महाराष्ट्र में 2019 के बाद का राजनैतिक परिदृश्य बहुत उथल-पुथल भरा रहा है, जहां सत्ता की कई अप्रत्याशित चालें देखने को मिलीं। पिछला जनादेश भाजपा और शिवसेना को मिला था लेकिन बारी-बारी से दोनों के मुख्यमंत्री बनाने की िशवसेना की मांग के चक्कर में यह गठजोड़ टूट गया था। उसके बाद 12 नवंबर, 2019 को राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था। 23 नवंबर की भोर में आयोजित एक गुपचुप कार्यक्रम में देवेंद्र फड़नवीस और अजित पवार को क्रमश: मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री की शपथ दिलवा दी गई लेकिन उसके खिलाफ 162 विधायक सुप्रीम कोर्ट चले गए और तीसरे ही दिन फड़नवीस को इस्तीफा देना पड़ा। उसके बाद महा विकास अघाड़ी की सरकार बनी, जिसमें शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस पार्टी शामिल थीं। मुख्यमंत्री के रूप में उद्धव ठाकरे ने 28 नवंबर, 2019 को शपथ ली थी।
जून 2022 में शिवसेना से एकनाथ शिंदे का धड़ा भाजपा की शह पर अलग हो गया। उसके बाद शिंदे मुख्यमंत्री बन गए, फड़नवीस उप-मुख्यमंत्री बने और चुनाव आयोग ने शिंदे गुट को बाकायदा शिवसेना का चुनाव चिह्न भी सौंप दिया। इसके खिलाफ ठाकरे की चुनौती अब तक सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। जुलाई 2023 में अजित पवार के ऊपर सत्तर हजार करोड़ रुपये के घोटाले का आरोप लगा। प्रवर्तन निदेशालय की कार्रवाई के डर से अजित राकांपा का अपना गुट लेकर सरकार के साथ चले गए और चार साल में तीसरी बार उप-मुख्यमंत्री बन गए। अपने आठ करीबियों को उन्होंने मंत्री भी बनवा दिया। इस कदम को राज्यपाल, असेंबली के स्पीकर और चुनाव आयोग का सक्रिय और सुप्रीम कोर्ट का शांत समर्थन प्राप्त था। जनता हालांकि इससे गाफिल नहीं रही। उसने 2024 के लोकसभा चुनाव में अपना असंतोष वोट में जाहिर किया।
उद्धव ठाकरे
पांच साल में भाजपा की शह पर चले सत्ता के इस उलटफेर के महाराष्ट्र के लिए अहम आर्थिक निहितार्थ रहे हैं। 2001 तक यह राज्य कर्ज और जीडीपी के अनुपात के मामले में 15 फीसदी से नीचे रहता आया था पर आज यह अनुपात ज्यादा है और राज्यों के बीच सबसे अधिक है। कांग्रेस-राकांपा की सरकार में यह करीब तीन लाख करोड़ रुपये था। आज आठ लाख करोड़ रुपये पहुंच चुका है। इस कर्ज के बढ़ने के साथ ब्याज का भुगतान ही समूचे राजस्व का करीब 30 फीसदी निगल जा रहा है। इस चक्कर में अनिवार्य सेवाओं के लिए पैसा कम पड़ रहा है और स्वास्थ्य, शिक्षा और बुनियादी ढांचे में निवेश सुस्त पड़ चुका है।
इस आर्थिक संकट के बीच महायुति की सरकार मतदाताओं को चुनावों के लिए लुभाने के चक्कर में कई योजनाएं ले आई, जिनकी कुल लागत 96,000 करोड़ रुपये के आसपास है। महालेखा परीक्षक और नियंत्रक की जुलाई 2024 की एक रिपोर्ट बताती है कि सरकारी खर्च में अनावश्यक बढ़ोतरी हुई है, जिसके कारण राजकोषीय घाटा 67,602 करोड़ रुपये पर पहुंच गया है और संसाधनों पर बोझ पड़ने लगा है। करों से 68.7 फीसदी राजस्व उगाही के बावजूद स्वास्थ्य और शिक्षा पर महाराष्ट्र का निवेश बाकी राज्यों से पिछड़ गया है। अहम राज्यों के बीच यह स्वास्थ्य में 16वें और शिक्षा में सातवें स्थान पर आ चुका है। इसके अलावा, सामाजिक विकास के अहम संकेतक, जैसे बाल कुपोषण और महिला सशक्तीकरण पर भी इसका प्रभाव पड़ा है। लड़कियों की स्कूली हाजिरी के मामले में महाराष्ट्र 19वें स्थान पर फिसल गया है।
इसके अलावा, बीते पांच वर्षों में कई औद्योगिक परियोजनाएं राज्य से बाहर जा चुकी हैं। इसका रोजगारों पर असर पड़ा है। 2022 में 1.8 लाख करोड़ रुपये लागत की चार बड़ी परियोजनाएं दूसरे राज्यों में चली गईं, जिनसे एक लाख रोजगार पैदा होने का अनुमान था। यहां तक कि पुणे के चाकन औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाले कारोबारों सहित हीरा उद्योग भी अब बाहर जा रहा है। सेवा क्षेत्र भी गुजरात जा रहा है। कुल मिलाकर महाराष्ट्र की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ा है।
बढ़ती बेरोजगारी, महंगाई और जुर्म ने लोगों के असंतोष बढ़ाया है। राज्य में युवाओं की बेरोजगारी 2023 में 22.2 फीसदी हो गई थी, जो 7.45 फीसदी के राष्ट्रीय औसत से बहुत ज्यादा है। महंगाई इस संकट को और बढ़ा रही है। खाने-पीने की चीजों के दाम अक्टूबर 2023 से अक्टूबर 2024 के बीच लगातार बढ़े हैं। टमाटर 247 फीसदी, आलू 180 फीसदी, लहसुन 128 फीसदी, तेल 18-25 फीसदी, नमक 18 फीसदी, आटा 18 फीसदी और पोषाहार 52 फीसदी महंगा हुआ है, जबकि तनख्वाह में केवल नौ से दस फीसदी का इजाफा हुआ।
सामाजिक मोर्चे पर देखें, तो जुर्म बढ़ा है। हिंसक घटनाएं बढ़ी हैं। बीते अगस्त में बदलापुर में दो छोटी बच्चियों के ऊपर हुआ यौन हमला और उसके बाद पुलिस द्वारा एनकाउंटर में एक आरोपी की हत्या से लेकर राकांपा के नेता बाबा सिद्दीकी की हत्या ने लोगों की चिंताएं बढ़ा दी हैं। बाबा के बाद राकांपा के एक और नेता सचिन कुर्मी पर हिंसक हमला हुआ, पुणे में 21 वर्षीय लड़की के साथ गैंगरेप हुआ तथा बदलापुर में एक बर्बर यौन हमले की घटना सामने आई, जिसके बाद पुलिस ने वहां तीन आरोपियों में से दो को मार गिराया। ये घटनाएं कुशासन को लेकर चिंताएं बढ़ा रही हैं।
इसलिए महायुति सरकार के बारे में दो साल के भीतर ही नकारात्मक धारणा बन गई है। इसका सीधा फायदा विपक्ष को मिलता दिख रहा है। चुनावी प्रदर्शन के मामले में भी महायुति के ऊपर महा विकास अघाड़ी भारी दिखता है। बीते लोकसभा चुनाव में दोनों गठबंधनों का कुल वोट शेयर तकरीबन 44 फीसदी के आसपास बराबर रहा था, लेकिन सत्ता विरोधी भावना के चलते एमवीए को अबकी थोड़ी बढ़त बेशक कही रही है। एमवीए को हरियाणा से सबक लेना चाहिए जहां कमजोरी के बावजूद भाजपा ने अपनी वापसी की है। इसलिए थोड़ी सी चूक भी एमवीए को भारी पड़ने के आसार रहे हैं।
दुर्दशा की तस्वीरः थाणे में मासूम बच्चियों के दुष्कर्म के खिलाफ प्रदर्शन
हरियाणा की ही तरह महाराष्ट्र में भी दोनों गठबंधनों से बाहर के कई दल नतीजों को प्रभावित करने वाले रहे हैं। अकसर भाजपा ऐसे दलों का अपने फायदे में इस्तेमाल कर ले जाती है। प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन अघाड़ी (वीबीए) को 2019 में 4.58 फीसदी वोट मिला था लेकिन एक भी सीट नहीं मिली थी। उसे अकसर परोक्ष रूप में भाजपा को फायदा पहुंचाने वाला दल माना जाता है। हो सकता है इन चुनावों में उसका ज्यादा असर न हो क्योंकि बीते दशकों में उसका प्रभाव गिरा है। बहुजन समाज पार्टी भी कमजोर ही दिखती है, वैसे भी वीबीए के मुकाबले ऐतिहासिक रूप से उसका असर कम रहा है। जहां तक महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का सवाल है, राज ठाकरे की स्वतंत्र उम्मीदवारी ध्यान देने लायक है। यदि वे स्वतंत्र बने रहे तो नुकसान महायुति को ही पहुंचना था। भाजपा विरोधी वोटों को बांटने का आरोप झेलने वाली एमआइएमआइएम का महाराष्ट्र में सीमित असर है। मनोज जरांगे पाटील की मराठा क्रांति मोर्चा चुनाव में नहीं है लेकिन यह कुछ खास उम्मीदवारों के पीछे खड़ी रहती है। माना गया कि मराठा आरक्षण पर नाकामी के चलते महायुति का विरोध करने वाला है।
कुल मिलाकर एमवीए को महायुति पर थोड़ी बढ़त है, लेकिन उसके सामने चुनावों के लिए हमेशा तैयार रहने वाली भाजपा जैसी पार्टी है, जबकि एमवीए की चुनावी तैयारी उतनी नहीं है। भाजपा की संगठित चुनावी मशीनरी के मुकाबले यही उसकी कमजोर नस है। फिलहाल, 23 नवंबर को आने वाले चुनाव परिणाम देश के भविष्य के लिए दीर्घकालिक असर वाले साबित होंगे। ये नतीजे यह साफ कर देंगे कि इस देश में भाजपा अपने वैचारिक एजेंडे को जारी रख पाएगी या विपक्ष की ताकतें उसे रोक पाएंगी।
(आनंद तेलतुम्बडे लेखक और मनवाधिकार कार्यकर्ता हैं। विचार निजी हैं)