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विहिप के ऐलान से हो गईं बेमानी

28 अक्टूबर 1992 को हिंदुत्व संगठनों के ऐलान से आम सहमति बनाने की कोशिशों को लगा बड़ा झटका
एक बैठक में सुबोधकांत सहाय के साथ सभी दलों के दिग्गज नेता

शाम के तीन-चार बजे थे, तारीख 28 अक्टूबर 1992 थी। दिल्ली के विज्ञान भवन में बाबरी-मस्जिद और राम जन्मभूमि विवाद को लेकर अहम बैठक चल रही थी, जिसमें हिंदू पक्ष के वार्ताकर से लेकर मुस्लिम पक्ष और राज्य के मुख्यमंत्री भी शामिल थे। ऐसा लग रहा था कि हम किसी ठोस फैसले पर पहुंच जाएंगे। लेकिन एक खबर ने सब कुछ बदल दिया। हमें पता चला कि पास में ही रामलीला मैदान में होने वाली बैठक में हिंदू संगठनों ने 6 दिसंबर को अयोध्या में कारसेवा करने का ऐलान कर दिया है। मीटिंग हाल में खबर सुनते ही सबके चेहरे पर मायूसी छा गई। मौजूद लोगों ने कहा कि अब क्या फायदा? यहां हम समझौते का रास्ता निकालने की कोशिश कर रहे हैं, उधर एकतरफा ऐलान किया जा रहा है। इसके बाद हमने 9 नवंबर को एक औपचारिक बैठक की, जिसमें यह तय हुआ कि संबंधित पक्ष अपनी राय लिखित में देंगे। उसे बाद में गृह मंत्रालय को सौंप दिया गया। इसके बाद 6 दिसंबर 1992 को जो घटना हुई, उससे वह भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का काला दिन बन गया। उसके बाद जो राजनीति चली, उससे भारतीय राजनीति को खून का चस्का लग गया, जिसने देश को बहुत नुकसान पहुंचाया। लेकिन सदियों पुराने विवाद पर अब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया है।

एक बात यह भी समझनी चाहिए कि जब भी कोई फैसला होता है तो वह कभी बराबरी का नहीं होता है लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले में बराबरी की नीयत है। फैसले में मध्यस्थता की उन कोशिशों की भी झलक दिखती है, जो हमारे समय में हुई थीं। मैं ऐसी तीन कोशिशों का गवाह रहा हूं। पहली कोशिश विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार में हुई थी। उसके बाद चंद्रशेखर के नेतृत्व में सरकार बनने पर भी यह कोशिश हुई। लेकिन दोनों सरकारें बेहद कम समय में गिर गईं। इसकी वजह से मध्यस्थता के लिए एक माहौल तो बन गया लेकिन उसके लिए कोई रोडमैप नहीं तैयार हो पाया। चंद्रशेखर सरकार के समय की सबसे बड़ी सफलता यह थी कि पहली बार तार्किक तरीके से विवाद को हल करने की कोशिशें शुरू हुईं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को इसमें शामिल किया गया। ऐसा करने से प्रमाणों के आधार पर बात आगे बढ़ने की प्रक्रिया शुरू की गई।

चंद्रशेखर सरकार गिरने के बाद जब केंद्र में पी.वी.नरसिंह राव के नेतृत्व में सरकार बनी, उस वक्त मैं कांग्रेस पार्टी का सदस्य नहीं था। ऐसे में एक दिन उनका मेरे पास फोन आया कि क्या आप मध्यस्थता की प्रक्रिया फिर शुरू करने में सहयोग करेंगे? मैंने उनकी बात को स्वीकारते हुए फिर से प्रक्रिया शुरू कर दी। इसमें कांग्रेस से शरद पवार, चिमनभाई पटेल, भाजपा से भैरों सिंह शेखावत, राजमाता सिंधिया, शाही इमाम, हिंदू संगठनों के नेता और दूसरे संबंधित पक्ष शामिल हुए। इन बैठकों का सबसे अहम फायदा यह हुआ कि उस समय देश में जो धार्मिक उन्माद फैल रहा था, उसे थोड़ा ठंडा किया जा सका। जब किसी के साथ बैठकर बातें करते हैं, तो रवैया अलग ही होता है और सड़क पर विवाद सुलझाने का रवैया एकदम अलग।

मैं इस दौर में हुई मध्यस्थता के अनुभव से बड़ी जिम्मेदारी के साथ कह सकता हूं कि मुस्लिम समुदाय के लोगों ने कभी कोई ऐसी अड़चन नहीं डाली, जिससे इस वार्ता में कोई दिक्कत आए। एक बात मैं और स्पष्ट करना चाहता हूं कि मध्यस्थता के समय इस बात को लेकर कभी कोई विवाद नहीं रहा कि वहां पर राम मंदिर नहीं बनना चाहिए। बस उसे दिल जीत कर बनाना है या फिर जबरन हथिया कर बनाना है, इसी तरीके को तय करना था। मुझे याद है कि एक प्रमुख हिंदुत्‍ववादी नेता ने एक बार मुझसे कहा था कि बाबरी मस्जिद में तीन गुंबद हैं, उसमें दो हिंदुओं को दे दीजिए और एक मुसलमानों को दे दीजिए। कहने का मतलब यह है कि उस समय इस मामले को लेकर बहुत ज्यादा कट्टरता नहीं थी। जिन लोगों की छवि बेहद कट्टर थी, वे भी इस मसले को पहले बेहद शांत तरीके से हल करना चाहते थे। लेकिन 6 दिसंबर 1992 को होने वाली कारसेवा के ऐलान के बाद पूरी परिस्थति ही बदल गई। देश धार्मिक उन्माद की दिशा में चला गया। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मुझे प्रधानमंत्री नरसिंह राव का एक बयान याद है, जिसमें उन्होंने कहा था कि “इन लोगों ने मेरे हाथ-पैर बांध दिए।” आम सहमति बनाने का रास्ता खत्म होने की कसक उनमें साफ दिख रही थी।

अब अंतिम फैसले की बात करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में मध्यस्थता की कड़ी को ही आगे बढ़ाया है। अब जरूरी यह है कि जितनी जल्दी हो सके, अयोध्या में भगवान राम का मंदिर बना दिया जाए, जिससे यह विवाद हमेशा के लिए खत्म हो जाए। अच्छा तो यह होगा कि मंदिर निर्माण की प्रक्रिया में हिंदू और मुसलमान दोनों मिलकर भाग लें, जिससे देश सारी कड़वाहट भूलकर नई दिशा में आगे बढ़े।

(लेखक चंद्रशेखर सरकार में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री थे और उन्होंने अयोध्या विवाद पर हुई मध्यस्थता में अहम भूमिका निभाई थी। यह लेख प्रशांत श्रीवास्तव से बातचीत पर आधारित है)

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