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गर्त में रोशनी की खोज

अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा संकट में, एकमात्र सहारा सरकार का खर्च बजट लक्ष्य से भी पीछे
बेरोजगारी के खिलाफ पटना में प्रदर्शन करते युवा

अप्रैल से जून के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था का आकार 23.9 फीसदी घटने के बाद तमाम एजेंसियां भले सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) विकास दर के सालाना अनुमान में कटौती कर रही हों, वित्त मंत्रालय और मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यम का मानना है कि अर्थव्यवस्था में वी-शेप यानी तेज रिकवरी हो रही है। चुनिंदा आंकड़ों को देखें तो उनकी बात सही लगती है। अगस्त में यात्री वाहनों की बिक्री 14 फीसदी बढ़ी है। मैन्युफैक्चरिंग पीएमआई 52.2 रही, लॉकडाउन के बाद यह पहली बार 50 से ऊपर (यानी ग्रोथ) दर्ज हुई। ई-वे बिल जुलाई में एक साल पहले की तुलना में 97 फीसदी पहुंच गए। टोल संग्रह भी बढ़ा है।

लेकिन यह स्थिति हर सेक्टर में नहीं हैं। अर्थव्यवस्था में 53 फीसदी योगदान करने वाला सर्विस सेक्टर बुरी तरह प्रभावित है। एयरलाइंस, होटल, रिटेल और रियल एस्टेट जैसे बड़े रोजगार देने वाले सेक्टर अभी तक मांग में कमी से जूझ रहे हैं। नेशनल रेस्तरां एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अनुसार पांच महीने में 30 फीसदी से ज्यादा रेस्तरां और बार स्थायी रूप से बंद हो गए हैं। जुलाई के मुकाबले अगस्त में बिजली की खपत में गिरावट आई है। ज्यादातर एमएसएमई की स्थिति भी अलग नहीं है। पहले देशव्यापी और फिर राज्य स्तरीय लॉकडाउन से इनका कारोबार चौपट हो गया।

संशोधित अनुमान में भारत की स्थिति बदतर

अप्रैल-जून तिमाही में जीडीपी का आकार घटने यानी विकास दर निगेटिव रहने का अंदेशा तो सबको था, लेकिन 23.9 फीसदी गिरावट ने अनेक अर्थशास्त्रियों और विश्लेषकों को चौंका दिया। पहले वे मान रहे थे कि तीसरी और चौथी तिमाही में विकास दर शून्य से ऊपर यानी पॉजिटिव हो जाए, लेकिन अब उन्हें ऐसा नहीं लगता। इसलिए उन्होंने सालाना विकास दर का अनुमान घटाना शुरू कर दिया है। संशोधित अनुमान में अमेरिका, चीन और ब्राजील के साथ वैश्विक विकास में तो बेहतरी की उम्मीद है, लेकिन भारत की स्थिति और खराब होने का अंदेशा है। (देखें टेबल) आइएमएफ का कहना है कि बड़े देशों में सबसे ज्यादा भारत की अर्थव्यवस्था ही प्रभावित हुई है। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार 60 देशों की जीडीपी में पहली तिमाही के दौरान औसतन 12 फीसदी गिरावट आई, जबकि भारत में यह दोगुनी है।

गिरती अर्थव्यवस्था

पहली तिमाही के जीडीपी आंकड़ों से पता चलता है कि कृषि को छोड़ बाकी सभी सेक्टर में गिरावट आई। कृषि की विकास दर 3.4 फीसदी रही जबकि मैन्युफैक्चरिंग में उत्पादन 39.3 फीसदी, कंस्ट्रक्शन में 50.3, ट्रेड, होटल, ट्रांसपोर्ट और संचार में 43 फीसदी घट गया। मौजूदा हालात की बात करें तो जिस तरह रोजाना कोविड से संक्रमित होने वाले लोगों की संख्या एक लाख के आसपास पहुंच गई है, उसे देखते हुए सर्विस सेक्टर की स्थिति जल्दी सुधरने वाली नहीं लगती। होटल, ट्रांसपोर्ट, पर्यटन और मनोरंजन जैसे सेक्टर या तो लॉकडाउन का सामना कर रहे हैं या उनमें डिमांड नहीं है। उदाहरण के तौर पर, स्कूल-कॉलेज बंद रहने से इनसे जुड़े ट्रांसपोर्ट का 1.2 लाख करोड़ रुपये का बिजनेस ठप पड़ा है। अगस्त में जीडीपी का नौ फीसदी हिस्सा या तो लॉकडाउन का सामना कर रहा था या महामारी के डर से उनमें गतिविधियां बंद थीं।

इसलिए सरकार के वी-शेप रिकवरी के दावे पर सीआइआइ की मुख्य अर्थशास्त्री बिदिशा गांगुली ने आउटलुक से कहा, “आंकड़े भले वी-शेप हों, लेकिन अभी तक वे निगेटिव जोन में ही हैं। दूसरी छमाही बेहतर रहेगी, लेकिन मुझे नहीं लगता कि इस वित्त वर्ष में हम पॉजिटिव ग्रोथ रेट देख पाएंगे।” आइआइपी के आंकड़े सुधर रहे हैं, लेकिन अभी तक निगेटिव हैं। पहली तिमाही में कोयला उत्पादन 15 फीसदी घटा था, जबकि जुलाई में गिरावट 5.7 फीसदी रही। इसी तरह, सीमेंट उत्पादन में 38.3 की तुलना में 13.5 फीसदी और स्टील में 56.8 के मुकाबले 16.4 फीसदी गिरावट आई।

गिरती अर्थव्यवस्था

गांव का सहारा भी छूटने का डर

जुलाई तक अर्थव्यवस्था की रिकवरी में ग्रामीण क्षेत्र का बड़ा योगदान माना जा रहा था। लेकिन एसबीआई रिसर्च के अनुसार अगस्त में कोविड-19 से सबसे ज्यादा प्रभावित 50 जिलों में 26 ग्रामीण इलाकों में थे, इसलिए वहां रिकवरी सुस्त पड़ सकती है। सीएमआइई के अनुसार मनरेगा में काम कम मिलने और खरीफ फसलों की बुवाई खत्म होने के कारण गांवों और छोटे शहरों में बेरोजगारी फिर बढ़ी है। इसलिए अगस्त में राष्ट्रीय स्तर पर बेरोजगारी दर एक बार फिर बढ़कर 8.35 फीसदी हो गई। अप्रैल और मई में यह 20 फीसदी के ऊपर जाने के बाद जुलाई में 7.4 फीसदी पर आ गई थी। शहर जाकर मजदूर अपने गांव जो पैसे भेजते थे, वह लगभग बंद है। मौजूदा तिमाही में कृषि को लेकर भी संशय है क्योंकि मानसून की बारिश जुलाई में कम और अगस्त में ज्यादा होने से मध्य प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में फसलों को नुकसान हुआ है। इसलिए क्रिसिल का मानना है कि पूरे साल में कृषि विकास दर 2.5 फीसदी रहेगी।

ऐसे में अर्थव्यवस्था को गति देने का दारोमदार सरकार पर है। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद, नीति आयोग, वित्त और वाणिज्य मंत्रालय सबने प्रधानमंत्री के सामने दूसरा राहत पैकेज लाने की बात कही। चर्चा है कि गैर वेतनभोगी मध्य वर्ग और छोटे कारोबारियों के लिए राहत पैकेज घोषित हो सकता है। मनरेगा की तर्ज पर शहरों के लिए रोजगार गारंटी योजना भी आ सकती है। हालांकि यह घोषणा कब होगी, यह तय नहीं है। सीआइआइ की बिदिशा के अनुसार जब तक कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या में गिरावट का ट्रेंड नहीं बनता, तब तक दूसरे पैकेज की उम्मीद कम है। दूसरे विशेषज्ञों का कहना है कि अभी दूसरा पैकेज नहीं आया तो अर्थव्यवस्था को ज्यादा नुकसान होगा, तब देर से आने वाले पैकेज का असर भी कम होगा।

उद्योग चैंबर फिक्की की प्रेसिडेंट संगीता रेड्डी का कहना है, “मांग बढ़ाने के लिए पैकेज नहीं दिया गया तो हम कम मांग और कम आय के चक्र में फंस सकते हैं। हमें अभी साहसिक कदम उठाना पड़ेगा।” फिक्की के एक सर्वे में 68 फीसदी कंपनियों ने कहा कि कम मांग उनकी सबसे बड़ी चुनौती है। अगस्त में 41 फीसदी कंपनियों की बिक्री अगस्त 2019 की तुलना में आधी से भी कम रही। सिर्फ 21 फीसदी कंपनियों की बिक्री 50 से 75 फीसदी थी।

मांग बढ़ाने के लिए अर्थशास्त्रियों ने प्रवासी मजदूरों, गरीबों और किसानों को और नकद राशि देने, जीएसटी दरें कुछ समय के लिए घटाने, सरकारी खरीद बढ़ाने, इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट में तेजी लाने और वेतन देने में कंपनियों की मदद जैसे सुझाव दिए हैं। होटल, पर्यटन, रिटेल, रियल स्टेट और उड्डयन जैसे सर्वाधिक प्रभावित सेक्टर के लिए विशेष पैकेज की जरूरत भी बताई है। लेकिन सरकार के पास पैसे नहीं हैं। आरबीआइ के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने इसके लिए कर्ज के मॉनेटाइजेशन का सुझाव दिया है। मॉनेटाइजेशन में रिजर्व बैंक सरकार से बॉन्ड खरीदता है। उन्होंने विनिवेश के साथ शहरी इलाकों में सरकारी कंपनियों की बेशकीमती लेकिन सरप्लस जमीन बेचने का सुझाव भी दिया।

खर्च के मोर्चे पर सरकार के अब तक के कदम इन सुझावों से काफी दूर लगते हैं। कहां तो मांग बढ़ाने के लिए बजट में तय अनुमानों से भी ज्यादा खर्च की उम्मीद की जा रही थी, जबकि अप्रैल से जुलाई के दौरान केंद्र सरकार का खर्च 11.3 फीसदी बढ़ा जो बजट के सालाना लक्ष्य 12.7 फीसदी से भी कम है। इसमें भी रेवेन्यू खर्च (वेतन, पेंशन, ब्याज भुगतान आदि) में 12 फीसदी जबकि पूंजीगत व्यय में सिर्फ 3.9 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। जीडीपी आंकड़ों के अनुसार पहली तिमाही में निजी खपत और निवेश दोनों 5.3 लाख करोड़ रुपये घटा है और अर्थव्यवस्था का आकार 8.45 लाख करोड़ रुपये कम हुआ है। इसकी तुलना में सरकार की खपत सिर्फ 68,387 करोड़ रुपये बढ़ी है। मई में सरकार ने 21 लाख करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की थी, लेकिन उसमें वास्तविक खर्च जीडीपी के दो फीसदी से भी कम है। उसी पैकेज के तहत एमएसएमई के लिए तीन लाख करोड़ रुपये की इमरजेंसी क्रेडिट लाइन गारंटी स्कीम की घोषणा की गई थी, जिसके तहत बैंकों ने 3 सितंबर तक 1.61 लाख करोड़ रुपये के कर्ज स्वीकृत किए और 1.13 लाख करोड़ दिए। स्कीम 31 अक्टूबर तक है।

रिस्ट्रक्चरिंग कितनी कारगर

आर्थिक गतिविधियां सुस्त होने के कारण व्यक्ति और कॉरपोरेट, दोनों के लिए कर्ज लौटाना मुश्किल हो रहा है। इनके लिए रिजर्व बैंक ने 6 अगस्त को रिस्ट्रक्चरिंग स्कीम की घोषणा की। यह उनके लिए है जिनके खाते 1 मार्च 2020 को एनपीए नहीं थे। रिस्ट्रक्चरिंग के तहत कर्ज लौटाने की अवधि बढ़ाई जा सकती है, किस्तों का भुगतान दो साल तक के लिए रोका जा सकता है (मोरेटोरियम) या कर्ज के एक हिस्से को इक्विटी या ऐसी अन्य सिक्युरिटी में बदला जा सकता है जिसे बाद में बेचा जा सके। अनुमान है कि एयरलाइंस, होटल-रेस्तरां, कंस्ट्रक्शन, बिजली और रियल एस्टेट कंपनियां रिस्ट्रक्चरिंग के लिए ज्यादा आएंगी।

आरबीआइ ने रिस्ट्रक्चरिंग के मानक तय करने की जिम्मेदारी के.वी. कामत समिति को सौंपी थी, जिसने 4 सितंबर को सिफारिशें दीं। इसने पांच मानक रेशियो तय किए हैं जिन पर कंपनियों को परखा जाएगा। इनसे पता चलेगा कि कंपनी की स्थिति कितनी मजबूत है और रिस्ट्रक्चरिंग के बाद वह खड़ी हो सकेगी या नहीं। विकास दर महामारी से पहले भी आठ तिमाही से लगातार गिर रही थी। इसलिए नोमुरा फाइनेंशियल का मानना है कि 30 से 50 फीसदी कंपनियां रिस्ट्रक्चरिंग के मानकों को पूरा नहीं कर सकेंगी। बिदिशा कहती हैं, “अभी तक संकटग्रस्त सेक्टर की बड़ी कंपनियों के लिए कुछ भी नहीं किया गया है। वहां काफी बेचैनी है। इस दिशा में आवश्यक कदम उठाने की जरूरत है।”

समिति ने रिस्ट्रक्चरिंग के लिए कंस्ट्रक्शन, रियल स्टेट, टेक्सटाइल, कंज्यूमर ड्यूरेबल, एविएशन, होटल और टूरिज्म समेत 26 सेक्टर की पहचान की है। अभी कुल बैंक कर्ज 100 लाख करोड़ और एनबीएफसी का कर्ज 35 लाख करोड़ रुपये के आसपास है। रेटिंग एजेंसी इक्रा के क्रेडिट पॉलिसी विभाग के प्रमुख जितिन मक्कर का अनुमान है कि बैंक और एनबीएफसी छह से दस लाख करोड़ रुपये यानी पांच से आठ फीसदी तक बकाया कर्ज की रिस्ट्रक्चरिंग करेंगी। इंडिया रेटिंग्स का अनुमान कुल कर्ज के 7.7 फीसदी यानी 8.4 लाख करोड़ रुपये की रिस्ट्रक्चरिंग का है।

रिस्ट्रक्चरिंग की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि अर्थव्यवस्था की रिकवरी कितनी तेज होती है, वरना यह समस्या सुलझेगी नहीं, बस दो साल के लिए टल जाएगी। जैसा कि अन्य बड़े देश कर रहे हैं, रिकवरी के लिए सरकार की तरफ से खर्च बढ़ाना बेहद जरूरी है। फिलहाल इसी का अभाव दिख रहा है।

 जीएसटी  वादाखिलाफी का बोझ

चार साल पहले तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जीएसटी पर राज्यों को मनाने के लिए पांच साल तक कर संग्रह में नुकसान की भरपाई की बात कही थी। अब जब कोरोना के कारण वित्त वर्ष के पहले पांच महीने में जीएसटी संग्रह 30 फीसदी घटा तो भरपाई पर विवाद हो गया है। राज्य चाहते हैं कि केंद्र अपना वादा निभाए, जबकि केंद्र के मुताबिक उस पर ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। फिलहाल दोनों पक्षों का रवैया मोल-तोल वाला है और विवाद ने एनडीए बनाम गैर-एनडीए का रूप ले लिया है।

केंद्र का आकलन है कि इस वर्ष जीएसटी संग्रह तीन लाख करोड़ रुपये कम रहेगा। कंपेंसेशन सेस से 65,000 करोड़ रुपये की भरपाई होगी, यानी 2.35 लाख करोड़ की कमी रहेगी। इसमें से 97,000 करोड़ रुपये की कमी जीएसटी लागू करने की दिक्कतों के कारण और बाकी 1.38 लाख करोड़ कोविड-19 की वजह से होगी। जीएसटी काउंसिल की पिछली बैठक में केंद्र ने राज्यों को दो विकल्प दिए। पहले विकल्प के तहत राज्य रिजर्व बैंक से 97,000 करोड़ रुपये का कर्ज लेंगे। दूसरे विकल्प के तहत उन्हें बाजार से 2.35 लाख करोड़ का कर्ज लेना पड़ेगा जिसमें केंद्रीय बैंक मदद करेगा। जून 2022 के बाद इकट्ठा होने वाले कंपेंसेशन सेस से यह कर्ज लौटाया जाएगा।

गैर-एनडीए शासित राज्य इस प्रस्ताव से सहमत नहीं। उनका कहना है कि केंद्र को कर्ज लेकर राज्यों को पैसा देना चाहिए। केरल के वित्त मंत्री थॉमस आइजैक के अनुसार राज्यों की तुलना में केंद्र का कर्ज एक से दो फीसदी सस्ता होगा। वे कहते हैं, “यह केंद्र सरकार की नैतिक जिम्मेदारी भी है, क्योंकि पहले दो साल सेस फंड का सरप्लस पैसा कंसोलिडेटेड फंड ऑफ इंडिया में गया। इंटीग्रेटेड जीएसटी के एक लाख करोड़ भी केंद्र सरकार के खाते में गए।”

अतिरिक्त कर्ज लेने पर केंद्र को राजकोषीय घाटा बढ़ने का डर है, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि 2.35 लाख करोड़ रुपये कर्ज से राजकोषीय घाटा 1.25 फीसदी बढ़ेगा। यह इतना अधिक नहीं कि रेटिंग एजेंसियां भारत को डाउनग्रेड कर दें। केंद्र की यह दलील भी है कि वह सिर्फ कंसोलिडेटेड फंड के एवज में कर्ज ले सकता है, कंपेंसेशन सेस राज्यों के लिए है और उसके एवज में राज्य ही कर्ज ले सकते हैं। अप्रैल से जुलाई के दौरान राज्यों का करीब डेढ़ लाख करोड़ रुपये जीएसटी कंपनसेशन सेस बकाया हो गया है।

रेटिंग एजेंसी इक्रा में कॉरपोरेट सेक्टर रेटिंग के ग्रुप हेड जयंत राय के अनुसार कंपेंसेशन सेस और केंद्र से राज्यों को मिलने टैक्स बंटवारे में कमी के चलते राज्यों का कुल खर्च इस वर्ष 3.4 लाख करोड़ रुपये तक कम रह सकता है। अप्रैल से जुलाई के दौरान केंद्रीय करों में राज्यों को भुगतान पिछले साल की तुलना में 11.5 फीसदी कम हुआ है। इक्रा का अनुमान है कि साल के बाकी महीनों में राज्यों को मिलने वाली रकम 29 फीसदी घटकर 3.2 लाख करोड़ रह जाएगी। देश के कुल सरकारी खर्चों में 60 फीसदी हिस्सा राज्यों का ही होता है। इसमें कमी अर्थव्यवस्था को और कमजोर कर सकती है।

छह गैर-भाजपा शासित राज्यों पश्चिम बंगाल, केरल, दिल्ली, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु के मुख्यमंत्रियों ने प्रस्ताव के विरोध में केंद्र को पत्र लिखा है। इसके अलावा 13 सितंबर तक गुजरात, बिहार, ओडिशा और मध्य प्रदेश समेत 13 राज्यों ने केंद्र को बताया कि वे कौन सा विकल्प चुन रहे हैं। असम और हिमाचल समेत छह राज्यों ने कहा है कि वे जल्दी ही अपने विकल्प के बारे में बताएंगे।

फिलहाल केंद्र का रुख भी थोड़ा लचीला लग रहा है। खबरों के मुताबिक अगर राज्य, केंद्र का प्रस्ताव मान लें तो बिना शर्त कर्ज लेने की सीमा 0.5 फीसदी बढ़ाई जा सकती है। एफआरबीएम एक्ट के तहत राज्य जीएसडीपी के तीन फीसदी तक कर्ज ले सकते हैं। मई में केंद्र ने इसे दो फीसदी बढ़ाया था। इसमें पहले 0.5 फीसदी के लिए कोई शर्त नहीं होगी, इसके बाद एक फीसदी कर्ज को 0.25 फीसदी के चार हिस्से में बांटकर उसे चार शर्तों से जोड़ दिया गया। चार में से तीन शर्तें पूरी करने के बाद राज्य बाकी 0.5 फीसदी कर्ज ले सकेंगे। अगर केंद्र नया प्रस्ताव लाता है तो दो में से 1.5 फीसदी कर्ज बिना शर्त हो जाएगा। हलांकि राज्य कर्ज को शर्तों से जोड़ने के खिलाफ हैं। काउंसिल की 5 अक्टूबर को होने वाली बैठक में कोई निर्णय हो सकता है।

सवाल दोहरे ब्याज का

मा  र्च से अगस्त तक छह माह के मोरेटोरियम के दौरान बैंकों ने कर्ज लौटाने से तो राहत दे दी, लेकिन वे कर्ज पर ब्याज और उस ब्याज पर दोबारा ब्याज (चक्रवृद्धि) जोड़ते रहे। इसके खिलाफ याचिका पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रहा है। वह 28 सितंबर को अगली सुनवाई में कोई फैसला सुना सकता है। अनुमान है कि 32 फीसदी कर्ज लेने वालों ने मोरेटोरियम का इस्तेमाल किया है। मैक्वायरी कैपिटल के अनुसार अगर मोरेटोरियम के दौरान ब्याज माफ किया जाता है तो कर्ज लेने वालों को 15 से 20 हजार करोड़ रुपये की राहत मिलेगी और बैंकों को इतने का ही नुकसान होगा।

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