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13 जून 2022 · JUN 13 , 2022

आवरण कथा/नजरिया: कानून के तर्क-वितर्क

भारत में पहले से ही महिलाओं को कानूनी रूप से काफी तरजीह दी गई है, अलग से वैवाहिक बलात्कार अपराध श्रेणी में लाने से झूठे मुकदमों को बढ़ावा मिल सकता है
कानून को कई रूप से विचार करने की आवश्यकता

एक बार फिर वैवाहिक बलात्कार चर्चा का विषय बना हुआ है क्योंकि बात भारतीय संस्कृति, सामाजिक दृष्टिकोण और व्यक्तिगत जिंदगी से जुड़ी हुई है। लेकिन इस विषय की संवेदनशीलता और प्रासंगिकता दोनों सवालों के घेरे में है। इसकी जटिलता दिल्ली हाइकोर्ट के फैसले से भी पता चलती है। उसके विभाजित फैसले से साफ पता चलता है कि कानूनी दृष्टिकोण से भी यह विवादास्पद है। दिल्ली हाइकोर्ट की दो जजों वाली बेंच में भी वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में रखने पर सहमति नहीं बन पाई।

न्यायाधीश राजीव शकधर के अनुसार भारतीय दंड संहिता की धारा 375 में दिया गया अपवाद न सिर्फ असंवैधानिक बल्कि आधारहीन भी है। दूसरे न्यायाधीश हरिशंकर ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने की याचिका को खारिज करते हुए कहा कि कानून में किसी भी तरह का बदलाव विधायिका द्वारा किया जाना उचित है, क्योंकि इस पर सामाजिक, सांस्कृतिक और कानूनी रूप से विचार की आवश्यकता है।

भारतीय दंड संहिता में रेप यानी बलात्कार के लिए कठोर प्रावधान है। धारा 375 के अनुसार अगर कोई व्यक्ति किसी भी महिला के साथ उसकी सहमति के बिना, डर दिखाकर, शादी का झांसा देकर या फिर महिला की मानसिक स्थिति ठीक न रहने पर यौन संबंध स्थापित करता है, तो उसे बलात्कार की संज्ञा दी गई है। इसी के साथ 16 साल से कम उम्र की महिला के साथ सहमति और सहमति के बिना भी यौन संबंध स्थापित करना बलात्कार की श्रेणी में रखा गया है। दूसरी तरफ धारा 375 के अपवाद 2 में कहा गया है कि “किसी पुरुष द्वारा पत्नी के साथ संभोग या यौन कृत्य, यदि पत्नी की उम्र पंद्रह वर्ष से कम नहीं है, बलात्कार नहीं है।” 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने इस आयु सीमा को बढ़ाकर 18 वर्ष कर दिया था।

ऐसी बहुत सारी धाराएं हैं, जिन पर प्रश्न चिन्ह है। बलात्कार और वैवाहिक बलात्कार दो अलग चीजें हैं। अगर स्वतंत्र रूप से नजर डाली जाए, तो हम कह सकते हैं कि विवाह के बाद भी प्रत्येक व्यक्ति को दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार है, फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष। 1861 की भारतीय दंड संहिता खुद ही सवालों के घेरे में है। समय-समय पर इसकी प्रासंगिकता पर भी सवाल खड़े हुए हैं। समय आ गया है कि अंग्रेजों के समय बने इस कानून की समीक्षा हो और सारे पहलुओं पर बहस की जाए। 

आपराधिक संहिता प्रक्रिया, 1973 की धारा 198बी के तहत कोई भी न्यायालय भारतीय दंड संहिता की धारा 376बी के तहत ऐसे दंडनीय अपराध का संज्ञान नहीं लेगा, जहां व्यक्ति वैवाहिक संबंध में है- केवल उन तथ्यों की प्रथम दृष्टया संतुष्टि के अलावा, जो पत्नी द्वारा शिकायत दर्ज किए जाने या उसके खिलाफ की गई शिकायत पर आपराधिक लगे। ये सारे कानून वैवाहिक बलात्कार को आपराधिक मानने से इंकार करते हैं।

 

अपराध बनाने से क्या अड़चनें

भारत में पहले से ही महिलाओं को कानूनी रूप से काफी तरजीह दी गई है। वैवाहिक बलात्कार को कहीं न कहीं घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 और भारतीय दंड संहिता की धारा 498(ए) में शामिल किया जा सकता है। अलग से वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में लाने पर झूठे मुकदमों को बढ़ावा मिल सकता है। इससे न सिर्फ न्यायालय का बोझ बढ़ेगा बल्कि कानून के दुरुपयोग में भी बढ़ोतरी होगी।

अधिनियमों और कानूनी अनुच्छेद से एक बात साफ है कि कानून में महिलाओं के लिए उचित प्रावधान हैं। पत्नी के पास पहले से यह अधिकार मौजूद है कि वह वैवाहिक बलात्कार को भी इसमें शामिल कर शिकायत कर सकती है। दूसरी तरफ इस कानून और अधिनियम का गलत इस्तेमाल भी किसी से छुपा हुआ नहीं है। फिर पति-पत्नी के बीच वैवाहिक बलात्कार को न्यायालय या अन्य एजेंसियां कैसे साबित करेंगी, यह सबसे बड़ा सवाल है। क्योंकि बंद कमरे में पति-पत्नी की असहमति के बीच किसी को दाखिल होने का अधिकार नहीं होता। अगर होगा तो इसे दो व्यक्तियों के निजी जीवन में हस्तक्षेप का उल्लंघन माना जाएगा। इसके साथ पहले से ही मौजूद घरेलू उत्पीड़न और यौन शोषण को लेकर कानून एक-दूसरे से जुड़ा है। पति और पत्नी के बीच संबध को व्यापक रूप दिया गया है और इसमें त्याग की भावना भी होती है। यह त्याग दोनों तरफ से देखा जा सकता है। वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में रखने से पति-पत्नी के बीच रिश्ते पर प्रभाव पड़ेगा। इस बात में कोई संदेह नहीं कि कुछ सही मामले सामने आएंगे लेकिन बात विश्वसनीयता पर आकर ठहर जाएगी।

अपराध की श्रेणी में रखने के तर्क

दिल्ली हाइकोर्ट के न्यायमूर्ति शकधर ने फैसला सुनाते हुए लिखा कि किसी भी समय पर सहमति वापस लेने का अधिकार महिला के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार में निहित है। इसके साथ ही प्रत्येक महिला को अपने शारीरिक और मानसिक अस्तित्व की रक्षा करने का पूर्ण अधिकार है। वैवाहिक बलात्कार न सिर्फ शारीरिक निशान छोड़ता है बल्कि यह पीड़िता के मानसिक संतुलन पर भी गहरा प्रभाव डालता है।

धारा 375 में मौजूद अपवाद भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 का भी खुलेआम उल्लंघन करता है। अनुच्छेद 14 प्रत्येक व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता का अधिकार देता है। इसके साथ ही अनुच्छेद 15 भी इससे प्रभावित होता है। अनुच्छेद 15 में कहा गया है कि धर्म, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किया जाएगा। इसके साथ ही अनुच्छेद 15(3) में महिलाओं और बच्चों के हितों की रक्षा के लिए विशेष प्रावधान की भी बात की गई है। सारे नियम और कानून हालांकि हकीकत से काफी दूर जाते नजर आते हैं।

जो कानून कभी महिलाओं के कल्याण और विकास को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बनाए गए थे वे वास्तव में लंबे समय से उनके उत्पीड़न को बयां कर रहे हैं। विवाह के बाद बिना सहमति के यौन संबंध स्थापित करना एक तरह से महिला की व्यक्तिगत पहचान और उसकी दैहिक स्वतंत्रता पर प्रश्नचिन्ह खड़े करता है।

 

दूसरे देशों में वैवाहिक बलात्कार की स्थिति

एमनेस्टी इंटरनेशनल के आंकड़ों के मुताबिक, 185 देशों में से 77 देश (42 फीसदी) वैवाहिक बलात्कार को कानून की नजर में अपराध मानते हैं। बाकी बचे देशों में इसका या तो उल्लेख नहीं है या स्पष्ट रूप से वैवाहिक बलात्कार को रेप कानून से बाहर रखा गया है। घाना, भारत, इंडोनेशिया, जॉर्डन, लेसोथो, नाइजीरिया, ओमान, सिंगापुर, श्रीलंका और तंजानिया जैसे दस देश स्पष्ट रूप से किसी महिला या लड़की के पति को वैवाहिक बलात्कार की अनुमति प्रदान करते हैं।

74 देशों में महिलाओं को अपने पति के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने की अनुमति प्रदान की गई है, तो वहीं 185 में से 34 देशों में इस तरह का कोई प्रावधान नहीं है। लगभग एक दर्जन देश बलात्कारियों को अपने पीड़ितों से शादी करके अपराध से बचने की अनुमति देते हैं।

सभी ने अपराध बनाने से किया इनकार

2012 में हुए दर्दनाक निर्भया गैंगरेप के बाद जस्टिस जे.एस. वर्मा कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में रखने की बात की थी। वर्मा कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक, 2010 के एक अध्ययन से पता चलता है कि 18.80 फीसदी महिलाओं के साथ उनके साथी एक या उससे अधिक अवसरों पर बलात्कार करते हैं। कमेटी ने यह भी कहा था कि विवाह बलात्कार के खिलाफ वैध बचाव नहीं है। इससे साफ हो जाता है कि कमेटी ने इसे अपराध की श्रेणी में रखने की पुरजोर सिफारिश की थी। लेकिन तत्कालीन सरकार ने उनकी इस सिफारिश को नजरंदाज कर दिया।

साल 2015 में संसद में भी यह मुद्दा उठा। संसद सत्र में इस बारे में पूछे जाने पर तत्कालीन गृह राज्य मंत्री हरिभाई चौधरी ने कहा, “वैवाहिक बलात्कार को देश में लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि भारतीय समाज में विवाह को संस्कार या पवित्र माना जाता है।” इसी तर्क को आगे जारी रखते हुए तत्कालीन केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री कृष्ण राज ने 2017 में कहा कि केंद्र सरकार अपवाद हटाने के खिलाफ है।

कुल मिलाकर देखा जाए, तो वैवाहिक बलात्कार को आपराधिक रूप देने की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में चलने वाली है। लेकिन हाल के दिनों में केंद्र सरकार ने अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं की है। अब आगे देखना होगा कि इसमें विधायिका की कार्यशैली किस प्रकार रहती है। जहां तक इसके आपराधिक दृष्टिकोण की बात है, तो इस पर बहस की जरूरत है। इसमें व्याप्त कमियों को उजागर कर इसे सही दिशा प्रदान करने की भी जरूरत है। क्योंकि अगर इसे अपराध की संज्ञा दी गई, तो यकीन मानिए बहुतायत मात्रा में इसके दुरुपयोग सामने आएंगे और वैवाहिक जीवन की सरलता पर व्यापक असर देखने को मिलेगा।

अभिनव नारायण झा

(लेखक अधिवक्ता और मामले के विशेषज्ञ हैं। विचार निजी हैं)

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