अपना-सा शहर
एक बार किसी पत्रकार युवती ने पूछा, “कोई आपको एक ही शहर में एक वर्ष के लिए रहने के लिए कहे, आप कौन-सा शहर चुनेंगी।” मैंने कहा, “मुजफ्फरपुर।” अगला सवाल था, “उसकी क्या विशेषताएं हैं?” जवाब था, “मच्छर, कीचड़ के लिए कुख्यात शहर की सड़कों पर पानी भरा रहता है।” वह चौंकी, “क्यों? फिर आप वहां क्यों रहना चाहती हैं? ” मैंने कहा, “क्योंकि उन सड़कों, गलियों, सिनेमाघरों और होटलों की अनेक पुरानी स्मृतियों में ही डूबती-उतराती दिल्ली में 44 वर्षों से हूं। बचपन के दस वर्षों तक पिताजी की उंगली पकड़कर उसी शहर में घूमती रही। उनके साथ रिक्शा, टमटम और फिटिन की सवारी की। विवाह के बाद प्रोफेसर पति के साथ 16 वर्षों तक उसी शहर में रही। 1977 में दिल्ली आ गई।”
शिक्षा-संस्कृति-साहित्य का केंद्र
मुजफ्फरपुर बिहार की सांस्कृतिक राजधानी है। शिक्षा का केंद्र भी। प्रमुख महाविद्यालयों में लंगट सिंह कॉलेज, महंथ दर्शनदास महिला कॉलेज, रामदयालु सिंह कॉलेज, संस्कृत कॉलेज के साथ अनेकानेक कॉलेज और उच्च विद्यालय हैं। शहर में बंगालियों की आबादी होने के कारण संगीत विद्यालय भी कई हैं। लॉ कॉलेज और मेडिकल कॉलेज की स्थापना बाद में हुई है। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ लंगट सिंह महाविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे। जे.बी. कृपलानी भी इसी कॉलेज में अध्यापन करते रहे। स्वतंत्रता की लड़ाई में नौजवानों की टोली यहां तैयार होती रही है। स्वतंत्रता सेनानी खुदीराम बोस इसी शहर में हुए। चंपारण जाते हुए महात्मा गांधी ने इसी शहर में विश्राम किया था। साहित्यकारों में रामवृक्ष बेनीपुरी, जानकीबल्लभ शास्त्री, राजेन्द्र सिंह, श्यामनंदन किशोर, शिवदास पांडे के साहित्य पर शहरवासियों को गर्व है।
राजनेताओं की अनोखीकतार
यूं तो मुजफ्फरपुर ने राज्य और देश को कई राजनेता दिए हैं। चंद्रेश्वर प्रसाद सिंह (सर सी.पी.एन.) महेश प्रसाद सिंह, नवल किशोर सिंह, ललितेश्वर प्रसाद शाही, रामकृपाल सिंह, कैप्टन निषाद उनमें प्रमुख हैं। लेकिन मुजफ्फरपुर ने बाहरी नेताओं को भी अपने क्षेत्र से चुनाव लड़ाकर देश की राजनीति में भेजा। जे.बी. कृपलानी और जॉर्ज फर्नांडिस को भला कौन भुला सकता है। जॉर्ज साहब तो तीन बार चुनाव जीत कर लोकसभा में पहुंचे और मंत्री भी बने।
सदियों से बड़ा बाजार
बूढ़ी गंडक के किनारे बसे शहर में बिहार के वणिक वर्ग के साथ सिंधी, मारवाड़ी थोक और खुदरा बाजार सजाते रहे हैं। थोक वस्त्र बाजार सुतापट्टी से कपड़े खुदरा व्यापारी उत्तर बिहार, उत्तर प्रदेश, नेपाल, यहां तक कि तिब्बत तक ले जाते रहे हैं। बिहार, बंगाल, सिंध के साथ मुस्लिम समाज की मिली-जुली संस्कृति के सूत्रों को सब धारण किए रहते थे। समय बदला। धीरे-धीरे ग्रामीण आबादी शहर में समाती गईं। चारों दिशाओं में खेती की जमीन में घर बनने लगे। आबादी बढ़ गई। पुराने कल्याणी चौक, सुतापट्टी, सरैयागंज, आमगोला के साथ अब कई नए बाजार बन गए हैं।
मिलीजुली सुगंध
गरीब स्थान, माई मंदिर के साथ कई मस्जिद, गुरुद्वारा, ईदगाह और चर्च भी हैं। मिलाजुला रंग, सुगंध का आपसी व्यवहार। यह शहर सबको आकर्षित करता है। यहां की लीची, आम, कटहल, जामुन और मखाना के साथ सब्जियां परवल, घिउरा, कच्चा केला, बिहार से बाहर दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद जैसे शहरों में रहने वाले बिहारी अवश्य ले जाते हैं। मुजफ्फरपुर को अपना शहर कहने वाले दिल्ली, मुंबई और तमाम बड़े शहरों से लेकर अमेरिका, इंग्लैंड के साथ अन्य दूसरे देशों में बसे भारतीय अपने शहर को अवश्य स्मरण करते हैं। दीवाली और छठ जैसे त्योहारों पर मुजफ्फरपुर आते भी हैं। पंजाबी, बंगाली, मुस्लिम मुहल्लों में प्रवेश करते ही उनके किचेन से भिन्न-भिन्न स्वाद के सुगंध आती है। सड़कों पर लड़कों के साथ स्कूल जाने वाली लड़कियां भी साइकिल चलाती दिखती हैं। पुराने और अत्याधुनिक गणवेश में महिला-पुरुष दिखते हैं। मौसम के अनुकूल सब्जियां और फलों से शहर सजा रहता है।
आनंद नगर
शहर की योजना बनाते हुए ही पानी के निकास की उपयुक्त व्यवस्था नहीं की गई। वहां की कमियां विचलित करती हैं, लेकिन कपड़े, सोना-चांदी से लेकर सब्जी बेचने और पान के दुकानदारों की आत्मीयता शहर से बहार जाकर बसने वालों को सहलाती रहती हैं। मुजफ्फरपुर तो मुजफ्फरपुर है। तुलसीदास ने लिखा है, “निज कवित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका।” अपना शहर तो अपना ही है। अपना शहर स्मृति में मिठास घोलता है। इसलिए तो किसी ने इसका नाम ‘मुदफलपुरम्’ दिया था। ऐसा शहर, जो आनंद फल देता है।
कल और आज
मुजफ्फरपुर का यह परिचय उसका बीता हुआ कल है भी और नहीं भी है। बाजारों में इजाफा हुआ है। छोटे-छोटे होटल बहुत बने हैं। प्रधानमंत्री ने मुझे अपना ‘स्वच्छता दूत’ नामित किया तो मैंने मुजफ्फरपुर के भी दस स्वच्छता दूत नामित किए। उनका प्रभाव भी दिखा।