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नारी अधिकारों की पढ़ाई में कई पचड़े

समाज में स्‍त्री-पुरुष गैर-बराबरी के अध्ययन के लिए वुमन स्टडीज अपेक्षाकृत नया विषय, लेकिन बजट में कटौती से छाए पाठ्यक्रम पर संकट के बादल, छात्र दूसरे विकल्प तलाशने पर मजबूर
वुमन स्टडीज को लेकर जागरूकता जरूरी

आज भी वैज्ञानिक इस रहस्य की तलाश में जुटे हैं कि स्‍त्री-पुरुष (या नर-मादा) के चारित्रिक और सांसारिक वजूद में फर्क की क्या वजहें हैं। ठीक इसी तरह समाजशास्‍त्री स्‍त्री-पुरुष गैर-बराबरी के मामले में रूढ़िवादी और उदारवादी नजरिए की टकराहटों को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं। यह ऐसा विषय है जिसकी जड़ें अतीत में हैं। यानी इसकी बुनियाद तब पड़ी थी जब इनसान ने सबसे पहले परिवार बनाने, कुनबे में रहने और स्‍त्री-पुरुष के बीच काम के बंटवारे का फैसला किया। लेकिन इसका अध्ययन आज की तथाकथित उदार दुनिया में भी प्रासंगिक है। अभी भी ज्यादातर दफ्तरों में बराबरी महिलाओं के लिए दूर की कौड़ी है। फिर भी यह विषय अच्छा कॅरिअर विकल्प हो सकता है। ऐसा ही सोचना है दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज से समाजशास्‍त्र से स्नातक और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टिस) हैदराबाद से वुमन स्टडीज में स्नातकोत्तर प्रियम सिन्हा का।

कॉलेज की पढ़ाई के दौरान सिन्हा ने खासकर भारतीय समाज में सामाजिक पदानुक्रम और स्‍त्री-पुरुष गैर-बराबरी का अध्ययन किया था। यहीं उन्होंने जाना कि पिछले कुछ साल में छात्रों के बीच वुमन स्टडीज करिअर की बड़ी पसंद बन कर सामने आया है। सिन्हा याद करती हैं कि कैसे उन्होंने अपने पंख फैलाकर नए तरह के कॅरिअर की आस संजोई थी। लेकिन जल्द ही सब बदल गया। 12 मार्च 2019 को, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने जेंडर स्टडीज केंद्रों के लिए अचानक से बजट में भारी कटौती की घोषणा की। इसके बाद भारतीय एसोसिएशन फॉर वुमन स्टडीज (आइएडब्‍ल्यूएएस) के नेतृत्व में देशव्यापी विरोध शुरू हो गया।     

जैसे ही यह मुद्दा मीडिया में आया, हफ्ते भर बाद यूजीसी ने कहा, यह दिशा-निर्देशों का मसौदा मात्र है। इतना ही नहीं, यूजीसी ने बीते 5 अप्रैल 2019 तक इस पर फीडबैक भी मंगवाए थे। हालांकि, स्कॉलर्स और प्रोफेसर यूजीसी के स्पष्टीकरण से सहमत नहीं हैं और महसूस करते हैं कि भारत में जेंडर स्टडीज का भविष्य अनिश्चित है। सिन्हा कहती हैं, “थ्योरी और फील्ड दोनों में ही कठिन शोधकार्य ने मुझे इसकी ओर आकृष्ट किया था। यूजीसी के दिशा-निर्देशों से इस पाठ्यक्रम को लेकर सिर्फ चिंता और मोहभंग हुआ है।”

पश्चिम में 1970 के दशक में नारीवादी आंदोलन का अंकुर फूटने का नतीजा वुमन स्टडीज के रूप में सामने आया, जबकि भारत में पुणे के सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय ने 1986 में यह पाठ्यक्रम शुरू किया था। यूजीसी वुमन स्टडीज को “साहित्य का एक निकाय जो महिलाओं की समानता और विकास के लिए चिंता का प्रतीक है और समाज में महिलाओं की असमान स्थिति के लिए स्पष्टीकरण और उपाय खोजने के लिए” के रूप में परिभाषित करता है। आइएडब्‍ल्यूएएस का गठन 1981 में शिक्षाविदों, कार्यकर्ताओं और महिलाओं के विकास से जुड़े नीति निर्धारकों के लिए एक मंच के रूप में किया गया था। एक अध्ययन के अनुसार, आइएडब्‍ल्यूएएस ने कहा था कि अनुदान में कटौती मारक होगी। स्थापित केंद्रों को तीन चरणों में बांटा गया है-पहला, दूसरा और उन्नत। दो चरणों के लिए वेतन बजट 40 लाख रुपये से 60 लाख रुपये और उन्नत केंद्रों के लिए 75 लाख रुपये के बीच था। यूजीसी की नई गाइडलाइन में चरणों का कोई उल्लेख नहीं है। इसमें हर केंद्र के लिए 35 लाख और हर कॉलेज के लिए 25 लाख बजट निर्धारित किया जाएगा।  

विश्वविद्यालयों में मौजूद वुमन स्टडीज सेंटर बंद हो रहे हैं। इसी के मद्देनजर सिन्हा लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में मीडिया और संचार अनुसंधान के एक पाठ्यक्रम में आवेदन करने पर विचार कर रही हैं। वे कहती हैं, “इस देश में जेंडर स्टडीज के लिए बजट और राजनैतिक प्रोत्साहन की कमी के कारण ही हम जैसे लोगों को दूसरे विकल्प तलाशने पड़ रहे हैं।” 

जेंडर स्टडीज के प्रति उपेक्षा प्रगतिशील, आधुनिक समाज के लिए स्वागत योग्य संकेत नहीं है क्योंकि जेंडर स्टडीज ही है जो युवाओं को दहेज, बहुविवाह, कुटुंब के भीतर होने वाले व्यभिचार, हिरासत में बलात्कार और ऐसे कई उत्पीड़न और अत्याचारों का सामना करने वाले कई मुद्दों पर सवाल उठाने में मदद करता है। हाल में पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ से, ‘मुख्यधारा हिंदी सिनेमा में रूपक के रूप में स्थान: एक महिला नायक का अध्ययन’ विषय में पीएचडी करने वाली आरती के. सिंह कहती हैं, “गाइड या प्रशिक्षकों और प्रोफेसरों की कमी से ज्यादा, भारतीय सामाजिक-राजनैतिक और सांस्कृतिक वातावरण में निश्चित तौर पर जेंडर स्टडीज पर साहित्य की कमी है।”  

जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज, दिल्ली में समाजशास्‍त्र की सहायक प्रोफेसर राज्यलक्ष्मी का मानना है, “जेंडर स्टडीज समझने में समय लगता है।” सामाजिक विज्ञान और लिंग अध्ययन लोगों को उन मुद्दों पर बहस करने की अनुमति देते हैं जिनका सामना वे हर दिन करते हैं। वे कहती हैं, “दुर्भाग्य से, सामाजिक विज्ञान का समाज में कोई मूल्य नहीं है और जेंडर स्टडीज के लिए तो बिलकुल भी नहीं है।”

यही वजह है कि विद्वान जोर देते हैं कि बजट जारी करने वाली एजेंसियां किसी भी शोध प्रस्ताव को देखने के लिए तैयार ही नहीं हैं। कभी-कभी तो उनकी प्रतिक्रिया भी काफी पक्षपातपूर्ण होती है।

लेकिन अभी तक किसी ने भी हार नहीं मानी है। कुछ लोग हैं जो अब भी आशावादी हैं। मुंबई के किशनचंद चेलाराम कॉलेज में जेंडर स्टडीज डिपार्टमेंट की हेड लीना पुजारी का कहना है कि जेंडर स्टडीज छात्रों का भविष्य अंधकारमय नहीं है। वह कहती हैं, “सब बातों के विपरीत मेरे कुछ छात्रों ने हाल ही में स्नातकोत्तर में जेंडर स्टडीज को चुना है। देखा जाए तो पहले के मुकाबले यह विषय आज ज्यादा प्रासंगिक है। सोशल मीडिया के हमले और प्रसारित होने वाली अनियंत्रित राय को देखते हुए जेंडर स्टडीज पर ज्यादा बारीक और मजबूत दृष्टिकोण की जरूरत है, जो केवल कक्षाओं में हो सकता है।”

टिस में प्रोफेसर और आइएडब्‍ल्यूएस की एक्जिक्यूटिव कमेटी मेंबर विभूति पटेल भी इससे सहमत हैं। वे कहती हैं, “सभी अंतरराष्ट्रीय संगठनों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपनी परियोजनाओं, कार्यक्रमों और संस्थागत लोकाचार में लैंगिक संवेदनशीलता की आवश्यकता है क्योंकि वैश्विक स्तर पर जेंडर स्टडीज की बहुत अधिक मांग है।” मुंबई स्थित टिस को वुमन स्टडीज के लिए सैकड़ों आवेदन मिले हैं। 

यह विषय छात्रों के बीच लोकप्रिय है क्योंकि इसका सीधा संबंध जीवंत अनुभव से है। पुजारी कहती हैं, “मेरे कॉलेज में, जेंडर स्टडीज अध्ययन में सर्टिफिकेट कोर्स बेहद सफल रहा और बड़ी संख्या में छात्र इसे चुनते हैं। यह पाठ्यक्रम स्‍त्री-पुरुष के बीच आपस में संवाद को संभव बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

पाठ्यक्रम छात्रों के बीच स्‍त्रीवादी बातचीत शुरू करने और परिसर में लड़का या लड़की में भेदभाव न करने की समझ विकसित करता है।  आरती के. सिंह कहती हैं, “अपनी स्थापना और महिलाओं के आंदोलन के साथ संबंध के बाद से, एक्टिविजम जेंडर स्टडीज का आधार रहा है, खासकर इसका नारीवादी दृष्टिकोण। लेकिन मुझे लगता है कि दृष्टिकोण मानवतावादी होना चाहिए और इसे न स्‍त्री के प्रति न पुरुष के प्रति पक्षपातपूर्ण होना चाहिए। वह सुझाव देती हैं कि सामाजिक न्याय जेंडर स्टडीज पाठ्यक्रम, कार्यक्रम और विभागों का आधार होना चाहिए। 

आखिर यह विषय छात्रों को कितना अपील करता है? वरुण तिवारी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से दर्शनशास्‍त्र में स्नातकोत्तर करने और टिस हैदराबाद से एमए पूरा करने के बाद भी वुमन स्टडीज में पढ़ाई की।

वे महसूस करते हैं कि करिअर के लिए इसमें अकादमिक और व्यावसायिक दोनों ही रूपों में पुरुष छात्रों के लिए मौके “बहुत कम” हैं। तिवारी जोर देकर कहते हैं, “यूजीसी ने वुमन स्टडीज पर व्यवस्थित और संरचनात्मक हमला किया गया है। वे कहते हैं, यूजीसी ने सीटों में और बजट में कटौती की है। इसलिए मेरे लिए शिक्षाविद के रूप में कॅरिअर बनाना जोखिम भरा था। विकास के क्षेत्र में भी लोग वुमन स्टडीज विषय की प्रकृति नहीं समझते हैं।”

तिवारी को अभी तक लगता है कि जेंडर स्टडीज महिलाओं के लिए ही ठीक है क्योंकि प्लेसमेंट के लिए उनके कॉलेज में आने वाले 80 फीसदी एनजीओ लड़कियों की ही तलाश करते हैं। प्रियम सिन्हा कहती हैं, “सबसे पहली बात तो यह है कि वित्त कमेटी ने फंड में कटौती कर दी है। और हम एमफिल या पीएचडी में पंजीकरण करा लेते हैं तो हमसे उम्मीद की जाती है कि अगले पांच साल के लिए अपने खर्चे खुद उठाएं.. माता-पिता से सहयोग न मांगें।”

आइएडब्‍ल्यूएस कार्यकारी समिति के सदस्य विभूति पटेल के अनुसार, भारत में वुमन स्टडीज राज्य संरक्षण के परिणामस्वरूप विकसित हुआ। लेकिन फिर भी यह सच है कि जेंडर स्टडीज की ताकत ‘पुरुष’ ही है। फंडिग के ज्यादातर फैसले कमेटी में मौजूद पुरुष ही लेते हैं।

स्कॉलर्स आरोप लगाते हैं कि भारत में पुअर फंडिंग पर रोक नहीं है। विदेशों में भी स्थिति खराब है। सोशियोलॉजी की प्रोफेसर और प्रूड यूनिवर्सिटी के सुसान बल्कले बटलर सेंटर लीडरशिप एक्सीलेंस की निदेशक मंगला सुब्रह्मण्यम का कहना है कि अमेरिका की भी कुछ यूनिवर्सिटीज को फंड की कमी का सामना करना पड़ रहा है, इसी वजह से वे लोग कुछ पाठ्यक्रम और ह्यूमेनिटीज में डिग्री कार्यक्रम को बंद कर रहे हैं। वे कहती हैं, “इसके लिए हमें सरकारी और निजी धन स्रोतों पर विचार करना होगा। इन सब के बीच भारत में कुछ निजी शैक्षणिक संस्थान जैसे सोनीपत, हरियाणा में स्थित अशोका यूनिवर्सिटी सामाजिक विज्ञान और जेंडर स्टडीज में अपनी अच्छी पहचान बना रहे हैं।”

अशोका यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर स्टडीज इन जेंडर ऐंड सेक्सुअलिटी (सीएसजीएस) की स्थापना अगस्त 2015 में की गई थी। यह जेंडर और सेक्सुअलिटी के विषय में नए पहलुओं का अध्ययन करने वाला देश का पहला केंद्र है।

अंग्रेजी की प्रोफेसर और केंद्र की निदेशक माधवी मेनन कहती हैं, “सक्रियता के साथ संयुक्त अनुसंधान पर जोर देने के साथ, सीएसजीएस भारत में जेंडर और सेक्सुअलिटी में क्रांति लाने की उम्मीद करता है।”

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