उत्तर-पूर्व के राज्यों की चुनावी राजनीति अमूमन फीकी और बेरंग रहती आई है। माना जाता है कि केंद्रीय अनुदानों और सहयोग के भरोसे राजकाज चलाने वाले ये सूबे कभी केंद्र की सत्ता से प्रत्यक्ष वैर नहीं पालते। पहली बार यह मिथक मिजोरम में टूटता दिख रहा है, जहां 40 विधानसभा सीटों के लिए आगामी 7 नवंबर को मतदान होना है। मिजोरम में सत्ताधारी मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) के मुखिया और मुख्यमंत्री जोरमथंगा ने यह कहकर चुनावी माहौल गरमा दिया है कि वे 30 अक्टूबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा नहीं करेंगे। यह बयान इसलिए अहमियत रखता है क्योंकि एमएनएफ केंद्र में एनडीए का हिस्सा है, हालांकि वह पहले संसद में केंद्र सरकार के खिलाफ विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के अविश्वास प्रस्ताव के समर्थन में वोट कर चुका है।
जोरमथंगा चौथी बार जीत का दावा कर रहे हैं। यह आत्मविश्वास पड़ोसी सूबे मणिपुर से आ रहा है, जहां से आए करीब साढ़े बारह हजार कुकी समुदाय के लोगों को उनकी सरकार ने शरण दी है। इसके अलावा, म्यांमार और बांग्लादेश के हजारों शरणार्थियों को एमएनएफ सरकार ने चर्चों और स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद से राहत देने का काम पिछले कुछ वर्षों में किया है। मिजो, कुकी, चिन (म्यांमार), हमार, जोमी, चिन-कुकी- ये सारे समुदाय सजातीय हैं। ये सभी ‘जो’ जातीयता से ताल्लुक रखते हैं। इनके पुरखे, संस्कृति, पंरपराएं, सब एक हैं। इनमें ज्याादातर ईसाई हैं।
पिछले कुछ महीनों के दौरान मणिपुर में हुई जातीय हिंसा में 50,000 से ज्यादा लोग विस्थापित हो गए हैं। इस हिंसा के दौरान जोरमथंगा ने केंद्र सरकार और मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. वीरेन सिंह की निंदा की थी और कुकियों के समर्थन में निकाली गई एक रैली में जुलाई में हिस्सा लिया था। मुख्य विपक्षी दल जोरम पीपुल्स मूवमेंट (जेडपीएम) ने इसे वोट की राजनीति करार दिया है। जेडपीएम की पैदाइश को महज पांच साल हुए हैं, लेकिन 2018 के चुनाव में उसने सीटों के मामले में न सिर्फ कांग्रेस को तीसरे स्थान पर धकेल दिया था बल्कि बीते अप्रैल में हुए लुंगलेइ के पहले नगर परिषद चुनाव में सभी 11 सीटें अपने नाम कर ली थीं। लुंगलेइ, राजधानी ऐजावल के बाद दूसरी सबसे बड़ी शहरी आबादी वाला क्षेत्र है।
मुख्यमंत्री जोरमथंगा
इस लिहाज से मणिपुर का घटनाक्रम जोरमथंगा और एमएनएफ के लिए अदृश्य वरदान साबित हुआ है, जिसके फिलहाल 27 विधायक हैं। पांच सीटों वाली कांग्रेस इस बार अपने कद्दावर नेता और चार बार के मुख्यमंत्री रहे लल थनहवला के बगैर चुनाव में उतर रही है, जिन्होंने 2021 में ही सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया था, लेकिन हाल में राहुल गांधी के तीन दिन के दौरे पर उमड़ी खासकर युवाओं की भीड़ से पार्टी उत्साहित है और उसे जीत का भरोसा है। वहां राहुल ने एमएनएफ और जेडपीएम दोनों को भारतीय जनता पार्टी का साथी करार दिया। मोदी से मंच न साझा करने का जोरमथंगा का बयान उसके बाद आया। भाजपा को पिछले चुनाव में एक सीट मिली थी। वोट प्रतिशत में कांग्रेस अब भी दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन जेडपीएम के छह और कांग्रेस के पांच विधायक हैं।
लिहाजा, परंपरा से कांग्रेस और एमएनएफ के बीच दोतरफा रहता आया मिजोरम का चुनाव इस बार त्रिकोणीय है। खुद को आदिवासियों का हितैशी दिखाने के सवाल पर कांग्रेस, एमएनएफ और जेडपीएम तीनों के बीच होड़ है। यहीं पर भाजपा की उम्मीदें टिकी हैं। भाजपा त्रिशंकु परिणाम की आस में है ताकि किंगमेकर बन सके। भाजपा को मिजोरम के जातीय अल्पसंख्यकों, खासकर चकमा समुदाय से कुछ आशा है, जहां से उसकी इकलौती सीट (तुइचांग विधानसभा) आती है। राज्य में आठ प्रतिशत आबादी वाले चकमा सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय हैं, जो बौद्ध हैं।
पिछली बार भाजपा ने 39 सीटों पर प्रत्याशी खड़े किए थे। इस बार मात्र 23 सीटों पर उसने टिकट बांटे हैं। ज्यादातर सीटें चकमा, ब्रू और मारा समुदाय वाली हैं। इनमें ब्रू समुदाय के साथ भाजपा की निकटता है। 1997 में जातीय हिंसा के चलते हजारों ब्रू लोग त्रिपुरा भाग गए थे। केंद्र की मोदी सरकार ने 2020 में 34000 विस्थापित ब्रू लोगों को त्रिपुरा में बसाया था।
इस साल मणिपुर से कुकी-जो भागकर मिजोरम आए, तो एमएनएफ ने फिर ‘जो एकीकरण’ और ‘ग्रेटर मिजोरम’ का नारा दिया। विडंबना यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर बहुसंख्यकवाद की राजनीति करने वाली भाजपा यहां अल्पसंख्यकों पर नजर गड़ाए हुए बहुसंख्यकवाद के दावेदारों के बीच वोट बंटने की प्रतीक्षा में है।