पिछले दिनों महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ संघर्षरत छात्रों पर की गई पुलिसिया कार्रवाई की तुलना जालियांवाला बाग हत्याकांड से की, तो इस बारे में एक सवाल के जवाब में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) सुप्रीमो शरद पवार ने नागपुर में संक्षित-सा कहा, "अगर उन्होंने ऐसा कहा है तो लगता है कि हम सही दिशा में हैं और हमारी सरकार लंबी चलेगी।" पवार ने भले ही यह बात मजाकिया लहजे में कही हो लेकिन यह राज्य के वर्तमान राजनैतिक हालात को बखूबी दर्शाता है। उद्धव के नेतृत्व में इस समय राज्य में महाराष्ट्र विकास आघाड़ी की गठबंधन सरकार चल रही है जिसमें शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस शामिल हैं। शिवसेना अपनी मुखर हिंदुत्व विचारधारा के लिए जानी जाती रही है और मूल रूप से इसी कारण से तीन दशकों से अधिक तक इसका भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन भी रहा। लेकिन पिछले वर्ष 21 अक्टूबर को हुए विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद के बंटवारे के सवाल पर उनकी राहें जुदा हो गईं। हालांकि, दोनों दलों ने एक गठबंधन के तहत चुनाव लड़कर स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया था, लेकिन शिवसेना ने बाद में राकांपा और कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने में सफलता पाई। तब इस गठबंधन को बेमेल कहा गया और उद्धव सरकार के भविष्य पर सवाल उठते रहे। इसका मुख्य कारण यह है कि राकांपा और कांग्रेस की विचारधाराएं शिवसेना से अनेक मुद्दों पर बिलकुल विपरीत रही हैं। अधिकतर राजनैतिक विश्लेषकों के साथ-साथ विपक्षी दल भाजपा का भी मानना है कि इस सरकार का अगले पांच साल तक चलना मुश्किल ही नहीं, असंभव है। उनका कहना है कि कभी न कभी अपनी-अपनी विचारधाराओं के कारण उनमें टकराव होगा और अगर वे इसे टाल भी जाते हैं तो भी उन्हें सरकार चलाने में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ेगा।
सरकार गठन के कुछ ही दिनों के बाद ऐसा ही कुछ हाल में देखने को मिला जब नागरिकता संशोधन कानून और वीर सावरकर के प्रश्न पर शिवसेना और सहयोगी दलों का परस्पर विरोध सामने आया। इसके अलावा, मंत्रिमंडल के गठन और मंत्रालयों के बंटवारे में भी खींचतान और विलंब ने उनके बीच सामंजस्य के अभाव को भी रेखांकित किया है।
दरअसल, उद्धव ठाकरे ने 28 नवंबर को तीनों घटक दलों के दो-दो वरिष्ठ मंत्रियों के साथ शपथ ग्रहण की थी लेकिन उसके बाद उनके मंत्रिमंडल का विस्तार एक महीने से अधिक तक टाला जाता रहा। अंततः 30 दिसंबर को काफी जद्दोजहद के बाद इसका विस्तार किया जा सका। उसके बाद भी अगले तीन दिनों तक मंत्रियों के विभागों के बंटवारे पर तीनों दलों में सहमति नहीं बन सकी। आखिरकार नए साल के आगमन के बाद महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री समेत 43 मंत्रियों के मंत्रिमंडल ने कार्य करना शुरू कर दिया। इस सरकार में मंत्रालयों का बंटवारा तीनों दलों में उनके विधायकों की संख्या के आधार पर किया गया है।
इसके बावजूद सभी घटक दलों, खासकर कांग्रेस के कई विधायक खुश नहीं हैं। उन्हें लगता है कि उनकी पार्टी को कोई महत्वपूर्ण मंत्रालय नहीं मिला है। हालांकि पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को लोक निर्माण और महाराष्ट्र कांग्रेस अध्यक्ष बालासाहेब थोराट को राजस्व जैसे प्रमुख विभागों का जिम्मा सौंपा गया है। कांग्रेस के साथ-साथ कुछेक शिवसेना के नेताओं को लगता है कि इस सरकार में सबसे अधिक फायदा राकांपा को हुआ है। पार्टी के अजित पवार को न सिर्फ उप-मुख्यमंत्री बनाया गया है, बल्कि उन्हें वित्त विभाग का भी जिम्मा सौंपा गया है। इसके साथ-साथ अनिल देशमुख को गृह मंत्री बनाया गया है। दरअसल, शिवसेना शुरुआत में गृह मंत्रालय अपने पास रखना चाहती थी लेकिन राकांपा ने अंततः इस महत्वपूर्ण मंत्रालय को पाने में सफलता प्राप्त की। जानकारों का मानना है कि शिवसेना के पास राकांपा के निर्णय को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं था। विधानसभा में शिवसेना के सदस्यों की संख्या राकांपा से मात्र दो ज्यादा है। सरकार गठन के पूर्व अजित पवार समेत कई राकांपा नेता शिवसेना के साथ मुख्यमंत्री पद का ढाई-ढाई साल के लिए बंटवारा करना चाहते थे लेकिन शरद पवार ने इस पर अपनी सहमति नहीं दी और उद्धव के पांच वर्षों तक मुख्यमंत्री बने रहने का मार्ग प्रशस्त किया। सूत्रों के अनुसार इसी के विरोध में अजित पवार ने विद्रोह का बिगुल फूंक दिया और भाजपा को समर्थन देकर देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में बनी तीन दिन की सरकार में उप-मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण भी कर लिया लेकिन उस सरकार के गिरने के बाद उन्हें अपने चाचा शरद पवार की शरण में वापस आना पड़ा। उप-मुख्यमंत्री के रूप में उनकी वापसी इस बात का संकेत है कि पार्टी नेतृत्व के खिलाफ उनके विद्रोह के बावजूद उनकी राजनैतिक हैसियत कम नहीं हुई है। अजित का लंबा प्रशासनिक अनुभव रहा है और यह चौथा अवसर है जब उन्होंने उप-मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली है। यह देखना दिलचस्प होगा कि मुख्यमंत्री उद्धव के साथ उनका कैसा समन्वय होगा, जिनका सरकार चलाने का कोई अनुभव नहीं है। जानकारों के अनुसार उद्धव और अजित पवार के समीकरण पर भी इस सरकार का बहुत कुछ निर्भर करता है।
शिवसेना का मानना है कि उनकी गठबंधन सरकार सुचारु रूप से अगले पांच साल तक चलेगी। इसके बावजूद कि उसकी विचारधारा अपने दो मुख्य सहयोगी दलों से अनेक मुद्दों पर अलग रही है लेकिन वे सब महाराष्ट्र के विकास के लिए आगे आए हैं। पार्टी को उम्मीद है कि यह गठबंधन साझा न्यूनतम कार्यक्रम के तहत राज्य के विकास के लिए काम करता रहेगा। इसमें दो मत नहीं है कि विधानसभा की वर्तमान दलगत स्थिति के अनुसार तीनों दल सरकार चलाने के लिए एक-दूसरे पर निर्भर हैं। 288 सीटों वाली विधानसभा में इस समय शिवसेना के 56, राकांपा के 54 और कांग्रेस के 44 विधायक हैं। राकांपा या कांग्रेस में से किसी एक दल के समर्थन वापस करने से यह सरकार अल्पमत में आ सकती है लेकिन शिवसेना के लिए यह राहत की बात हो सकती है कि दोनों दलों में कोई भी अभी की परिस्थिति में या निकट भविष्य में ऐसा निर्णय लेने का जोखिम नहीं उठा सकता है क्योंकि वर्तमान सरकार के गिरने से या तो भाजपा सरकार की वापसी का रास्ता साफ हो सकता है या मध्यावधि चुनाव की संभावना बन सकती है। राकांपा 105 विधायकों वाली भाजपा के साथ सरकार तो बना सकती है लेकिन अब ऐसा करने से उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठ सकते हैं। वैसे भी शरद पवार को अगर भाजपा के साथ गठबंधन करना होता तो वे पहले ही कर सकते थे, लेकिन राजनीति के मंजे खिलाड़ी होने के नाते शायद वे इस बात से वाकिफ थे कि भाजपा के साथ गठबंधन में उनकी पार्टी की हैसियत वैसी नहीं रहेगी जैसी शिवसेना और कांग्रेस के साथ वर्तमान में है।
स्पष्ट है कि शिवसेना समेत गठबंधन की सभी पार्टियां तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद इस महा आघाड़ी सरकार को पांच साल चलाने की कोशिश करेंगी। उद्धव ठाकरे शुरुआत में मुख्यमंत्री बनने को इच्छुक नहीं थे लेकिन अब उनके पास महाराष्ट्र के विकास के लिए अपनी प्रशासनिक क्षमता सिद्ध करने का मौका है। राकांपा और कांग्रेस, खासकर शरद पवार के सहयोग और मार्गदर्शन से पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा करने का भरसक प्रयास करेंगी। उनके लिए इस अवधि में यह भी अवसर रहेगा कि वे अपने पुत्र आदित्य ठाकरे, जो उनके मंत्रिमंडल के सदस्य बन चुके हैं, को पार्टी के नेतृत्व के लिए तैयार कर सकें। लेकिन यह सबकुछ इस बात पर निर्भर करता है कि उनके गठबंधन में परस्पर विरोधाभासों के बोझ को कितने समय तक ढोने का सामर्थ्य है?
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शिवसेना के लिए राहत की बात यह है कि कांग्रेस और राकांपा फिलहाल या निकट भविष्य में सरकार को अस्थिर करने का जोखिम नहीं उठा सकतीं