लेकिन इसको लेकर विवाद इतना हुआ कि सरकार और पार्टी दोनों इस मसले को हल करने की कोशिश में लगे हुए हैं क्योंकि यह दावा उस स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों पर खरा नहीं उतरता है जिसकी बात आयोग की रिपोर्ट में कही गई है। यही वजह है कि 17 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक सम्मेलन में किसानों को संबोधित करते हुए कहा िक सभी लागतों को जोड़कर डेढ़ गुना एमएसपी तय किया जाएगा। अगर उनकी बात सच है तो जिस रबी सीजन की उपज बाजार में आना शुरू हो चुकी है उसके एमएसपी को सरकार को तुरंत संशोधित कर बढ़ा देना चाहिए। लेकिन ऐसा होने वाला नहीं है क्योंकि हकीकत बयानों से अलग है।
असल में बात कुछ ऐसी है कि जितना इलाज किया दर्द उतना ही बढ़ता गया है। अधिकांश फसलों के दाम एमएसपी से नीचे चल रहे हैं। इस समय नासिक में टमाटर दो रुपये किलो पर आ गया है। पिछले साल आलू किसानों को पचास पैसे किलो पर बेचने पड़े थे और बड़े पैमाने पर फसल को खेत में ही जोत दिया गया था या कोल्ड स्टोरों में रखे आलू को किसान लेने ही नहीं गए क्योंकि स्टोर का किराया चुकाने के भी पैसे आलू बेचकर नहीं निकल रहे थे। इस तरह के हालात पैदा करने में नवंबर, 2016 में लागू की गई नोटबंदी ने भी बड़ा योगदान किया। अधिकांश नकदी में होने वाला कृषि जिंस कारोबार नोटबंदी से लगभग तबाह हो जाने की हालत तक पहुंच जाने के बाद अभी तक इससे नहीं उबर पाया है।
यहां एक चिंताजनक मामला गन्ना किसानों का भी है। देश में पिछले साल और इस साल सबसे अधिक चीनी पैदा करने वाले उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों के भुगतान संकट को हल करने के लिए नरेंद्र मोदी ने चुनावी रैलियों में कई दावे किए थे। मसलन, आपूर्ति के 14 दिनों में गन्ना भुगतान का कानून लाया जाएगा। हालांकि, यह कानून पहले ही मौजूद था। उन्होंने कहा था कि हर जिले के लिए चौधरी चरण सिंह गन्ना मूल्य भुगतान योजना लागू की जाएगी। लेकिन अभी तो इसका कुछ पता नहीं है। उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी की भारी बहुमत वाली सरकार को एक साल हो चुके हैं और राज्य की चीनी मिलों पर गन्ना किसानों का इस पेराई सीजन (अक्टूबर, 2017 से सितंबर, 2018) का बकाया 6400 करोड़ रुपये को पार कर गया है। अहम बात यह है कि पहले जहां सरकारी और सहकारी चीनी मिलों का भुगतान रिकार्ड ठीक रहता था इस सीजन में वह निजी चीनी मिलों की बराबरी कर रही हैं और भुगतान में काफी पीछे हैं। खास बात यह है कि राज्य की कई चीनी मिलों पर पिछले सीजन का गन्ना मूल्य भुगतान भी बकाया है। इस मामले में पूरे देश में किसानों का गन्ना मूल्य भुगतान बकाया करीब 15 हजार करोड़ रुपये हो गया, जो सरकार की यूरिया सब्सिडी का करीब एक चौथाई है। किसानों को सरकार इस साल 10 लाख करोड़ रुपये का कर्ज देगी लेकिन इसका कितना हिस्सा किसानों को मिलता है इसका कोई पुख्ता आंकड़ा किसी विभाग के पास नहीं है। इसका एक बड़ा हिस्सा किसानों के नाम पर कारोबारियों को जा रहा है और बहुत सारे मामलों में मल्टीपल एंट्री हो रही है जिसमें हमारे बैंक माहिर हैं। इसके बावजूद किसान कर्जमाफी का दबाव रहता है और कई राज्य सरकारें इसे लागू कर रही हैं लेकिन फिर वही आधा-अधूरा कदम और दाम नहीं मिलने पर अगली कर्जमाफी का इंतजार शुरू।
फसल दर फसल और मुद्दा दर मुद्दा हालात कुछ ऐसे ही हैं और यही वजह है कि महाराष्ट्र के तीस हजार से ज्यादा आदिवासी किसान पैदल चलते हुए अपनी मांगों के लिए मुंबई चले आए, क्योंकि उन्हें अभी भी उम्मीद है कि अपनी मांगों के लिए संगठित होकर सरकार पर दबाव बनाया जा सकता है। यह एक ट्रिगर प्वाइंट की तरह था क्योंकि इन किसानों को शहरी लोगों का बड़ा नैतिक समर्थन किसी किसान आंदोलन को मिलने वाला इस तरह का पहला समर्थन है। इसके पहले 2017 में मंदसौर में किसानों पर गोली चलाने की स्थिति आई तो उसके कुछ दिन पहले महाराष्ट्र के किसानों ने हड़ताल कर दी जिसके चलते सरकार को कर्जमाफी की उनकी मांग माननी पड़ी। कुछ इसी तरह का आंदोलन राजस्थान में सरकार को कर्जमाफी लागू करने के लिए मजबूर कर चुका है। इसके साथ ही पहली बार करीब 200 किसान संगठन आॅल इंडिया किसान कोआॅर्डिनेशन संघर्ष समिति के बैनर के नीचे देश भर में यात्रा निकालने के साथ ही दिल्ली में संसद मार्ग पर किसान संसद लगा चुके हैं। यह सारा घटनाक्रम बताता है कि किसानों का विरोध तेज हो रहा है।
असल में किसान और उसका संकट ऐसी पहेली बन गया है जिसे हल करने की सरकार की कोशिश नाकाम होती जा रही है। ऊपर से भावनाओं को भुनाने के लिए पशुओं के कारोबार के नियमों में किए गए बदलाव भी किसानों को भारी पड़ने लगे हैं। फसल पैदा करने के बाद उसे बेचने और सही दाम के संकट के बीच देश भर में आवारा पशुओं से फसलों को बचाने का नया संकट खड़ा हो गया है। ऐसे में अगर किसान सड़कों पर नहीं उतरेगा तो कौन उतरेगा। यह तो तय है कि 2019 में सरकार किसी भी गठबंधन या पार्टी की बने लेकिन उसे तय करने वाला मुख्य मुद्दा खेती-किसानी ही होगा। अब यह देखना दिलचस्प है कि उससे जुड़े तमाम मसलों को नरेंद्र मोदी सरकार कैसे हल करती है या फिर यूपीए की तरह एक के बाद एक गलती कर राजनीतिक खामियाजा भुगतेगी।