“साहब, यहां तो लोग गाड़ियों में ऐसे घूम रहे हैं जैसे किसी तरह का कोई लॉकडाउन है ही नहीं। हम भी बाहर जाकर ये सब कर सकते हैं लेकिन हम ऐसा कुछ नहीं कर रहे, हमें तो सिर्फ खाना दिलवा दीजिए।”
“मैडम हम तिरपुर में फंसे हुए हैं। हमारे पास खाने के लिए कुछ नहीं है। हम हड़ताल पर बैठे हैं लेकिन पुलिस हमको मारती है। सरकार की तरफ से हमको कोई मदद नहीं मिली है। हमारा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से निवेदन है कि वो हम सब को वापस घर पहुंचा दें। हमको कोई काम नहीं चाहिए।”
“अब तो हमें अपनी ही जमीन पर अजनबियों जैसा लग रहा है।”
ये तीन बयान उन हजारों बयानों में से हैं, जिन्हें स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (स्वान) के वालेंटियर रोज सुनते हैं। आज तक (9 मई) हम 22 हजार से ज्यादा मजदूरों तक पहुंच चुके हैं। हमारे साथियों के साथ बांटे गए अनुभवों से हमें इन प्रवासी मजदूरों की पीड़ा का अंदाजा लगा और हम इस भीषण वास्तविकता से रूबरू हुए।
ज्यादातर मजदूरों की दैनिक मजदूरी 400 रुपये से भी कम होती है। ऐसे में उनका कर्ज में डूबना आश्चर्य नहीं है। इसका परिणाम यह होता है कि वह ठेकेदार के चंगुल से बाहर निकल ही नहीं पाते। अब तो लॉकडाउन के कारण प्रवासी मजदूरों के पास न काम बचा है और न जमा पूंजी। उस पर भी वे अपने घर नहीं जा पा रहे हैं। प्रशासन की तरफ से इस स्थिति में लाचार और बेबस मजदूरों की सुनवाई भी देर से शुरू हुई है। इसकी एक वजह लॉकडाउन की तैयारियों में भी दिखती है। निर्णय लेने से पहले केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों से विमर्श न कर उसे सीधे लागू कर िदया। ऐसे में, केंद्र और राज्य सरकारों के बीच समन्वय नहीं बन पाया। दूसरा, जब प्रवासी मजदूरों पर संकट खड़ा हुआ तो उन्हें राहत देने की सारी जिम्मेदारी राज्य सरकारों के कंधों पर डाल दी गई। इससे स्थिति और भयावह हो गई।
स्वान ने 1 मई 2020 को एक रिपोर्ट प्रकाशित कर लॉकडाउन में 32 दिनों तक किए गए कार्य को बताया, जिसमें राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर संकट की भयावह तसवीर सामने आई। रिपोर्ट के मुताबिक, जिन मजदूरों से संपर्क हुआ उनमें आधे के पास सिर्फ एक दिन का राशन बचा था। तब तक 12,248 में से 82 फीसदी लोगों को सरकारी राशन नहीं मिला था। केवल छह फीसदी मजदूरों को लॉकडाउन के दौरान मजदूरी मिली और 10 हजार से ज्यादा मजदूरों से बात कर पता चला कि केवल 200 लोगों को सरकार की तरफ से पैसा मिला। उसमें भी केवल 20 महिलाओं के जन-धन खाते में 500 रुपये पहुंचे हैं। तकरीबन छह फीसदी मजदूरों के पास 100 रुपये से भी कम बचे थे। 1,358 मजदूरों में से 46 फीसदी ने आपात स्थिति में हमसे संपर्क किया।
राहत के नाम पर प्रवासी मजदूरों के लिए वित्तमंत्री द्वारा जो वित्तीय पैकेज घोषित किया गया है, इसमें दो खामियां हैं। पहली, यह जरूरत से बहुत कम है। दूसरी, इस पैकेज का अधिकांश लोगों को फायदा नहीं मिला है। मिसाल के तौर पर, घोषणा के अनुसार हर परिवार को एक किलोग्राम दाल मिलेगी। यह मात्रा काफी कम है। यदि चार लोगों का परिवार है, तो महीने भर के लिए हर सदस्य के हिस्से में लगभग 250 ग्राम दाल आएगी। दूसरी खामी यह है कि जिस पैकेज की घोषणा हुई, उससे मिलने वाली राहत देर से लोगों तक पहुंच रही है। नकद सहायता में भी घोषित की गई राशि की तुलना में उससे कम राशि ज्यादातर लोगों को मिल पाई है। इसी तरह पंजीकरण के अभाव में लोगों को राशन और मुआवाजा मिलने में भी दिक्कत आ रही है।
इन परिस्थितियों में विभिन्न भूमिकाओं में कई नागरिकों ने स्वतंत्र रूप से और गैर सरकारी संगठनों और संस्थाओं ने मिलकर इन मजदूरों की सहायता की है। अगर इतनी सक्रियता से ये समूह कार्यरत न होते, तो परिस्थिति कब की अकाल और अराजकता वाली हो चुकी होती।
इस महामारी में प्रशासनिक तत्परता को लेकर चंद चीजें स्पष्ट रूप से सामने आई हैं। जब कोविड-19 के बारे में पूरी दुनिया को पता चला, सबने यही कहा कि इस बीमारी से लड़ना मुश्किल होगा। शायद तब सरकार द्वारा त्वरित कार्रवाई शुरू की गई होती तो इतना बड़ा संकट खड़ा नहीं होता और हम आज स्थिति का सामना करने के लिए कहीं ज्यादा सक्षम होते।
इस समय आर्थिक संसाधनों की आपूर्ति के अलावा सरकार को अपनी योजनाओं की जानकारी और लाभ प्रत्येक वर्ग तक पहुंचाने की भूमिका भी बखूबी निभानी होगी। आरोग्य विभागों में डॉक्टर्स, पैरा-मेडिकल स्टाफ, हेल्थ वर्कर्स और स्वास्थकर्मियों की संख्या बढ़ाने की जरूरत है। तत्काल राहत के दृष्टिकोण से मजदूर अपने घर लौटना चाहते हैं, उनके लिए स्वच्छता और सुरक्षापूर्ण परिवहन व्यवस्था का अमल करना, जटिल कानूनों के बिना उन सब में राशन का वितरण करना और प्रति मजदूर कम से कम 7,000 रुपये मुआवजे का प्रबंध करना आज की जरूरत है।
एक बेहद जरूरी बात जिसे समझने की जरूरत है, कि मजदूरों को अनाज और आर्थिक सहायता मिलना उनका मौलिक अधिकार है। एक परेशान मजदूर ने हमसे संपर्क कर कहा, “हमारे पास खाने का समान कम है। हम लाइन में खड़े रहकर या कभी-कभार ब्रेड खरीदकर भूख मिटाते हैं पर हम मांगते नहीं हैं क्योंकि हमें मांगने में शरम आती है।” यह सुनकर यही सवाल उठता है कि क्या हमने सुविधाओं के साथ इन मजदूर साथियों से उनकी गरिमा तक छीन ली है? क्यों आज उन्हें अपने मूलभूत अधिकारों की पूर्ति के लिए इतना लाचार होना पड़ रहा है? प्रशासन व्यवस्था, न्यायपालिका और मीडिया को चाहिए कि उनकी पीड़ा पहचाने और सुनिश्चित करे कि मजदूर वर्ग को उसका हक मिले और उसकी सुरक्षा और गरिमा जल्द से जल्द बहाल हो।
(दोनों लेखिका प्रवासी मजदूरों पर काम करने वाले समूह स्वान के साथ जुड़ी हैं)
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प्रवासी मजदूरों के लिए वित्त मंत्री ने जो वित्तीय पैकेज घोषित किया है, वह बहुत कम है। साथ ही इस पैकेज का फायदा अधिकांश लोगों को नहीं मिला है