हर नई स्कीम को लेकर अनिश्चिताएं रहती हैं। अग्निपथ स्कीम भी अपवाद नहीं है। मैं इसे साकारात्मक पहल के रूप में देखता हूं और उम्मीद करता हूं कि आने वाले समय में सेना को इसका लाभ मिलेगा।
इससे हमारी सेना ‘जवान’ होगी। फिलहाल सेना में जवानों की जंग लड़ने की सामान्य उम्र (कटिंग एज) 30 साल है। इस स्कीम के बाद यह छह साल कम होकर 24 साल हो जाएगी। इसे लागू करते वक्त रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह सेना में जिस संतुलन की बात कर रहे थे, शायद वह यही है। इससे सेना में संतुलन बढ़ेगा और अनुभव और युवा शक्ति के बराबर मिश्रण से पलटन मजबूत होगी। करगिल युद्ध में देखा गया है कि चढ़ाई के वक्त कई कमांडिंग अफसर मेडिकली अनफिट पाए गए या घबरा गए थे। इसके बाद कई बैठकें हुईं और कमांडिंग अफसर की उम्र कम कर दी गई। उस समय भी इसे लेकर हंगामा हुआ था लेकिन आज वही फैसला सही साबित हुआ।
इस स्कीम से सेना की भर्ती बेहतर तरीके से होगी। पहले फौज में भर्ती के बाद यदि कोई अयोग्य है या मेडिकली अनफिट है तो उसे बाहर करने की प्रक्रिया लंबी थी। अग्निपथ के जरिये अपेक्षाकृत दक्ष जवान ही सेना में भर्ती होंगे, जिससे कार्य-कुशलता बढ़ेगी। इस स्कीम के जरिए ‘कैच देम यंग’ पर फोकस रहेगा। यानी फोकस युवा शक्ति पर है, जिसे जैसा चाहें, ‘ट्रेन’ कर सकते हैं। 25 प्रतिशत तक जवानों की जो स्थाई भर्ती होगी, वे ‘बेस्ट आउट ऑफ बेस्ट’ होंगे। टेक्नोलॉजी को लेकर युवा जितने सहज होते हैं, उतने पुराने लोग नहीं होते। इसलिए नए सैनिकों को थोड़ी बहुत टेक्निकल चीजें पता होंगी, जिससे सेना को मॉडर्न बनने में मदद मिलेगी।
इस स्कीम की इन खूबियों के बावजूद कुछ लोग इसका विरोध कर रहे हैं। वे भी अपनी जगह पर सही हैं। अनिश्चितता यह है कि चार साल बाद बाहर आने वाले 75 फीसदी जवानों का क्या होगा? इस सवाल को दूसरे तरीके से समझने की जरूरत है। जो बच्चे अग्निपथ स्कीम में भर्ती होंगे, उनके पास खोने को कुछ नहीं है। उनको 17-18 साल की उम्र में ही सेना में काम करने मौका मिलेगा। सेना ही उन्हें बारहवीं और स्नातक की पढ़ाई कराएगी। बाहर जाने वाले सेना में काम करने का अनुभव लेकर जा रहे हैं, जिसका आगे उन्हें फायदा मिलेगा। चार साल बाद उनके हाथों में ग्यारह लाख रुपये होंगे, जिससे उनके परिवार में वित्तीय स्थिरता आएगी।
अग्निवीरों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान भी सरकार कर रही है। युवा 21 से 25 साल की उम्र में बाहर निकलेंगे जो भारत में नौकरी ढूंढने की नॉर्मल उम्र है। लड़के बाहर निकलकर अन्य फोर्स को भी ज्वाइन कर सकते हैं। वहां उन्हें प्राथमिकता मिलेगी।
आर्मी के कुछ पुराने साथी सवाल उठा रहे हैं कि इससे सेना की ऑपरेशनल दक्षता प्रभावित होगी। मुझे ऐसा नहीं लगता है। दुनिया की जितनी भी बड़ी आर्मी हैं, चाहे रूस हो या चीन, अमेरिका या इजरायल, सभी में भर्ती इसी प्रक्रिया से होती है। अमेरिका और चीन के बारे में हम कह सकते हैं कि उनकी सेना ‘बैटल टेस्टेड’ नहीं है लेकिन इजरायल तो हमसे ज्यादा युद्ध लड़ता है और जब उनके यहां यह स्कीम सफल हो सकती है तो हमारे यहां क्यों नहीं? मैं यह नहीं कह रहा हूं कि यह स्कीम फूलप्रूफ है लेकिन जब तक हम इसे आजमाएंगे नहीं तब तक इसे पूरी तरह नकार भी नहीं सकते हैं।
सवाल यह भी खड़ा हो रहा है कि अग्निवीरों में देश के लिए कुर्बान होने का जोश और जज्बा नहीं रहेगा क्योंकि उन्हें पता है, चार साल बाद बाहर जाना है। यह गलत धारणा है। भर्ती होने वालों के दिमाग में यह ख्याल रहेगा कि अच्छी परफॉरमेंस से लंबा टिकने का मौका मिलेगा। उनके अंदर प्रतिस्पर्धा की भावना जागेगी कि वे अच्छा करें, ताकि 25 फीसदी में शामिल हो सकें। एक आशंका यह भी है कि 25 साल से कम की उम्र में सेना से बाहर निकलने वाले जवान को हथियार चलाना आएगा, वह अगर समाज में आए और उसके पास रोजगार नहीं होगा तो देश में अराजकता फैलेगी और असुरक्षा की भावना पैदा होगी। ऐसा नहीं है। फिलहाल, जो जवान 35 साल की उम्र पर रिटायर होते हैं उनको भी नौकरी नहीं मिलती है और अंत में वे सुरक्षा गार्ड की नौकरी करते हैं। वे तो कभी हथियार नहीं उठाते। 35 साल में रिटायर होने वालों को नौकरी इसलिए नहीं मिलती क्योंकि उनकी उम्र निकल चुकी होती है ।
सेना के जो अफसर 15-20 साल में रिटायर हो जाते हैं, उनको बाहर आकर अच्छी सैलरी मिलती है क्योंकि वे युवा रहते हैं और उनका कौशल भी अपेक्षाकृत बेहतर होता है। लेकिन जो अफसर सीनियर रैंक से रिटायर होते हैं, वे बेरोजगार रहते हैं क्योंकि एक उम्र के बाद कोई कंपनी नौकरी नहीं देती है। मसलन, बीएसएफ 35 साल के जवान को भर्ती नहीं करती क्योंकि जब 20-25 साल के जवान मिल रहे हैं तो 35 साल वालों को क्यों रखेंगे?
इसकी आलोचना इसलिए भी हो रही है क्योंकि यह फौज के पेंशन योजना पर ब्रेक लगाने की परोक्ष स्कीम है। मैं इसे दूसरे नजरिया से देखता हूं। इससे केंद्र सरकार और आर्मी को वित्तीय फायदा होगा। इससे पेंशन का बोझ कम होगा। बचे पैसे से सेना को टेक्नोलॉजिकली मजबूत करने में किया जा सकता है। हालिया रक्षा बजट लगभग 5 लाख 25 हजार करोड़ रुपये का है जिसमें करीब 25 फीसदी पेंशन में निकल जाता है। एक तबका कह रहा है कि इस स्कीम के जरिये फोर्स ऑप्टिमाइजेशन होगा और यह एक तरह से सेना में कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम की शुरुआत है। कॉन्टैक्ट का तो पता नहीं लेकिन फोर्स ऑप्टिमाइजेशन समय की मांग है क्योंकि जो चीज बाहर से करा सकते हैं, उन कार्यों में सैनिकों को क्यों लगाना?
इन सब के बावजूद हमारे पास कुछ चुनौतियां हैं जिन पर सरकार को काम करने की जरूरत है। समय की मांग है की सेना मॉडर्न हो और टेक्नोलॉजी में दक्ष हो क्योंकि लड़ाइयां मॉडर्न तरीके से ही लड़ी जाएगी। हमें साइबर और ड्रोन सिस्टम में भी मजबूती लानी होगी। हमने देखा है कि कैसे रूस और युक्रेन वॉर में इसका उपयोग किया गया है। हमारे अधिकतर हथियार रूस से आते हैं और युक्रेन वार में हमें उसकी खामियां देखने को मिली हैं।
(जैसा राजीव नयन चतुर्वेदी को बताया। यहां व्यक्त विचार निजी हैं।)