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विधानसभा चुनाव ’24/महाराष्ट्र: आंधी, जो किसी को न दिखी

महाविकास अघाड़ी के खिलाफ महायुति की अभूतपूर्व जीत न सिर्फ हारने वालों और चुनावी पंडितों को बल्कि सत्तारूढ़ गठबंधन को भी चौंका गई, नतीजों ने सूबे के सियासी समीकरण को उलट-पुलट दिया
दावेदारः अमित शाह को गुलदस्ता देते अजीत पवार, एकनाथ शिंदे और फड़नवीस (दाएं)

अचंभा!!, आश्‍चर्यजनक, अभूतपूर्व जैसी तमाम अभिव्‍यक्तियां या दांतों तले उंगली जैसे तमाम मुहावरे हांफने लगें, तो महाराष्‍ट्र विधानसभा चुनाव, 2024 के नतीजों को याद कर लीजिए। इन नतीजों ने सिर खुजाने, माथे पर उंगलियां फिराने, चेहरे पर हैरान-परेशान भाव लाने के लिए बड़े-बड़े चुनाव पंडितों को ही मजबूर नहीं कर दिया, जीतने वालों की जुबान भी जवाब देने लगी। नतीजों की शाम मुंबई में पत्रकार-वार्ता में सत्तारूढ़ महायुति के मुख्‍यमंत्री (अब पूर्व) एकनाथ शिंदे के मुंह से ‘‘न भूतो, न भविष्‍यति’’ ही निकला। उनके साथ बैठे तब के उप-मुख्‍यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस बस मुस्‍कराते रहे, लेकिन दूसरे उप-मुख्‍यमंत्री अजित पवार कुछ औचक अंदाज में बोल उठे, “कल शाम तक के अनुमानों में, हम तीनों कहीं भी दौड़ में नहीं थे। हमें लगा कि हम पीछे रह जाएंगे। 229 सीटों (तब तक जीत का आंकड़ा) पर कामयाबी अप्रत्याशित थी। हमारा अनुमान महायुति को लगभग 170 सीटें तक मिलने की थी।’’ जीत इस कदर चौंकाऊ थी कि 23 नवंबर को नतीजों के बाद 3 दिसंबर तक महायुति नेता या मुख्‍यमंत्री का चुनाव या चयन नहीं कर पाई। अलबत्ता, 26 नवंबर को ही विधानसभा खत्‍म हो गई, लेकिन कोई संवैधानिक संकट खड़ा नहीं हुआ! कोई चर्चा तक नहीं! यह भी विरली, अप्रत्‍याशित घटना ही है। तो, महाराष्‍ट्र विधानसभा चुनाव नतीजे जैसे अप्रत्‍याशितों का पुंज हैं।

24 के चुनाव परिणाम

इन अप्रत्‍याशित सूत्रों को कुछ हद तक खोलने के पहले नतीजों पर गौर करें। तय था कि महाराष्‍ट्र में महाभारत होना है, जिसका असर देश की सियासत पर भी होना ही था। लेकिन हवा तो यही थी कि सत्तारूढ़ महायुति पर विपक्षी महा विकास अघाड़ी (एमवीए) भारी है। महज छह महीने पहले लोकसभा चुनाव में एमवीए या इंडिया ब्‍लॉक को महाराष्ट्र की कुल 48 सीटों में से 31 पर जीत मिली थी और महायुति या एनडीए .86 फीसदी वोटों से पीछे रहकर 17 सीटों पर सिमट गया था। इसलिए विपक्ष को भारी बढ़त की व्यापक संभावनाएं जताई जा रही थीं। अलबत्ता, संसदीय चुनावों के बाद महायुति की एकनाथ शिंदे सरकार की कई कल्‍याण योजनाओं की बनिस्‍बत कुछ माहौल बदला बताया जा रहा था। यानी लगभग तय था कि मुकाबला कांटे का होगा।

पलट गई बाजीः (बाएं से दाएं) नाना पटोले, उद्धव ठाकरे और शरद पवार

पलट गई बाजीः (बाएं से दाएं) नाना पटोले, उद्धव ठाकरे और शरद पवार

लेकिन, नतीजे आए तो विशाल तोहफा महायुति के घटक दलों- भाजपा, मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की शिवसेना और उप-मुख्यमंत्री अजित पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा)- के हाथों में था। महायुति ने महाराष्ट्र विधानसभा की कुल 288 सीटों में 234 सीटें जीतकर राज्‍य के लगभग हर क्षेत्र में सफाया कर दिया।  भाजपा को 149 सीटों पर चुनाव लड़कर 132 सीटें, शिवसेना को 81 में से 57 और राकांपा को 59 में से 41 सीटें हासिल हुईं। कांग्रेस-राकांपा (शरदचंद्र पवार)-शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे)की अगुआई वाले एमवीए सिर्फ 50 सीटों के साथ अपने जख्‍म सहलाता रह गया। उसमें शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) को 95 सीटों पर लड़कर सिर्फ 20 सीटें, कांग्रेस को 103 में से 16 सीटें, राकांपा (शरदचंद्र पवार) को 86 में से 10 सीटें और छोटी पार्टियों को चार सीटें ही मिल पाईं। महायुति को एमवीए के मुकाबले 14.87 फीसदी वोटों की बढ़त मिली। बड़े-बड़े दिग्‍गज पिट गए। कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण, विधायक दल के नेता बालासाहेब थोराट और पूर्व मंत्री यशोमति ठाकुर और राकांपा (एससीपी) के राजेश टोपे जैसों को मुंह की खानी पड़ी। प्रदेश कांग्रेस अध्‍यक्ष नाना पटोले गिनती के दौरान पिछड़ते-पिछड़ते सिर्फ 240 वोटों से जीत पाए। 1960 में गठन के बाद राज्य के इतिहास में पहली बार ऐसे नतीजे आए कि विधानसभा में कोई प्रतिपक्ष का नेता नहीं हो सकता है। कोई भी विपक्षी पार्टी सदन की कुल सदस्‍य संख्‍या का 10 फीसदी या 29 सीटें हासिल नहीं कर पाई है।

गठबंधन वार बंटवारा

गठंबधनवार बंटवारा

अप्रत्याशित की शंकाएं

यही नहीं, राज्‍य के इतिहास में पहली बार यह भी हुआ कि इसके अलग-अलग स्‍वभाव और रुझान वाले क्षेत्रों विदर्भ, मराठवाड़ा, पश्चिमी महाराष्‍ट्र या देश, उत्तरी महाराष्‍ट्र या खानदेश, मुंबई-थाणे-कोंकण के रुझान एक जैसे हो गए, जो इसके पहले किसी भी चुनाव में नहीं दिखे। यही बात शायद सबसे ज्‍यादा चुनाव पंडितों को भी चौंकाती है। फिर, लोकसभा चुनावों में 0.86 फीसदी वोटों से पीछे रही महायुति छह महीने बाद विधानसभा चुनावों में 14.87 फीसदी यानी 15 फीसदी से ज्यादा वोटों का छलांग लगा गई, यह भी अविश्‍वसनीय-सा लगता है।

इस सवाल के जोर पकड़ने का कारण यह भी है कि पांच महीनों में राज्य सरकार का कोई काम इतना बड़ा न दिखा कि वह पंद्रह फीसदी वोट दूसरी तरफ करा दे। नतीजों के बाद छपे सीएसडीएस के चनाव बाद सर्वे के आंकड़ों में महायुति को लोकसभा चुनाव के मुकाबले सिर्फ चार फीसदी वोटों की ही बढ़त दिखती है। जिस लाड़की बहिन योजना को भारी फरक लाने वाला बताया जा रहा है, उसे सर्वे में 2-3 फीसदी लोगों ने ही फायदा देने वाला माना जबकि किसानों की उपज के कमतर मूल्य मिलने, बेहिसाब महंगाई और भारी बेरोजगारी को मतदान का आधार बताने वालों का अनुपात उससे ज्यादा था। महायुति के नेताओं और अजित पवार का भी मानना था कि "बंटेंगे तो कटेंगे" या "एक हैं, तो सेफ हैं" जैसे नारों का खास असर नहीं होने वाला है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की सभाओं में ज्यादा भीड़ न जुटना और बाद में सभाएं रद्द कर देने से भी ऐसे संकेत मिले थे। इसलिए शंकाएं बढ़ी हैं।

समीक्षाः कांग्रेस कार्यसमीति की बैठक में खड़गे, राहुल और अन्य नेता

समीक्षाः कांग्रेस कार्यसमीति की बैठक में खड़गे, राहुल और अन्य नेता

कांग्रेस और विपक्षी पार्टियां तो कई संदेह जाहिर कर ही रहे हैं। कई आवाजें स्वतंत्र हलकों से भी उठ रही हैं। आरोप ये भी हैं कि कई क्षेत्रों में पड़े मतों से अधिक मत गिने गए। इसी तरह विपक्ष गिनती के कुछ घंटे पहले मतदान प्रतिशत के बढ़े आंकड़ों पर भी संदेह जाहिर कर रहा है। मसलन, चुनाव आयोग की घोषणा के मुताबिक, 20 नवंबर को मतदान के दिन शाम पांच बजे तक 58.22 प्रतिशत वोट पड़े। रात 11 बजे 64.22 प्रतिशत वोट के आंकड़े जारी किए गए और फिर गिनती के कुछ घंटे पहले 1 प्रतिशत और इजाफे की घोषणा हुई। इस तरह इस बार महाराष्ट्र में 2019 में 61.6 प्रतिशत के मुकाबले 65.22 प्रतिशत मतदान हुआ। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पति, राजनीति विज्ञानी परकला प्रभाकर के मुताबिक, इस तरह 76 लाख वोट बढ़ गए, यानी प्रदेश के कुल एक लाख छह हजार बूथों में हर बूथ पर औसतन कम से कम 1,000 वोट पांच बजे के बाद पड़े।

बताया जाता है कि इन्हीं आरोपों के आधार पर विपक्ष के कई उम्मीदवारों ने ईवीएम और वीवीपैट की पर्ची के मिलान के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के मुताबिक चुनाव आयोग में तय रकम के साथ अर्जी डाली है। इनमें बारामति से अजित पवार के खिलाफ राकांपा (शरद) की ओर से लड़े उनके भतीजे युगेंद्र पवार ने भी अर्जी डाली है। विपक्ष वोटर लिस्ट पर भी सवाल उठा रहा है। उसके मुताबिक लोकसभा चुनाव के बाद 47 लाख मतदाता बढ़ गए (देखें, बॉक्स आशंकाएं और आरोप)।

शरद-उद्धव की सियासत

जो भी हो, यह चुनावी महाभारत महज हार-जीत के लिए ही नहीं था। इससे तय होना था कि असली शिवसेना और राकांपा कौन या किसके नेतृत्‍व वाली हैं। भले ही उनमें टूट के वक्‍त यह सवाल भारी विवाद की वजह था कि कैसे कथित तौर पर केंद्रीय जांच एजेंसियों का इस्तेमाल करके एक वैध सरकार को गिराया गया या सत्ता के लोभ-लालच में कैसे पार्टी संस्‍थापकों के साथ गद्दारी की गई, लेकिन लगता है कि मतदाताओं ने उन कथित गलतियों को भुला दिया और माफ कर दिया। इसलिए, इस टूट से धोखा खाए शिवसेना और राकांपा के नेता अपने पक्ष में सहानुभूति वोट की आस लगाए थे। लेकिन नतीजों ने एकनाथ शिंदे और अजित पवार दोनों को अपनी-अपनी पार्टियों की डोर एक तरह से थमा दी। अब उद्घव ठाकरे और शरद पवार दोनों के सामने अपनी सियासत को बचाने की चुनौती है। 

कल्याण योजनाओं की रणनीति

लोकसभा चुनावों में पटखनी के बाद ही महायुति ने अलग बिसात बिछानी शुरू कर दी थी। महिला मतदाताओं को लुभाने के लिए मुख्यमंत्री माझी लाड़की बहिन योजना के साथ कल्याणकारी योजनाओं का सिलसिला शुरू किया गया। ओबीसी वोट की गोलबंदी की गई और मराठा गुस्से को बेअसर करके विपक्ष के जाति जनगणना के मुद्दे के बरक्‍स हिंदू एकता की अपील उछाली गई। संभव है, यह इस रणनीति काम कर गई हो या सत्तारूढ़ पक्ष का दावा यही है। 132 सीटों और 85 प्रतिशत की स्ट्राइक रेट के साथ भाजपा का प्रदर्शन सभी पार्टियों में गजब का था। कभी गठबंधन में छोटे भागीदार की भूमिका में रही भाजपा अब महायुति के सिर्फ एक घटक की मदद से अपने दम पर सरकार बनाने की ताकत रखती है। कहते हैं, मध्य प्रदेश में भाजपा की पुरानी रणनीति के तर्ज पर लाई गई 46,000 करोड़ रुपये की लाड़की बहिन योजना ने महायुति की जीत में अहम भूमिका निभाई। कहा गया कि हर महीने 1,500 रुपये की मदद से लगभग 2.3 करोड़ महिलाएं लाभान्वित हुई हैं, और महायुति ने जीतने पर उसे बढ़ाकर 2,100 रुपये करने का वादा किया है। इसके बरक्‍स एमवीए ने 3,000 रुपए महीने देने का वादा किया, लेकिन शायद वह काम नहीं कर पाया।

क्षेत्रवार प्रदर्शन

इसके अलावा एप्रेंटिशिप भत्ता, तीर्थस्थलों की मुफ्त यात्रा और मुंबई में प्रवेश के पांच नाकों पर लगाए गए टोल में छूट जैसी अन्य योजनाएं भी लाई गईं। शेतकरी महासम्मान निधि योजना के तहत किसानों के लिए वार्षिक भुगतान को 12,000 रुपये से बढ़ाकर 15,000 रुपये किया गया। इनका मकसद किसानों के गुस्से को कुछ हद तक कम करना था, खासकर मराठवाड़ा और विदर्भ के सोयाबीन और कपास की खेती करने वाले किसान अपनी उपज के लिए कम दरों से परेशान थे। प्रधानमंत्री ने खुद ऐलान किया था कि सोयाबीन की एमएसपी 6,000 रुपये होगी, मगर सोयाबीन 4,000 रुपये के आसपास ही बिक रहा है। साथ ही यह भी हो सकता है कि मराठा नाराजगी का असर भी बंट गया हो। कई मराठा उम्मीदवारों की मौजूदगी ने मतदाताओं को भ्रमित कर दिया। भाजपा ने मराठा दबदबे के खिलाफ ओबीसी गोलबंदी भी की।

इसका असर खासकर मराठवाड़ा और पश्चिमी महाराष्ट्र क्षेत्र में देखा जा सकता है, जहां भाजपा ने लोकसभा चुनावों में अपनी छाप छोड़ने में नाकाम रहने के बाद बड़ी सफलता दर्ज की। भाजपा की मराठवाड़ा क्षेत्र में कृषि संकट और मराठा कोटा आंदोलन और शरद पवार के गढ़ पश्चिमी महाराष्ट्र में कामयाबी वाकई चौंकाने वाली है।

दरअसल इन्हीं इलाकों में भाजपा से अनुपात में कमतर प्रदर्शन शिंदे शिवसेना और अजित पवार का भी नहीं है। दोनों ही मराठा भी हैं। इसीलिए मुख्यमंत्री तय करने का मामला अब तक उलझा हुआ है। भाजपा इतनी बड़ी जीत के बाद अपना दावा कैसे छोड़ सकती है। लेकिन शिंदे और अजित पवार के लिए भी बड़ी कुर्सी होना उनके वजूद के लिए अहमियत रखता है। खासकर शिंदे के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने से मुश्किल हो सकती है। दोनों ने औपचारिक तौर पर तो भाजपा का वर्चस्व स्वीकार कर लिया लेकिन शिंदे के लिए बिना कड़ी टक्कर के अपनी ताकतवर कुर्सी नहीं छोड़ना आसान नहीं है। महाराष्ट्र के एक वरिष्ठ पत्रकार का कहना है ‘‘विधानसभा के नतीजों के साथ शिंदे की राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं बढ़ गई हैं। मुख्यमंत्री पद के बिना वे शिवसेना के भीतर अपनी स्थिति खो देंगे। गठबंधन के भीतर शिवसेना और शिंदे के वर्चस्व के लिए भाजपा और फड़नवीस मुख्य चुनौती बने हुए हैं।’’ शायद इसीलिए शिंदे बैठकों से दूर चले जा रहे हैं। खैर, जो भी हो, महाराष्ट्र की गद्दी नई सरकार के लिए नई चुनौती भी लेकर आएगी, क्योंकि कल्याणकारी योजनाओं का करीब 90,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ खजाने पर पड़ने जा रहा है। 

इसके अलावा, शायद अगली लड़ाई राज्य में स्‍थानीय और शहरी निकायों के चुनाव में होनी है, जिनके चुनाव अब ढाई महीने से टलते जा रहे हैं। सबसे बड़ी टक्कर देश में सबसे अमीर बृहन्मुंबई नगर निगम के लिए होनी है, जहां देश की वित्तीय राजधानी स्थित है। उसका बजट मोटे तौर पर 60,000 करोड़ रु. तक होता है, जो कई छोटे राज्यों का नहीं है। इसी निगम पर कब्जा ठाकरे की शिवसेना का आधार रहा है। अगर वह आधार भी उससे छिन जाता है तो उद्घव ठाकरे के लिए सियासी वजूद बचाना आसान नहीं होगा। यही स्थिति पश्चिम महाराष्ट्र में शरद पवार के साथ है, जहां सूगर कोऑपरेटिवों पर कब्जा खत्म होते है, उनकी सियासत भी खत्म हो सकती है। आगे आने वाले दिनों में इसके दिलचस्प अक्स दिख सकते हैं।

आशंकाएं और आरोप

. महाविकास अघाड़ी के तीनों मुख्य घटकों के वोट बीते लोकसभा चुनाव के मुकाबले विधानसभा चुनाव में 32,80,000 घट गए जबकि महायुति के वोट लोकसभा के मुकाबले 67,70,000 बढ़ गए

. कांग्रेस के अनुसार लोकसभा चुनाव के बाद महज पांच महीने में महाराष्ट्र में मतदाताओं की संख्या 47 लाख बढ़ गई जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद पांच साल में महज 37 लाख मतदाता बढ़े थे

. मतदाताओं की जितनी संख्या पांच महीनों में बढ़ी, उतने ही कांग्रेस और शिवसेना (उद्धव) के संयुक्त वोट लोकसभा चुनाव के मुकाबले कम हुए 

. एमवीए का आरोप है कि 95 विधानसभाओं में डाले गए वोट और ईवीएम परिणामों में अंतर है

. इसी आरोप के अनुसार 19 ऐसी सीटें हैं जहां डाले गए वोटों से ज्यादा वोट ईवीएम से निकले हैं

. अक्कलकोट विधानसभा के बूथ संख्या 270 पर प्रत्याशी को अपने गांव से एक  भी वोट नहीं मिला, अपना डाला हुआ वोट भी नहीं

. अर्थशास्त्री परकला प्रभाकर के दावे के मुताबिक मतदान के दिन शाम पांच बजे के बाद करीब 76 लाख वोट बढ़ गए। 76 लाख लोग शाम पांच बजे के बाद लाइन में थे?

. डाले गए कुल वोटों और ईवीएम से निकले वोटों में पांच लाख से ज्यादा का अंतर है। गिने गए वोट, डाले गए वोटों से 5,04,313 ज्यादा हैं।

. चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव के मुताबिक सिर्फ पांच महीनों में महायुति ने -1% से +14% तक पहुंचकर तीन-चौथाई बहुमत कैसे हासिल कर लिया; महाराष्ट्र के 6 क्षेत्रों में अलग-अलग वोटिंग ट्रेंड पहली बार कैसे गायब हो गया; भाजपा ने शहरी और ग्रामीण इलाकों में समान प्रदर्शन कैसे किया; और लोकसभा में हारी पार्टी की विधानसभा में जीत  ‘असामान्य’ है।

 

 

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