अजेय माने जा रहे समाजवदी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल गठबंधन का न जोड़ पूरा बैठा, न खेतिहर-पिछड़े-दलित-मुसलमान के गठजोड़ से नए समीकरणों की संभावनाशील राजनीति ही परवान चढ़ी। इस फॉर्मूले के एक हिस्से पिछड़े-दलित-मुसलमान समीकरण को एक हद तक 1993 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद सफलतापूर्वक आजमाया जा चुका था। सो, इस बार पश्चिम उत्तर प्रदेश में प्रभावी खेतिहर जाटों के साथ यह समीकरण कम से कम कागज पर दुर्जेय मान लिया गया था। इसकी संभावनाएं भी प्रबल थीं क्योंकि कृषि संकट, खस्ताहाल ग्रामीण अर्थव्यवस्थाय, छोटे उद्योग-धंधों की दुर्दशा बेपनाह थी। लेकिन लोकसभा चुनावों के परिणाम आए तो सारी संभावनाएं जैसे मिट्टी में समा गईं और भाजपा अपने पक्ष में बहती अंतर्धारा के दावे के साथ 62 (और सहयोगी अपना दल-सोनेलाल की 2 सीटों के साथ 64) सीटें पा गई। गठबंधन के पास महज 15 (बहुजन समाज पार्टी को 10 और समाजवादी पार्टी को 5) सीटें ही आईं। तो, इसकी वजह क्या नेताओं की अपील कमजोर पड़ना या संगठन की कमजोरी या फिर नए समीकरणों की राजनीति का सूत्रपात करने की नेताओं की काबिलियत पर लोगों का भरोसा कम होना है? जो भी हो, मोटे तौर पर सन्नाटा है।
इस सन्नाटे को बसपा प्रमुख मायावती ने यह कहकर तोड़ा कि सपा अपने वोट बैंक का ट्रांसफर नहीं करा पाई इसलिए गठबंधन मुल्तवी किया जाता है और उनकी पार्टी हाल के होने वाले 11 विधानसभा उपचुनावों में अकेले उतरेगी। हालांकि सपा को ज्यादा नुकसान हुआ है।
सपा के लिए आगे की राह और कठिन लगती है। पिछले तीन चुनावों 2014, 2017 और 2019 में पार्टी तीसरे नंबर पर पहुंच गई है। 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनावों में सपा अपनी जमीन बचाने में सफल रही थी। उसका वोट प्रतिशत 2014 में 22.20 और 2017 में 21.8 प्रतिशत था, जबकि 2019 में उसे 17.96 फीसदी वोट ही मिले। मतलब यह कि उसके वोट में करीब चार फीसदी की कमी आ गई। इसके विपरीत बसपा 2014 में एक सीट भी नहीं जीत पाई थी और वोट प्रतिशत 19.6 प्रतिशत था। 2017 के विधानसभा चुनाव में 22.2 प्रतिशत रहा और पार्टी महज 19 सीटों पर सिमट गई, लेकिन 2019 में बसपा को 19.26 फीसदी वोट मिले और 10 लोकसभा सीटों पर जीत का परचम लहराया। इसके अलावा 18 सीटें ऐसी हैं, जहां बसपा का वोट प्रतिशत 20 से 28 फीसदी बढ़ा है (देखें बाक्स) और पार्टी दूसरे नंबर पर रही है। बसपा इस लोकसभा चुनाव में अपना राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा बचाने में भी कामयाब रही है। सपा को अपने गढ़ में कन्नौज, फिरोजाबाद और बदायूं सीटें गंवानी पड़ीं और महज पांच आजमगढ़, मैनपुरी, रामपुर, मुरादाबाद, संभल सीटों से संतोष करना पड़ा। ऐसे में सपा का वोट बैंक बसपा को ट्रांसफर नहीं हुआ, कहना मुश्किल है।
सपा के एमएलसी शतरुद्र प्रकाश कहते हैं, “रामगोपाल जी ने खुद कहा है कि अगर यादव वोट नहीं मिला होता, तो बसपा 10 सीटें कैसे जीतती। इसके उलट कई जगह बसपा का वोट सपा को ट्रांसफर नहीं हो पाया।” गठबंधन के बारे में वह कहते हैं, “बहुत से लोग इससे सहमत नहीं थे कि गठबंधन हो। नेता जी (मुलायम सिंह) भी असहमत थे। एक बार पहले भी कांग्रेस के साथ गठबंधन करके देखा जा चुका है। कभी-कभी कार्यकर्ता आपस में मिक्सअप हो जाते हैं, लेकिन अकसर नहीं होते। दोनों दलों ने प्रयास किया था, लेकिन उसे इतना समय नहीं मिल पाया और लोग आपस में मिक्सअप नहीं हो पाए। बहुत-सी जगह उनका वोट ट्रांसफर नहीं हो पाया।”
वे उस नब्ज पर भी हाथ रखते हैं जो नए समीकरणों की राजनीति के लिए नेताओं के कद और असर की अहमियत की ओर इशारा करती है। उन्होंने कहा, “पहले चौधरी चरण सिंह साहब, कांशीराम जी और मुलायम सिंह जी जैसे नेता वोट बैंक ट्रांसफर करा लेते थे। अब दावे के साथ कोई नहीं कह सकता कि हम सौ फीसदी वोट ट्रांसफर करा देंगे। अब किसी-किसी सीट पर अधिकतम 60 फीसदी ही वोट ट्रांसफर हो पाया है। औसतन 40 से 45 फीसदी ही वोट ट्रांसफर हो पाया है और कहीं-कहीं तो यह भी नहीं हो पाया है।” जाहिर है, इससे मायावती, अखिलेश या अजित सिंह के नेतृत्व पर गहरे सवाल खड़े होते हैं। लेकिन बसपा के एमएलसी अतर सिंह राव कहते हैं, “बहन जी (मायावती) बिना प्रमाण के कुछ नहीं कहतीं। उनको बूथ स्तर तक की रिपोर्ट मिली है और इसी आधार पर समीक्षा कर उन्होंने निर्णय लिया है। अगर ऐसा नहीं होता तो सपा की ओर से खंडन किया जाता, लेकिन अखिलेश यादव ने भी सधा हुआ बयान दिया है।” अखिलेश ने मायावती के बयान के बाद कहा, “मैं इंजीनियरिंग का छात्र हूं और एक प्रयोग किया था, जो फेल हुआ। फिर कुछ और करेंगे।” हालांकि सपा के ही एक अन्य नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, “बसपा सुप्रीमो केंद्र में गेमचेंजर की भूमिका में खुद को देख रही थीं, लेकिन जब उनका सपना टूट गया तो यूपी में सियासी जमीन बचाने के लिए वे सपा से अलग होने का बहाना तलाशने लगीं।” वहीं, बीएचयू के समाजशास्त्र के रिटायर प्रोफेसर सोहनराम यादव कहते हैं, “जबसे यह गठबंधन बना है, तभी से लोग लगे थे कि यह सफल न हो। अगर यह बरकरार रहता तो दिक्कतें होतीं। अगर गठबंधन धरातल पर भी दिखा होता तो परिणाम कुछ और होते, लेकिन केमेस्ट्री बनी नहीं। अब तक जितने गठबंधन बने, वे ज्यादा सफल नहीं हो पाए। नेताओं के गठबंधन कर लेने के ऐलान से बात नहीं बनती। मायावती की अपील के बाद भी अमेठी में राहुल हारे। बसपा का वोट नहीं ट्रांसफर हुआ। यह बात समझनी चाहिए।”
बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर यूनिवर्सिटी के राजनीति विज्ञान के प्रमुख प्रो. शशिकांत पांडेय कहते हैं, “गठबंधन सफल नहीं होने के कई कारण हैं, लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि गठबंधन जल्दबाजी में किया गया था। वोटर को बिलकुल वक्त नहीं मिला। उनमें आपसी विरोध भी रहे हैं। अगर समय मिला होता तो विरोध शांत किए गए होते। फिर गैर-जाटव दलितों ने बड़ी संख्या में भाजपा को वोट दिया है। जाटवों में भी भाजपा ने सेंधमारी शुरू कर दी है।” इसी के साथ वे दूसरी हकीकत की ओर भी इशारा करते हैं। वे कहते हैं, “वोटर का मिजाज अब बदल चुका है। सपा-बसपा नेताओं में गोरखपुर, फूलपुर, कैराना उपचुनाव जीतने के बाद अति आत्मविश्वास आ गया था। विपक्ष को नए सिरे से सोचना होगा। भाजपा का इस वक्त आधार वोटर सबसे ज्यादा है और अपने आधार वोटर में वह लगातार काम कर रही है। शिवपाल यादव फैक्टर भी अखिलेश के लिए निगेटिव साबित हुआ है।”
उधर, भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष तथा केंद्रीय मंत्री डॉ. महेंद्रनाथ पांडेय कहते हैं, “यह अवसरवादी गठबंधन था, जो अपने परिवार को बचाने और भ्रष्टाचार को छुपाने के लिए किया गया था। इस गठबंधन की न कोई दृष्टि थी, न कोई सोच और न जनहित से ही कुछ लेना-देना था। मतदाता चाहे किसी भी जाति-धर्म या वर्ग का हो, वह किसी राजनैतिक दल का बंधुआ नहीं होता है। बसपा प्रमुख की यह पुरानी आदत है कि अपनी गलतियों से सबक लेने के बजाय हार का ठीकरा किसी न किसी जाति-धर्म या वर्ग पर फोड़ती हैं।”
यह भी सही है कि उत्तर प्रदेश में गठबंधन की सियासत का इतिहास कभी खुशनुमा नहीं रहा। 1967 के गैर-कांग्रेसी संविद सरकारों का दौर भी थोड़ा ही रहा था। फिर, एक मायने में प्रदेश में 1989 से गठबंधन की सियासत का दौर शुरू हुआ। तबसे राज्य में सपा-बसपा, भाजपा-बसपा, कांग्रेस-बसपा, रालोद-कांग्रेस जैसे अनेक गठबंधन बनते देखे गए, लेकिन लगभग हर बार गठबंधन की राजनीति दम तोड़ती नजर आई। छोटे दलों की तो बात ही छोड़ दीजिए, कोई भी ऐसा बड़ा दल नहीं रहा, जिसने कभी न कभी गठबंधन न किया हो। मगर गठबंधन का हश्र हमेशा एक जैसा ही रहा। ऐसा ही सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के साथ भी हुआ।