“मीडिया ट्रायल में न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी नहीं बंधी होती, क्योंकि ऐसे ट्रायल में एक ही बात मायने रखती है कि आप कितने लोगों को आकर्षित कर पाते हैं।” यहां खेल सिर्फ पैसे का होता है जो नजरों को लुभाने वाली और सनसनीखेज खबरों से आता है।
हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली का मूल यह है कि कोई भी अभियुक्त दोषी साबित होने तक निर्दोष है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि पहले निर्दोष मानना न्याय-व्यवस्था में भरोसे को सुरक्षित रखता है। इसका जिक्र संविधान के अनुच्छेद 21 में भी है। इसमें कहा गया है कि सिवाय कानून द्वारा स्थापित तरीके से, किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकेगा। अनुच्छेद 22 इसका पूरक है, जो किसी व्यक्ति के गिरफ्तार होने या हिरासत में लिए जाने पर उसके अधिकारों की रक्षा करता है।
कुख्यात सिंपसन मामले में मीडिया ट्रायल ने इस सिद्धांत को सिर के बल खड़ा कर दिया। मीडिया स्टूडियो कोर्टरूम बन गए हैं। यहां आपको गवाह, सबूत, जांच और इन सबके ऊपर जज, ज्यूरी और जल्लाद सबके मिले-जुले रूप में एंकर मिलेंगे। कोर्ट में सुनवाई शुरू होने से पहले ही जनमत के आधार पर दोषी ठहराते हुए एक तरह से सजा भी सुना दी जाती है। इसका असर बेहद खतरनाक होता है। यह न्याय प्रक्रिया को भी बुरी तरह प्रभावित कर सकता है, क्योंकि आखिरकार जज भी मनुष्य हैं और उनमें भी वही भावनाएं और विचार होते हैं जो दूसरे लोगों में।
भारत में मीडिया ट्रायल का पहला मामला कैप्टन नानावती का था। मीडिया उस मामले में जज और ज्यूरी बन गया, लोग पंच बन गए। कैप्टन नानावती के गुनाह कबूल करने के बाद भी ज्यूरी ने उन्हें छोड़ दिया। वह ऐसा फैसला था जिसे मीडिया ने तय किया और ज्यूरी ने सुनाया था। वह एक खतरनाक दृष्टांत की शुरुआत थी।
टेलीविजन न्यूज आने के बाद मीडिया ट्रायल सनसनीखेज पत्रकारिता का अभिन्न हिस्सा बन गया। आरुषि तलवार मामले में कोर्ट से पहले अधूरी जांच और कमजोर साक्ष्यों के आधार पर मीडिया ने बता दिया कि उसके पिता डॉ. राजेश तलवार और संभवतः मां नूपुर तलवार ने हत्या की थी। इसके विपरीत जेसिका लाल और प्रियदर्शिनी मट्टू जैसे मामले भी हैं जिनमें माना जाता है कि मीडिया की जांच से न्याय दिलाने में मदद मिली। तो संतुलन कहां होना चाहिए?
यहां यह समझना जरूरी हो जाता है कि निष्पक्ष सुनवाई (अनुच्छेद 21) के संदर्भ में प्रेस की आजादी (अनुच्छेद 19-1) के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा है। महाराष्ट्र सरकार बनाम राजेंद्र जवनमल गांधी और एमपी लोहिया बनाम पश्चिम बंगाल सरकार मामले में कोर्ट ने मीडिया ट्रायल पर नाराजगी जताई थी। इसी तरह केरल सरकार बनाम पूथला अबूबेकर मामले में केरल हाइकोर्ट ने कहा था, “चौथे स्तंभ को संभवतः इस बात का एहसास नहीं है कि सनसनीखेज पत्रकारिता से उसने अपराध के शिकार लोगों और तथाकथित दोषियों का कितना नुकसान किया है। सच अक्सर दरकिनार कर दिया जाता है, बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाता है या तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है। मीडिया ट्रायल समाज का भला करने से कहीं ज्यादा नुकसान कर सकता है।”
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जी.एन. राय ने भी लिखा था कि निष्पक्ष सुनवाई और बोलने की आजादी के बीच विवाद में निष्पक्ष सुनवाई की ही जीत होनी चाहिए, क्योंकि अगर इससे समझौता किया गया तो काफी नुकसान होगा और न्यायिक प्रणाली पराजित होगी।
सुप्रीम कोर्ट ने भले कई दृष्टांत पेश किए हों, जमीनी स्तर पर कुछ नहीं बदला है। इस मर्ज की दवा मीडिया हाउस का रेवेन्यू मॉडल सुधारना और भारतीय मीडिया नियामक प्राधिकरण का गठन करना है।
पहले बात रेवेन्यू मॉडल की। भारतीय मीडिया घरानों का 1992 में उदारीकरण हुआ। इसके बाद जो रेवेन्यू मॉडल बना वह 100 फीसदी विज्ञापन आधारित था। उपभोक्ता को खबरें बेहद सस्ती कीमत पर उपलब्ध कराई जाने लगीं। दुर्भाग्यवश, मीडिया बाजार इसी में खुश है क्योंकि उपभोक्ताओं को खबरों के लिए पैसे खर्च करना मूर्खतापूर्ण लगता है।
कहावत है कि अगर आप किसी चीज के पैसे नहीं चुका रहे हैं तो आप भी एक उत्पाद हैं। मीडिया का रेवेन्यू मॉडल पूरी तरह विज्ञापनों पर निर्भर है और यहां करीब 390 न्यूज चैनल हैं। उनमें इन विज्ञापनों में ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी की प्रतिस्पर्धा रहती है, जो अंततः टीआरपी से तय होता है। जिसकी जितनी टीआरपी, उसे उतना अधिक विज्ञापन। इसी का नतीजा है कि नैतिक और कानूनी संहिताओं का उल्लंघन होता है और तथ्यों और विचारों पर आधारित पत्रकारिता का असम्मान होता है।
इसका समाधान क्या है? एक पारदर्शी सब्सक्रिप्शन आधारित रेवेन्यू मॉडल जिसमें उपभोक्ता के सामने सब्सक्रिप्शन बदलने का विकल्प हो। इसके दो फायदे होंगे। मीडिया इंडस्ट्री अस्थिर रेवेन्यू मॉडल पर आधारित नहीं रहेगी तो स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता को ज्यादा जगह मिलेगी। दूसरा, उपभोक्ताओं को चौथे स्तंभ का वास्तव में लाभ मिलेगा, क्योंकि जब वे पैसे देंगे तो चैनलों पर भी बेहतर कॉन्टेंट का दबाव होगा।
अब प्रिंट और ब्रॉडकास्ट मीडिया के नियमन की बात। प्रेस काउंसिल एक्ट 1978 के तहत प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का गठन किया गया था। भारत में प्रिंट और ब्रॉडकास्ट मीडिया का नियमन करने वाली यह मुख्य अथॉरिटी है। इसका काम प्रेस की आजादी को बरकरार रखने के साथ अखबारों और न्यूज एजेंसियों का स्तर सुधारना और उसे बरकरार रखना है। लेकिन यह काउंसिल बिना दांत वाले शेर की तरह है। अगर कोई मीडिया हाउस गलती करता है तो उसे सजा देने का अधिकार काउंसिल के पास नहीं है। यह किसी मीडिया हाउस को चेतावनी दे सकती है, समझा सकती है या उसकी निंदा कर सकती है। इसलिए आज जरूरत इस बात की है कि संसद भारतीय मीडिया नियमन प्राधिकरण का गठन करे, जिसके पास बिजनेस और संपादकीय सामग्री दोनों के नियमन का पर्याप्त अधिकार हो।
(लेखक वकील, सांसद और पूर्व सूचना-प्रसारण मंत्री हैं)